Tuesday, May 28, 2019

एक संवाद में हस्तक्षेप और कम्युनिस्ट आन्दोलन को लेकर कुछ मुख़्तसर सी ज़रूरी बातें



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Mahesh Jaiswal
अभी भी 'बुर्जुआ' ही मार रहा है, 'बुर्जुआ' ही मर रहा है और ''बुर्जुआ' ही बचा रहा है ! देश में वामपंथी आंदोलन के लगभग सौ साल तो हो गए । पता नहीं 'क्रांतिकारी' कब जनता के रक्षक की भूमिका में उतरेंगे !!


Vijay Shaw
ये क्रांतिकारी तैयार कहां कर रहे हैं, १०० साल में इन्होंने राजनैतिक चेतना विहीन एक भीड़ खड़ी की है। १०० साल के लम्बे सफर के बाद आज वाम किंकर्तव्यविमूढ़ सा चौराहे पर खड़ा है, समझ नही पा रहा है कि आखिर उसे जाना कहां है, देश की राजनीति में आज वह हसिए पर है और अंतिम कतार में खड़ा नजर आ रहा है।


Kamal Sadana Kabeer
पिछले कुछ दिनों से आपके कमेंट/पोस्ट्स देख रहा हूँ । वाम आंदोलन की विफलता पर नेतृत्व को कटघरे में खड़े करते अन्य कई पोस्ट भी देखे हैं मैंने । जनता भौतिक चकाचौंध में खुद ही वाम से विमुख होती जारही है, बल्कि में तो ये कहूंगा कि वाम को छोड़ ही चुकी है । वो अपनी समस्याओं का समाधान तो चाहती है पर उस संघर्ष में खुद भागीदारी करने को तैयार नही है, न संघर्ष करने वालों को सहयोग करने तैयार है । मैं मध्यभारत से हूँ और यहां पर हालात ये हैं संघर्ष करना तो दूर संघर्ष की चर्चा करने भी वाम मंच पर आने को जनता तैयार नही । ऐसे हालातों में वाम कार्यकर्ता भी स्थितप्रज्ञ हैं ।


Vijay Shaw
अभाव, अज्ञान और संताप से त्रस्त जनता को चाहिए एक ईमानदार और भरोसेमंद नेतृत्व, पूंजीवादी व्यवस्था में प्रलुब्धकारी चीजें अवश्य लोगों को आकर्षित करती है लेकिन यह मान लेना कि ये आम लोगों को आन्दोलन से, संघर्ष से विमुख करती है, यह परिस्थितियों की गलत व्याख्या है, सच्चाई तो यह है कि उन राज्यों में जहां हम लगातार सत्ता में रहे हैं वहां हममे लेशमात्र भी क्रांतिकारी चेतना बची नहीं है, हम आराम पसन्द हो गये हैं, नौकरशाही चाल चलन हमारे रोजमर्रा के जीवन में व्याप्त हो गया है, हम या हमारे नेता मध्यममार्गी पार्टियों की तरह कम्युनिस्ट पार्टी को भी चलाना चाहते हैं, कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं को बहुत त्याग करना पड़ता है, जुझारूपन दिखाना होगा तब आप संगठन तैयार कर सकते हैं वरना नहीं। जहां तक मुखर होने की बात है तो पार्टी के विकास के लिए उसके अन्दर- बाहर वाद, विवाद, संवाद होने ही चाहिए, अपने किए, अनकिए की निर्मम आलोचना होनी चाहिए, कम्युनिस्ट पार्टियों का दुर्भाग्य है कि यह परिपाटी धीरे धीरे बंद होती जा रही है, पार्टी में यस मैन की संख्या बढ़ती जा रही है, असहमति को बर्दाश्त करने की क्षमता भी कम हो रही है। आप भी आलोचना जरूर करिए, पार्टी की कमियों पर अपने विचार खुल कर रखिए, अंदर हैं तो अंदर और बाहर हैं तो बाहर, पार्टी की बेहतरी इसी में है।


Mahesh Jaiswal
बुर्जुआ दलों से अलग यदि कम्युनिस्ट दल का नेतृत्व सभी स्तरों पर अपने घोषित आदर्शों के अनुरूप आचरण और चरित्र नहीं बना सकेगा तो वह बंगाल में 35 साल के सत्ता सुखी की तरह लोभी-भोगी-रोगी हो कर, जनता का विश्वास खो देगा ।
जाहिर है, तब वही पुराना बुर्जुआ ही शासन तंत्र पर नियंत्रण पा लेगा !

