Sunday, April 14, 2019

जन्म शती वर्ष में मुक्तिबोध : कुछ बिखरे हुए नोट्स


पिछले पचास वर्षों के भीतर मुक्तिबोध के कृतित्व ने आलोचकों को जितना छकाया है और सुधी पाठकों को जितना तनावग्रस्त किया है, उतना किसी भी रचनाकार की रचनाओं ने नहीं किया है।
एक संक्रमणकालीन समाज के चंचल और पारभासी यथार्थ को पकड़कर उसकी कलात्मक पुनर्रचना करने के लिए और उसकी समालोचना प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने द्वन्‍द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के उपकरण का मौलिक ढंग से इस्तेमाल किया, कलात्मक शिल्‍प-शैली और टेकनीक के स्तर पर अभिव्यक्ति के नये प्रयोगों का जोखिम उठाया तथा न केवल आलोचकों के महाभियोगों और उपेक्षा द्वारा प्रताडि़त किये गये, बल्कि आधुनिकतावादियों और कलावादियों द्वारा दुर्विनियोजित (मिसएप्रोप्रिएट) किये जाने की कोशिशों के शिकार भी हुए। इन सबके बावजूद मात्र सैंतालिस वर्षों का छोटा-सा जीवन, और बेहद अभाव और कठिनाइयों से भरा जीवन जीने वाला यह कवि अपने देश-काल-समाज को अपनी कविताओं (और कहानियों में भी) में एक महाकाव्यात्मक फलक पर प्रस्तुत कर पाने में काफ़ी हद तक सफल रहा। और इतिहास की यह प्रस्तुति ऐसी है कि इसमें वर्तमान ही नहीं, भविष्‍य का, यानी आज के भारत का इतिहास भी लिखा हुआ दीख जाता है। साथ ही, मुक्तिबोध ने उत्तर-औपनिवेशिक भारत में बौने-पंगु पूँजीवादी रुग्णताओं, बुद्धिजीवी समुदाय के एक हिस्से की घिनौनी सत्ताधर्मिता, जनविमुखता और दुरंगापन, सत्ता की बढ़ती निरंकुशता तथा जनपक्ष में खड़े होने की चाहत रखने वाले आम बौद्धिक मानस के तनावपूर्ण द्वन्‍द्वों का काव्यात्मक दस्तावेज़ तैयार करते हुए प्रकारान्‍तर से समूचे बुर्जुआ समाज की ही एक सभ्यता-समीक्षा प्रस्तुत करने की अनूठी कोशिश की। यह सब कुछ करते हुए उन्होंने अनुकरण की पिटी-पिटाई लीक की जगह प्रयोग और अनुसन्‍धान की राह चुनी क्योंकि उनकी दृढ़ मान्यता थी कि “बाहरी दृष्टि से सत्पथ पर ले जाने वाली निर्बुद्ध निष्‍ठा कुमार्ग पर ले जाने वाली स्वतन्त्र बुद्धि से अधिक हानिकारक होती है।”
मुक्तिबोध की उत्तरवर्ती दौर की लम्बी कविताओं में जीवन के तमाम द्वन्‍द्वों और आत्मिक धरातल पर होने वाले उनके संघातों को उपस्थित कर देने की बेचैनी उनकी अभिव्यक्ति को सघन-सान्द्र और बहुस्वरीय (पॉलिफोनिक) बनाती है और उन्हें रूपकों की जटिल संरचना और फ़ैण्टेसी के विधान की ओर उन्मुख करती है। वस्तुगत यथार्थ जबतक विचार और विचार अभिव्यक्ति का रूप लेता है, तबतक अपनी अन्तर्निहित गतिमानता के चलते यथार्थ विचार से, और विचार अभिव्यक्ति से आगे निकल जाता है। इस समस्या से जूझते हुए मुक्तिबोध यथार्थ के स्थिर चित्र आँकने की जगह उसे उसकी गति की दिशा के साथ पकड़ने की कोशिश करते हैं। इसीलिए वे स्वप्नदृष्यों का सहारा लेते हैं और भविष्‍य का पूर्वानुमान प्रस्तुत कर पाने में भी सफल होते हैं तथा वर्तमान के साथ ही ‘भविष्‍य के कवि’ भी बन जाते हैं। आश्‍चर्य नहीं कि मुक्तिबोध की कविताओं में हमें उनके देशकाल जितना ही हमारे अपने देश-काल का भी विद्रूप चेहरा दीख जाता है और ऐसा लगता है मानो वे हमारे इस अँधेरे समय के भी उतने ही सफल-सक्षम साक्षी हैं जितना अपने समय के अँधेरे के। यथार्थ को उसके गतिमान रूप में उसकी गतिकी की वैज्ञानिक समझ के साथ पकड़ने की जद्दोजहद ही मुक्तिबोध की अधिकांश कविताओं के स्थापत्य को ऐसा बनाती हैं मानो किसी वास्तुकार ने किसी शानदार संरचना को बनाते-बनाते अन्तिम चरण में कहीं अधूरा छोड़ दिया हो। उनकी लम्बी कविताएँ प्रायः अधूरी या ‘जारी अवस्था में’ लगती हैं और एक-दूसरे से निरन्तरता में सम्बद्ध प्रतीत होती हैं। मुक्तिबोध स्वयं लिखते हैं: “यथार्थ के तत्व परस्पर गुंफित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है, वह भी ऐसा ही गतिशील है, और उसके तत्व भी परस्पर गुंफित हैं। यही कारण है कि मैं छोटी कविता नहीं लिख पाता, और छोटी होती हैं वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं। (मैं अपनी बात कह रहा हूँ।) और इस प्रकार की कितनी ही कविताएँ मैंने अधूरी लिखकर छोड़ दी हैं। उन्हें ख़त्म करने की कला मुझे नहीं आती, यही मेरी ट्रेजेडी है।”  मुक्तिबोध की कविता ‘आवेग-त्वरित कालयात्री’ है जो एक कविता से दूसरी कविता के सीमान्तों में प्रवेश करती हुई अविराम आगे चलती चली जाती है। वे स्वयं लिखते हैं:
“नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित कालयात्री है।
व मैं उसका नहीं कर्ता,
पिता-धाता
कि वह कभी दुहिता नहीं होती
परम स्वाधीन है वह विश्‍व शास्त्री है।
गहन-गम्भीर छाया आगमिष्‍यत की
लिये, वह जन चरित्री है।
नये अनुभव व संवेदन
नये अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है।”