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Kavita Krishnapallavi
उपरोक्त संवाद महेश जायसवाल की एक पोस्ट पर चला था I इस संवाद में हस्तक्षेप करते हुए मैं भी विनम्रतापूर्वक कुछ निवेदन करना चाहती हूँ I अपनी बातें मैं सिलसिलेवार और नुक़तेवार नीचे रख रही हूँ I

(1) समस्या यह है कि जितनी भी संशोधनवादी पार्टियाँ हैं, वे अपने को कम्युनिस्ट पार्टियाँ ही कहती हैं, मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन की तस्वीरें भी टांगती हैं ( कुछ स्तालिन और माओ की भी टांगती हैं और कुछ नहीं टांगती हैं) और हंसिया-हथौड़े वाला लाल झंडा भी फहराती हैं I लेनिन ने संशोधनवाद की स्पष्ट परिभाषा दी थी कि उसका खोल कम्युनिस्ट होता है और अंतर्वस्तु बुर्जुआ होती है I आम लोग मार्क्सवादी विज्ञान से अपरिचय के नाते जेनुइन और नक़ली, यानी संशोधनवादी पार्टी के बीच भेद नहीं कर पाते और 'कम्युनिस्ट' और 'वाम' शब्द का इस्तेमाल एक 'जेनेरिक टर्म' की तरह करते हैं I एक सही कम्युनिस्ट पार्टी जब विचारधारात्मक विच्युति और विचलन से गुज़रकर क्रांतिकारी अवस्थिति से ही प्रस्थान कर जाती है, तो उस मोड़-बिंदु को आम लोग और कम समझ के पार्टी-कार्यकर्ता समझ नहीं पाते I वे पार्टी के क्रांतिकारी चरित्र के बारे में व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिस्ट) और अनुभववादी (एम्पीरिसिस्ट) तरीके से सोचते हैं और नेतृत्व को भाववादी तरीके से निर्भूल मानते हैं I बुर्जुआ राजनीति करने वाली संशोधनवादी पार्टी जब सुधारों, राहतों और वाजिब माँगों को लेकर लड़ती है और सरकार में शामिल होकर सुधार के कुछ कदम उठाती है तथा राहत देने वाले कुछ फैसले लेती है तो पार्टी कार्यकर्ता और आम लोग समझते हैं कि इसीतरह राहत और सुधार के काम करते-करते पार्टी देश को एक दिन समाजवाद की मंजिल तक पहुँचा देगी I जब नकली, यानी संशोधनवादी पार्टियाँ बुर्जुआ संसदीय राजनीति में पूरीतरह व्यवस्थित और अनुकूलित हो जाती हैं, तो बुर्जुआ अर्थनीति और राजनीति के साथ उनका भी पतन होता चला जाता है I जब इन पार्टियों का बाह्य रूप और व्यवहार भी इनकी बुर्जुआ अंतर्वस्तु से पूरीतरह मेल खाने लगता है तो आम लोग और पार्टी कार्यकर्ता निराश होकर कहने लगते हैं कि 'यह पार्टी भी अब पतित, भ्रष्ट, अयोग्य या लक्ष्यच्युत हो गयी है, या, हो रही है I' तब भी लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि बुर्जुआ चरित्र में ढल चुकी इस संशोधनवादी, या सोशल-डेमोक्रेट, या नक़ली कम्युनिस्ट पार्टी को फिर से जेनुइन कम्युनिस्ट पार्टी नहीं बनाया जा सकता, बल्कि नए क्रांतिकारी केंद्र का निर्माण और गठन ही एकमात्र विकल्प होगा ! वे सोचते हैं कि नेतृत्व अगर काहिली और सुविधाभोगी जीवन छोड़ दे, या नेतृत्व में अगर कुछ ईमानदार लोग आ जाएँ, या सभी कम्युनिस्ट अगर एक हो जायें (वे समझते हैं कि कम्युनिस्टों में फूट उनके ईगो के कारण है, न कि किसी विचारधारात्मक-राजनीतिक मतभेद के कारण!) तो सारी समस्याएँ हल हो जायेंगी !