यह भी यहाँ गौरतलब है कि मुक्तिबोध के लेखे जो कभी न ख़त्म होने वाली आवेग-त्वरित कालयात्री कविता होती है, वह जन-चरित्री होती है, उसमें संघर्षरत आम जनों के कारण जगमगाहट और अलगावग्रस्त मध्यवर्गीय कवि मानस के कारण संकुचन पैदा होता है। इस बात को वे कई जगह कई तरीक़ों से कहते हैं और ‘जनसंगऊष्‍मा’ से आप्लावित होने की बेचैनी और आतुरता ज़ाहिर करते हैं:

“अरे! जन-संग-ऊष्‍मा के
बिना, व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते।
प्रयासी प्रेरणा के स्रोत,
सक्रिय वेदना की ज्योति,
सब साहाय्य उनसे लो।
तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।
कि तदगत लक्ष्य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे,
व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त
करने की क्रिया में से
उभर ऊपर
विकसते जायेंगे निज के
तुम्हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्ते
अकेले में नहीं मिलते।”

* * *

“जिनके स्वभाव के गंगाजल ने
युगों-युगों को तारा है,
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
कल्याण-व्यथाओं में घुलकर
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
पार लगाई है,
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
हुलसे मन-
से किये निछावर जा सकते
सौ-सौ जीवन,
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर।
उनके बाँहों को अपने उर पर
धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
उनकी ताक़त
पायी मैंने अपने भीतर।”

* * *

“मुझपर क्षुब्ध बारूदी धुएँ की झार आती है
व उनपर प्यार आता है
कि जिनका तप्त मुँह
सँवला रहा है
धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्‍यत-युद्ध में रत है,
जगत की स्याह सड़कों पर।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्तरी की तुड. प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय
समस्या एक -
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमगकर
जन्म लेना चाहता फिर से
कि व्यक्तित्वान्तरित होकर
नये सिरे समझना और जीना
चाहता हूँ, सच!!”

मुक्तिबोध अपनी लम्बी कविताओं में, चन्द जगहों पर नहीं, बल्कि दर्जनों बार आम मेहनतकश जन समुदाय के जीवन और संघर्षों से जुड़कर अपना व्यक्तित्वान्तरण करने की मध्यवर्गीय बौद्धिक जनों की अपरिहार्य ज़रूरत को रेखांकित करते हैं, इसे सार्थक सृजन-कर्म की पूर्वशर्त बताते हैं और इस प्रक्रिया के दौरान हिचक, भय, स्वार्थ तथा न्याय-बोध, प्रगतिकामी चेतना, निर्णायकता के बीच के मानसिक दोलनों-उद्वेलनों-द्वन्‍द्वों को निश्‍छल, पारदर्शी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस रूप में उनकी कविताएँ (और अधिकांश कहानियाँ भी) बुर्जुआ समाज की सम्यक आलोचना के साथ-साथ अपने स्वार्थों और अलगावग्रस्त जीवन की संकुचित परिधि तथा सामान्य जन के साथ जुड़ने और सामाजिक दायित्व-निर्वाह की उदात्त आकांक्षा के बीच झूलते ईमानदार मध्यवर्गीय बौद्धिक तबक़े की अद्वितीय ईमानदारी भरी आत्मालोचना प्रस्तुत करती हैं। यह द्वन्‍द्व और आत्मालोचना व्यक्ति मुक्तिबोध की निजी नहीं (जैसाकि लेखनी का लट्ठ की तरह और दिमाग़ का मांसपेशियों की तरह इस्तेमाल करने वाले कुछ ख़लीफ़ा आलोचक समझते हैं) बल्कि एक सामाजिक वर्ग की आत्मालोचना है, जो दोलन करते हुए सामाजिक क्रान्ति के पक्ष में आता है और एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रकर ही श्रमिक जनों से ‘आर्गेनिक’ ढंग से जुड़ पाता है। चूँकि इस वर्ग का जो हिस्सा अपना वर्ग-रूपान्तरण (व्यक्तिवान्तरण) करके वर्ग-संघर्ष में मेहनतकश जनता के साथ खड़ा होता है, वही (लेनिन के अनुसार) मज़दूर आन्दोलन तक विचारधारा और संस्कृति लेकर जाता है, इसलिए इस वर्ग के ऐतिहासिक दायित्व और अनिवार्य भूमिका को समझते हुए इसके द्वन्‍द्वों, तनावों, व्यक्तित्वान्तरण और जनसंग-ऊष्‍मा से ऊर्जस्वित होने से जुड़े प्रश्‍नों को मुक्तिबोध अपने सृजन कर्म के बीज-प्रश्‍नों में सर्वोपरि महत्व के साथ यदि शामिल करते हैं, तो इसमें आश्‍चर्य की कोई बात नहीं है। निश्चित तौर पर बौद्धिक वर्ग के इस द्वन्‍द्व और आत्मालोचन में कुछ प्रतिशत तक मुक्तिबोध के निजी द्वन्‍द्व और आत्मालोचन के स्वर भी उपस्थित होंगे ही, पर इन्हें पूरी तरह मुक्तिबोध की आत्मगाथा मान लेना और उनके मनोविश्‍लेषण की हास्यास्पद, उद्धत, फ़्रायडीय, कुत्सित भौतिकवादी कोशिश करने लगना (कभी रामविलास शर्मा ने यह किया था और इन दिनों बेहद भद्दे-भौंड़े ढंग से यही काम विजेद्र, नीलकान्त और कुछ नौबढ़ साहित्यिक नौदौलतिये कर रहे हैं) ख़ुद के मानसिक दिवालियेपन के प्रदर्शन से अधिक कुछ न होगा।
कवि मंगलेश डबराल ने यह ठीक ही लिखा है : “मुक्तिबोध की तमाम कविताओं में जो सन्‍ताप और भयाक्रान्तता है, वह क्या उनकी कोई निजी समस्या है? यह अन्‍ततः उस समाज की आवाज़ है, जहाँ यह सब हो रहा है। तो शायद कवि का सन्‍ताप तभी समाप्त होगा जब व्यक्तिगत सम्पत्ति का अन्त हो, एक वर्गविहीन समाज का यूटोपिया चरितार्थ हो। शायद तब तक कवि लोग अपनी तकलीफ़ के ज़रिये इस यूटोपिया को बचाते रहेंगे।” आज भी कोई सच्चा कवि यदि नवउदारवाद और फ़ासिज्‍़म के आततायीपन के खि़लाफ़ लुटते-निचुड़ते-उजड़ते आम जनों के साथ खड़ा होगा तो वह अपने को उस सन्‍ताप और तनाव से मुक्त नहीं रख पायेगा (ना कविता में, ना जीवन में), जिनसे मुक्तिबोध को ताउम्र गुज़रना पड़ा था। सबसे घटिया कि़स्म के रूपवादी तो वे लोग हैं जो जीवनपर्यन्त सुरक्षित नौकरी, सुखी पारिवारिक जीवन जीते हुए, हर प्रकार के संघर्ष और आन्दोलन से अलग रहते हुए “लोक-लोक” की रट लगाते रहे और रच-रचकर लोक जीवन के स्थिर प्रकृतवादी