(2) मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षा यह है कि अबतक किसी भी शोषक-शासक वर्ग ने शांतिपूर्वक शोषित-उत्पीड़ित वर्गों को न तो सत्ता सौंपी है और न ही आगे ऐसा संभव है I हर राज्यसत्ता शासक वर्गों का अधिनायकत्व होती है, और राज्यसत्ता की बनी-बनायी मशीनरी का ध्वंस करके ही संघर्षरत वर्ग अपनी राज्यसत्ता, यानी अपने वर्गीय अधिनायकत्व की स्थापना करता है I हर किस्म का बुर्जुआ लोकतंत्र बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व, यानी बुर्जुआ राज्यसत्ता का कोई न कोई रूप होता है और सर्वहारा वर्ग की हरावल पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी का अंतिम लक्ष्य होता है कि वह बुर्जुआ राज्यसत्ता का बलात ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना के ऐतिहासिक मुहिम में मेहनतकश जन-समुदाय को नेतृत्व दे I इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कम्युनिस्ट मज़दूरों और सभी क्रांति-पक्षधर वर्गों के जन-संगठन बनाते हैं, आर्थिक सुधारों-माँगों-रियायतों के लिए लड़ते हुए जनता की जुझारू संगठनबद्धता को बढ़ाते हैं, रूढ़ियों से मुक्ति और वर्ग-चेतना को प्रखर बनाने के लिए सतत सामाजिक आन्दोलन करते हैं और सांस्कृतिक कार्य करते हैं I और सिर्फ़ इतना ही नहीं, बुर्जुआ जनवाद का रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) इस्तेमाल करने के लिए वे बुर्जुआ संसदीय चुनावों, विधायिकाओं और मुमकिन होने पर, सरकारों में भी भागीदारी करते हैं I टैक्टिकल इस्तेमाल का मतलब है चुनाव लड़ते हुए और संसद में हिस्सा लेते हुए सच्चे कम्युनिस्ट निरंतर जनता के बीच इस व्यवस्था के असली चरित्र और सीमाओं का एक्सपोज़र करते हैं और उसके सामने क्रांति और समाजवाद की अपरिहार्यता को स्पष्ट करते हैं I जो लोग सिर्फ़ आर्थिक सुधारों-रियायतों की लड़ाई लड़ते हैं और मज़दूरों के बीच क्रांतिकारी राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक मुद्दों पर संघर्ष का काम नहीं करते, वे लोगों में यह विभ्रम पैदा करते हैं कि आर्थिक सुधारों,रियायतों के लिए लड़ते-लड़ते ही हम समाजवाद तक पहुँच जायेंगे I ऐसे लोग अर्थवादी कहलाते हैं I इसीतरह सुधारवादी भी जनता को क्रांति और समाजवाद के लक्ष्य और संघर्ष की शिक्षा नहीं देते और यह भ्रम पैदा करते हैं कि सामाजिक-राजनीतिक सुधार करते-करते ही हम समाजवाद तक पहुँच जायेंगे, बलात राज्यसत्ता-ध्वंस की कोई ज़रूरत ही नहीं होगी I जो कम्युनिस्ट चुनावों और संसद आदि का टैक्टिकल नहीं बल्कि स्ट्रेटेजिक इस्तेमाल करते हैं, यानी लोगों में यह भ्रम फैलाते हैं कि इसी राज्यसत्ता के रहते वे अगर सरकार में आ गए तो धीरे-धीरे समाजवाद ला देंगे, वे संसदीय जड़वामन "कम्युनिस्ट" होते हैं, इन्हें संशोधनवादी कहते हैं I यानी संशोधनवादी राज्यसत्ता के प्रश्न की मार्क्सवादी समझ को विकृत बनाकर जन-समुदाय को ठगने का काम करते हैं I जो संशोधनवादी होते हैं, वे अनिवार्यतः अर्थवादी और सुधारवादी भी होते ही हैं I बुर्जुआ राज्यसत्ता बुर्जुआ वर्ग के शासन और दमन का केन्द्रीय उपकरण है ! इसका भी मुख्य अंग सशस्त्र बलों का तंत्र है I पूरी व्यवस्था के रोजमर्रा के काम नौकरशाही करती है I सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और विधायिका सरकार द्वारा पेश बिलों को पास करके उन्हें क़ानून का रूप देने की औपचारिकता निभाती हैं I संशोधनवादी ऐसा दिखाते हैं मानो सरकार ही राज्यसत्ता हो और वे चुनाव जीतकर सरकार में आ गए तो धीरे-धीरे समाजवाद ला देंगे I यह संशोधनवादी गू क्रांतिकारी जुमलों के बरतन में रखकर बर्नस्टीन, काउत्स्की आदि पहले भी प्रस्तुत कर चुके थे, पर ख्रुश्चेव ने "शांतिपूर्ण सहअस्तित्व-शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा-शांतिपूर्ण संक्रमण" के सिद्धांत के रूप में इसे सबसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत किया I दुनिया की थोड़ा नरम या थोड़ा गरम, थोड़ी ढँकी या अधनंगी या पूरीतरह नंगी -- जितनी भी संसदमार्गी या संशोधनवादी पार्टियाँ है उनका आदि-कुलगुरु ख्रुश्चेव ही है I अब आगे उसमें एक नाम 'चीनी ख्रुश्चेव' देंग सियाओ-पिंग का भी जुड़ चुका है !