चित्र रचते रहे। ऐसे लोग आज यदि मुक्तिबोध को कुलीनतावादी आग्रहों का शिकार और जन संघर्षों से सर्वथा अलग-थलग अपने आप में सिमटा हुआ, पारिवारिक जीवन से असन्‍तुष्‍ट, ऐसा कवि बताते हैं जिसकी कविताएँ उसके अपने निजी कुण्ठा-सन्‍त्रास-असन्‍तोष-अलगाव की अभिव्यक्ति हैं, तो हठात हँसी छूट पड़ती है। मेरा मतलब “लोकवादी महाकवि” विजेन्द्र से है। बहरहाल, ‘विजेन्द्र-नीलकान्त-देवयांश-परमार चौकड़ी’ द्वारा मुक्तिबोध की शवपरीक्षा की शवपरीक्षा हम लेख में आगे अलग से करेंगे। यहाँ देखें कि शमशेर बहादुर सिंह मुक्तिबोध के कठिन जीवन-संघर्ष के बारे में क्या कहते हैं:
 “मुक्तिबोध ने सबकुछ अपने ऊपर झेला था... अंग्रेज़ी शासन, युद्धकाल शान्ति - साम्प्रदायिक, प्रकाशकों की चरम व्यावसायिक वृत्ति। जहाँ भी गये वे हलचलों के रेले में कुछ न कुछ खोते ही गये, हासिल किया उन्‍होंने केवल गहरा काव्यमर्म। उनका सारा जीवन बाहर से असफल, रिक्त, किन्तु अन्दर से रचनाकार की प्रतिभा से ख़ूब समृद्ध। जीवन के बन-बीहड़ में जो पलाश के क्षेत्र सुलग उठे थे उनमें मानव-रक्त की पवित्र गन्‍ध थी, और एक निर्मलता, जैसी उनके समकालीनों में कहीं न मिलेगी।” (‘कि इतनी मार खायी तब कहीं वे स्पष्‍ट उद्घाटित हुए उत्तर’)
मुक्तिबोध एक जगह लिखते हैं : “व्यक्तिगत जीवन के भयानक चढ़ाव-उतार और पीड़ादायक संघर्षों से मन बुझ जाता है। बाहर के उलझाव भीतर के उलझाव बन जाते हैं। यद्यपि जीवन एक ओर अधिक अनुभवसम्पन्न हो जाता है, साथ ही बौद्धिक शक्ति भी बढ़ जाती है, किन्तु आत्मजगत ज्‍़यादा उलझ जाता है। इसका कारण यह है कि ये व्यक्तिगत जीवन-संघर्ष सोद्देश्‍य, सहेतुक, आत्मविकास के संघर्ष नहीं होते। प्रगतिमूलक, प्रगतिकारक संघर्ष और होते हैं, स्थितिरक्षा के संघर्ष में जीवन-शक्ति का अपव्यय होता है। निराला का संघर्ष स्थिति-रक्षा का संघर्ष है। प्रसाद को अपने जीवन-क्षेत्र में जो संघर्ष करना पड़ा वह भी इसी प्रकार का है। पूँजीवादी समाज में व्यक्ति को अपनी स्थिति-रक्षा का संघर्ष करना ही पड़ता है।” स्थिति-रक्षा के इस संघर्ष की अपरिहार्यता को समझते हुए मुक्तिबोध को, तनाव-सन्‍ताप चाहे जितना हो, ज़िन्दगी से कोई शिकायत हरगिज नहीं थी। वे जीवन-भर की लम्बी लड़ाई लड़ने को तैयार थे लेकिन समझौतों से ख़रीदी गयी सुख-सुविधा भरी, सृजन की दृष्टि से बाँझ, स्वप्नहीन ज़िन्दगी उन्हें पसन्‍द नहीं थी। फिर भी उन्हें “बबूल का असंगपन” ही पसन्‍द था। वे अपना पंख देकर दीमक ख़रीदने वाला पक्षी (‘पक्षी और दीमक’ कहानी) नहीं बनना चाहते थे। वे लिखते हैं : “ऐसी ज़िन्दगी जिसमें अछोर, भूरे, तपते मैदानों का सुनहलापन हो, जिसमें सुलगती कल्पना छूती हुई भावना को पूरा करती हो, जिसमें सीने का पसीना हो, और मेहनत के बाद की आनन्दपूर्ण थकान का सन्तोष हो। बड़ी और बहुत बड़ी ज़िन्दगी जीना (इम्मेन्स लिविंग) तभी हो सकता है, जब हम मानव की केन्द्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जियें। तभी ज़िन्दगी की बिजली सीने में समायेगी। चाहे प्रगतिवादी हों, चाहे प्रयोगवादी, जिसने भी उच्च मध्यवर्ग की सफ़ेदपोश भद्रता के महत्व की कुर्सियों पर आराम किया कि वह गया, मर गया, ऐसा मेरा ख़याल है। यह ख़याल कुछ लोगों के लिए ख़तरनाक है - चाहे वे कितने ही प्रगतिवादी या इसके विपरीत बँगले के निवासी तकलीकातू गाँधीवादी क्‍यों न हों। हमारे बहुत से साथी इसी ज़िन्दगी में स्वर्ग देखना चाहते हैं और अपने बाल-बच्चों को दिखाना चाहते हैं।”
कविता की भाषा में इसी बात को गर्वपूर्वक कहते हैं :