(3) लेनिन का कहना था कि मज़दूर वर्ग की जिस पार्टी का लक्ष्य अंततोगत्वा बलात बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करना होगा, वह 'मास मेम्बरशिप' वाली जन-पार्टी नहीं हो सकती, वह अपने कार्यक्रम और संविधान को मानने वाले सभी आंशिक सक्रिय लोगों, हमदर्दों और समर्थकों को सदस्यता नहीं दे सकती I वह फौलादी अनुशासन वाली कैडर-पार्टी होगी, जिसका मेरुदंड पेशेवर क्रांतिकारियों (होलटाइमरों) का कोर-ग्रुप होगा और सदस्यता दायरा केवल पार्टी के किसी मोर्चे पर सक्रिय एक्टिविस्ट साथियों तक ही हो सकता है I उन्होंने यह भी कहा कि ज़्यादा से ज्यादा खुले बुर्जुआ जनवादी माहौल में काम करते हुए भी, चुनाव में हिस्सा लेते हुए भी, कोई क्रांतिकारी पार्टी पूरीतरह खुली नहीं हो सकती, उसका ढाँचा, कार्य-प्रणाली और सदस्यता एवं कमेटी ढाँचा खुला नहीं हो सकता ! सांगठनिक ढाँचे और कार्य-प्रणाली के सवाल पर मेंशेविकों से, और आगे चलकर यूरोप की काउत्स्कीपंथी पार्टियों से बोल्शेविकों का यही बुनियादी अंतर था !

(4) राज्यसत्ता और संसदीय चुनाव आदि के प्रश्न पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी अवस्थितियों को लेनिन की रचनाओं "राज्य और क्रांति", "राज्यसत्ता क्या है', 'मार्क्सवाद और संशोधनवाद', 'सर्वहारा क्रांति और गद्दार काउत्स्की' आदि पढ़कर तथा 'महान बहस' ( ख्रुश्चेव के साथ चीनी पार्टी की बहस ) के दस्तावेजों को पढ़कर भली-भाँति समझा जा सकता है ! सांगठनिक सवाल पर एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी के ढाँचे और कार्य-प्रणाली को लेनिन की रचनाएँ-- 'एक कदम आगे दो कदम पीछे' और 'क्या करें' पढ़कर जाना जा सकता है I कोमिन्टर्न के अधिवेशन में लेनिन द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ 'कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और ढाँचा'और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पुस्तक 'पार्टी की बुनियादी समझदारी' भी ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए !

(5) इस संक्षिप्ततम सैद्धांतिक पूर्व-पीठिका के बाद, आइये, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन पर एक सरसरी नज़र डाली जाए !
(क) एक पिछड़े और गुलाम देश में जन्म लेने के कारण भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप से बेहद कमजोर था I अपने देश की ठोस परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी यह अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का मुँह जोहता था I महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़-बिन्दुओं पर भारत के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने या तो निर्णय लेने में देर की, या फिर गलत निर्णय लिए I पार्टी का ढाँचा शुरू से ही ढीला-पोला था I लेकिन तमाम कमजोरियों-गलतियों के बावजूद यह 1951 तक सर्वहारा वर्ग की ही पार्टी थी I नेतृत्व ने नीतिगत गलतियाँ कीं, पर कतारों ने बहादुराना संघर्ष किये और बेमिसाल कुर्बानियाँ दीं I गलतियों और भटकावों के परिमाणात्मक विकास के सिलसिले ने 1951 में एक गुणात्मक छलाँग तब ली जब तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी-नेतृत्व ने नेहरू सरकार के सामने पूरीतरह से आत्म-समर्पण कर दिया I पूरा पार्टी ढाँचा, सदस्यता, कमेटी-व्यवस्था, हेडक्वार्टर आदि को पूरीतरह से खुला कर दिया गया, पार्टी-सदस्यता यूनियनों की चवन्निया मेम्बरी की तरह बँटने लगी और पार्टी का परम लक्ष्य चुनाव लड़कर संसद में बैठना होकर रह गया I सोवियत संघ में ख्रुश्चेव जब संशोधनवाद की लहर लेकर आया तो 1958 में भारतीय पार्टी की अमृतसर स्पेशल कांग्रेस में उसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया ! अब पार्टी के भीतर नेतृत्व के एक हिस्से का कहना था कि सत्तारूढ़ प्रगतिशील बुर्जुआ के प्रतिनिधि नेहरू राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति (यानी साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी कार्यभार ) को पूरा करने का काम कर रहे हैं, अतः हमें उनका समर्थन करना चाहिए I दूसरे धड़े का कहना था कि नेहरू के नेतृत्व में बड़ी बुर्जुआजी अपने वायदों से विश्वासघात कर रही है, अतः हमें मज़दूरों-किसानों और मध्य वर्ग के साथ रैडिकल छोटी बुर्जुआजी को लेकर लोक जनवादी क्रान्ति के लिए संघर्ष करना होगा I लेकिन व्यवहारतः इस धड़े ने भी कुछ रुटीनी ट्रेड यूनियन संघर्षों, आन्दोलनों और चुनावी सरगर्मियों के अतिरिक्त पार्टी के बोल्शेविकीकरण के लिए कुछ करना तो दूर, कोई आवाज़ तक नहीं उठायी I यानी मतभेद मात्र इतना था कि नरमपंथी संशोधनवादी सीधे नेहरू सरकार की गोद में बैठ जाना चाहते थे, जबकि "गरमपंथी" संशोधनवादी बुर्जुआ संसद में एक ज़िम्मेदार विपक्ष और 'प्रेशर-ब्लॉक' की भूमिका निभाना चाहते थे I
(ख) 1964 में भाकपा से अलग होकर जब माकपा बनी तो उसने भाकपा को संशोधनवादी कहा, पर खुद उसने पार्टी-सदस्यता और ढाँचे के बोल्शेविक उसूलों में आयी ढिलाई को दुरुस्त करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया I पूरी पार्टी का ढाँचा यथावत खुला रहा I 1958 की अमृतसर कांग्रेस में पार्टी-संविधान की प्रस्तावना व अन्य हिस्सों में ख्रुश्चेवी लाइन के हिसाब से जो बदलाव किये गए थे, उन्हें ठीक नहीं किया गया I यही नहीं, 1963 से चीन की पार्टी ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध जो वैचारिक संघर्ष चला रही थी, उसमें माकपा ने पोजीशन लेने की जगह बीच-बीच का रास्ता चुना I आगे चलकर वह सोवियत पार्टी के प्रति ज्यादा से ज्यादा नरम हो गयी और चीनी पार्टी की पोजीशन के प्रति ज्यादा से ज्यादा आलोचनात्मक होती चली गयी I और फिर 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में जब पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई तो माकपा ने देंग सियाओ-पिंग के सुर में सुर मिलाते हुए माओ पर हमले करना शुरू कर दिया और देंग और उसके चेलों के "बाज़ार-समाजवाद" की पुरजोर समर्थक हो गयी I क्रांतिकारी कतारों की आँखों में धूल झोंकने के लिए माकपा ने अपनी स्थापना के दिनों में कहा था कि वह "जन-संघर्षों की मदद के लिए संक्रमणकालिक सरकारें" चलायेगी I इसतरह वह कहना चाहती थी कि वह चुनावों और संसद-विधानसभाओं का 'टैक्टिकल' इस्तेमाल' कर रही है, पर पूरी पार्टी दरअसल एक पूर्णतः खुली 'जन-पार्टी' (न कि कैडर पार्टी) के रूप में सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनाव ही लड़ती रही और ट्रेड-यूनियन स्तर के कुछ आन्दोलन करती रही I "जन-संघर्षों की मदद" माकपा नेतृत्व वाली प. बंगाल की सरकारों ने आगे चलकर इस हद तक की कि नंदीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ करने तक पहुँच गयीं I ज्योति बसु ने बर्गा-पंजीकरण के रूप में भूमि-सुधार का जो काम किया वह तात्कालिक तौर पर प्रगतिशील होते हुए भी रैडिकल भूमि-सुधार न होकर कुछ वैसा ही था जिसे लेनिन ने 'प्रशियाई मार्ग' की संज्ञा दी थी I आगे चलकर इन्हीं बुर्जुआ भूमि-सुधारों की बदौलत मालिक किसानों का जो वर्ग फला-फूला, उसने अपनी दलीय वफादारी बदल दी और अर्द्ध-फासीवादी तृणमूल का सामाजिक आधार बन गया I नव-उदारवाद का रैडिकल विरोध करने और उसके एकमात्र विकल्प के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत करने की जगह जब माकपा और उसके सहयोगियों ने "मानवीय चेहरे वाले नवउदारवाद" (अमर्त्य सेन ब्रांड) की बात की और मात्र कुछ नेहरूकालीन कीन्सवादी नुस्खों तक वापसी को ही अपना "समाजवाद" बना लिया तो संगठित मज़दूरों और मध्य वर्ग के बीच मौजूद इसका सामाजिक आधार भी कमजोर पड़ गया I असंगठित मज़दूरों में तो पहले भी इसकी पकड़ कमजोर थी जो बाद में समाप्तप्राय हो गयी I पार्टी-नेतृत्व में ऊपर उच्च-मध्यवर्गीय कुलीनता घर कर गयी और नीचे तथा मध्यवर्ती नेतृत्व के संस्तरों पर भ्रष्ट, गुंडे टाइप नौकरशाहों की भरमार हो गयी I इससे गरीबों में मौजूद पार्टी का वोट बैंक भी तेज़ी से सिकुड़ता चला गया I
(ग) बहुत सारे ईमानदार पार्टी-कैडर भी पार्टी की राजनीतिक संस्कृति में आये पतन को ही रोग की जड़ समझते हैं, जबकि यह मूल रोग का एक लक्षण और अभिव्यक्ति मात्र है I कोई भी पार्टी जब संशोधनवाद के रस्ते पर चलती है तो उसके चरित्र और व्यवहार में उसका पतन तुरत परिलक्षित नहीं होता I इसमें समय लगता है I मार्क्सवादी विज्ञान का जानकार पार्टी के पतन की शुरुआत वहीं से मान लेता है जब पार्टी विचारधारात्मक स्तर पर विपथ-गमन कर जाती है, यानी, वह वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को छोड़कर (भले ही जुबानी इनकी दुहाई देती रहे ) शांतिपूर्ण संक्रमण और चुनावों से सरकार बनाकर "समाजवाद लाने" के रस्ते पर चल पड़ती है और खुद को एक ढीली-पोली, संसदीय, पूरीतरह से खुली, मास-पार्टी में तबदील कर लेती है I समझना इस बात को होगा कि राजनीतिक चरित्र की पतनशीलता एकदम नग्न होने के दशकों पहले से ही भाकपा, माकपा, फॉरवर्ड ब्लाक, आर.