“नहीं चाहिए मुझे हवेली
नहीं चाहिए मुझे इमारत
नहीं चाहिए मुझको मेरी
अपनी सेवाओं की क़ीमत
नहीं चाहिए मुझे दुश्‍मनी
करने कहने की बातों की
नहीं चाहिए वह आईना
बिगाड़ दे जो सूरत मेरी
बड़े-बड़ों के इस समाज में
शिरा-शिरा कम्पित होती है
अहंकार है मुझको भी तो
मेरे भी गौरव की भेरी
यदि न बजे इन राजपथों पर
ते क्या होगा!! मैं ना मरूँगा
कन्धे पर पानी का काँवड़
का यह भार अपार सहूँगा।”

*
 “पूँजीवादी उल्लू के साहित्यिक पट्ठे...”
मुक्तिबोध शायद हिन्दी के अकेले कवि हैं जो व्यवस्था को प्रश्‍नांकित करने के साथ ही उस मध्यवर्ग की वर्ग-विच्युतियों को भी रेखांकित करते हैं जो हार्दिक इच्छा रखते हुए भी अपनी कमज़ोरियों-दुविधाओं-स्वार्थों के कारण आम जन के जीवन, संघर्ष और स्वप्नों से नहीं जुड़ पाता। वे स्वयं इसी वर्ग से जुड़े थे, अतः यहाँ उनका स्वर तदनुभूति और आत्मालोचन का होता है। संकेत यह भी होता है कि उम्मीदें अभी बनी हुई हैं। लेकिन मध्यवर्ग के जिस हिस्से ने सुविधाओं के टुकड़ों के लिए स्वयं को रक्तपायी वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध कर लिया है, जिन पक्षियों ने दीमक ख़रीदने के लिए अपने सारे पंख बेच दिये हैं, उनके प्रति मुक्तिबोध का रुख तीखी भर्त्‍सना का है, उनकी धज्जियाँ उड़ाने का है।
‘देख कीर्ति के नितम्ब इठलाते’ और ‘कहने दो उन्हें जो कहते हैं’ जैसी कविताओं में इस सत्ताधर्मी सुविधाजीवी मध्यवर्ग का वे जुगुप्सा भाव के साथ खिल्ली उड़ाते हैं। इन महामहिम बुद्धिजीवियों को ‘अँधेरे में’ कविता का काव्य-नायक रात के अँधेरे में नगर के कुख्यात हत्यारे डोमाजी उस्ताद के साथ एक जुलूस में चलते हुए देखता है। यही लोग हैं जो ‘भूल-ग़लती’ कविता में जिरहबख़्तर पहनकर दिल के तख़्त पर बैठी भूल-ग़लती के दरबार में लब्धप्रतिष्‍ठ दरबारी विद्वान के रूप में सिर झुकाये खड़े हैं। मुक्तिबोध की कई कविताओं में इन लोगों की झलक देखने को मिल जाती है। साहित्य के क्षेत्र में ऐसे जो जीव विचरण करते पाये जाते हैं, मुक्तिबोध उन्हें “पँजीवादी उल्लू के साहित्यिक पट्ठे” का नाम देते हैं और ‘ज़िन्दगी का रास्ता’ कविता में उनके कुकर्मों का ब्योरा इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :

“पूँजीवादी ह्रास के
सियाहपोश देह वाले गेरूए चेहरे के भैरव हास के
इस भयानक काल में
दिन का उजाला काले धुँए के आसमान
में से आया होता है,
मुर्दा अप्राकृतिक धुँधला प्रकाश ही तो
ज्ञान कहलाता है,
यश:लोलुप व्यक्ति की तेजोमयी सत्ता
आधुनिक आदमखोर रावण के घर पर
भिश्‍तीगीरी करती है,
पूँजीवादी उल्लू के साहित्यिक पट्ठे
राजनैतिक रात में -
ऊँचे किसी छप्पर का आसरा लिये हुए
(रात) चीख़ा करते हैं
(घुग्घू का स्वर सुन
नारी का मन पीले पत्ते सा काँपता,
रोगग्रस्त बालक की साँस टूट जाती है।
रोती है धाड़ मार
आँसू भरी छाती नयी बहू की।
दारिद्र के कालिख-रँग कपोलों की पीलिमा
कभी देगी उत्तर ज़रूर अवसरवादी को)
पूँजीवादी उल्लू के साहित्यिक पट्ठे
सुनसान रात में अहं-गर्भ वासना से चीख़ा करते प्रात तक
जीवन के खण्डहरों के सुनसान साये में
व्यभिचारी भावों के दृश्‍यों को उभारकर
आदर्श बघारते।
हाथ जोड़े रहते हैं बड़े-बड़े बुद्धिमान
बड़े-बड़े पैगम्बर
रावण के घर पहरा देते हैं
बड़े-बड़े नेतागण, बड़े-बड़े ईश्‍वर।
दुनिया का उदरम्भरि मध्यवर्ग थर्राकर,
(रोटी की तलाश में)
बेचता है आत्मा को
वेश्या के देह-सा व्यभिचार के लिए।
मिर्ची की धाँस की खाँसी-सी
पीडि़त उन्हें करती है
जन-जन की साहसी विचारधारा
कर्ममयी अग्निधारा दर्पोद्धत।”