एस.पी., एस.यू.सी.आई. आदि पार्टियाँ विचारधारात्मक रूप से संशोधनवादी हो चुकी थीं और कुछ तो अपने जन्मकाल से ही ऐसी ही थीं I 1981 के बाद इनकी कतार में भाकपा (मा-ले) लिबरेशन भी आकर शामिल हो गया जो आज सबसे गंदे और शातिराना किस्म के दक्षिणपंथी अवसरवाद का प्रदर्शन कर रहा है I
(घ) 1964 में माकपा के गठन के तुरंत बाद, 1965-66 से ही माकपा के भीतर के कुछ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी तत्वों ने एक नया कम्युनिस्ट क्रांतिकारी केंद्र बनाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं I 1967 के नक्सलबाड़ी किसान जन-उभार से इस प्रक्रिया को नया संवेग मिला I 1968 में 'कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय तालमेल कमेटी' का गठन एक महत्वपूर्ण कदम था I पर 1970 में भाकपा (मा-ले) के अस्तित्व में आने के पहले ही चारू मजुमदार ने इस महत्वपूर्ण पहल को "वामपंथी" दुस्साहसवाद और कठमुल्लावाद के गड्ढे में धकेल दिया और गठन से पहले ही फूट-दर-फूट की प्रक्रिया शुरू हो गयी जो आजतक जारी है I इसी मा-ले धारा से निकली हुई भाकपा (माओवादी) आज "वामपंथी"दुस्साहसवाद और सैन्यवाद की लाइन को लागू कर रही है और क्रांतिकारी धारा के अग्रवर्ती विकास को गंभीर क्षति पहुँचा रही है I नक्सलबाड़ी किसान-उभार से निकले कई कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठन आज अपने कठमुल्लावाद के चलते विसर्जित हो चुके हैं, कुछ मज़दूरों की राजनीति की जगह किसानों की वर्गीय पोजीशन पर खड़े होकर राजनीति करते हुए नरोदवादी टाइप बन गए हैं I कुछ 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' और अम्बेडकरवाद के साथ मधुयामिनी मना रहे हैं और कुछ "मुक्त चिन्तक" बन चुके हैं I पर इसी धारा से छिटके कुछ संगठन विचारधारा के प्रश्न और समाजवाद की समस्याओं को संजीदगी से समझने की कोशिश कर रहे हैं, भूमंडलीकरण के दौर के साम्राज्यवाद और भारत में पूँजीवाद के विकास का सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन कर रहे हैं और आज के दौर की सर्वहारा क्रान्ति की लाइन को विकसित कर रहे हैं, शहरों और गाँवों के मज़दूर वर्ग के बीच ज़मीनी काम कर रहे हैं, तथा, बोल्शेविक ढंग से संगठन खड़ा करने की चुनौतियों से जूझ रहे हैं I पर सिर्फ़ ऐसे ही संगठनों की एकता से एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी का गठन नहीं हो जाएगा I अपनी बनती हुई समझ के आधार पर इन शक्तियों को 'व्यवहार-सिद्धांत-व्यवहार' का एक सघन और सुदीर्घ सिलसिला चलाना होगा, तथा, समाज से बड़े पैमाने पर नयी क्रांतिकारी भरती करनी होगी I तब जाकर एक नयी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आ सकती है I

विज्ञान और विगत इतिहास का समाहार हमें यही बताता है ! पर इतिहास की इस शिक्षा को और मार्क्सवादी विज्ञान की इस समझ को अमल में उतारने के लिए, निश्चय ही दृढ़ इच्छा-शक्ति की ज़रूरत होगी, फैसलाकुन होने की ज़रूरत होगी !

(17मई, 2019)

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