मुक्तिबोध गत शताब्दी के छठे दशक के भारतीय समाज के मध्यवर्गीय बौद्धिक अभिजन समाज की सत्ताधर्मिता, जनविमुखता और अवसरवादी कमीनगी पर चोट कर रहे थे। तबका भारत पूँजीवादी रास्ते पर अभी कुछ ही डग आगे बढ़ा था। समाज का कुलीन मध्यवर्गीय संस्तर अभी संकुचित था। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में देखे गये सपनों से मोहभंग की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन सामाजिक जीवन में ऊष्‍मा-ऊर्जा और आदर्शों का बड़े पैमाने पर क्षरण-विघटन नहीं हुआ था। फिर भी उच्च मध्यवर्ग के ऐतिहासिक विश्‍वासघात की उभरती-फैलती प्रवृति को मुक्तिबोध ने देख-समझ लिया था। आज भारतीय पूँजीवाद अपनी पतनशीतला के रसातल तक जा पहुँचा है। नवउदारवादी नीतियों का घटाटोप और फ़ासीवादी उभार इस सड़ते बजबजाते माहौल की मुख्य परिघटनाएँ हैं। गत 67 वर्षों के दौरान ख़ुशहाल मध्यवर्ग के ऊपरी संस्तर का काफ़ी विस्तार हुआ है। यह बुर्जुआ सत्ता के प्रमुख अवलम्बों में से एक तो है ही, फ़ासीवाद का भी एक प्रमुख सामाजिक आधार है। सत्ता और पूँजी के प्रचार तन्त्र, संचार माध्यमों और थिंक टैंक संस्थानों में बेशर्मी के साथ मलाई चाटने वाला जो बौद्धिक समूह बैठा है, उसको तो छोड़ ही दें, अपने को प्रगतिशील और जनवादी कहने वाले बुद्धिजीवियों का बहुलांश भी सुख-सुविधा-सुरक्षा की स्वार्थी चारदीवारियों में क़ैद आम जनता के जीवन और संघर्षों से बहुत दूर हो चुका है। एक परजीवी समूह के रूप में वह बेहद कमज़ोर, स्वार्थी और भ्रष्‍ट हो चुका है। पद-पीठ-पुरस्कार के पीछे बहुतेरे प्रगतिशील बु़द्धिजीवी भी लालची कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते हुए लपकते हैं, यहाँ तक कि किसी फ़ासिस्ट के ख़ूनी हाथों से भी शॉल-ताम्रपत्र ग्रहण करने में नहीं हिचकिचाते, साहित्य-कला में हर तरह की हदबन्दी-चकबन्दी-गिरोहबन्दी होती है और ऐसे बौद्धिक अब रात के अँधेरे में नहीं, बल्कि दिन के उजाले में डोमाजी उस्ताद के साथ मंच पर बैठते हैं। “पूँजीवादी उल्लू के साहित्यिक पट्ठे” आज जितनी गन्द मचाये हुए हैं और अनाचार-दुराचार-भ्रष्‍टाचार-व्यभिचार का जो घटाटोप फैलाये हुए हैं, उसका सटीक पूर्वानुमान मुक्तिबोध ने साठ वर्षों पहले लगा लिया था। इस मायने में उनकी कविताएँ उनके समय से कहीं अधिक प्रासंगिक आज प्रतीत होती हैं।

*

“लोकवाद” के खाप चौधरियों का फ़रमान : ‘मुलजिम गजानन माधव मुक्तिबोध हाजि़र हों!’

पहली नज़र में तो लगा कि कोई अदालत बैठी है। मुद्दई, मुंसिफ और गवाहान की भूमिका तय हो गई है। आरोप तय हो गये हैं। अर्दली ने आवाज़ लगा दी है : ‘मुलजिम गजानन माधव मुक्तिबोध उर्फ़ मु.बो. हाजि़र हों!’ जब मुक़दमे की कार्रवाई शुरू हुई और आरोप सुनाया जाने लगा तो पता चल गया कि यह “लोकवादी” कविता के कुछ कुपित विवेकी बूढ़े और नौबढ़, महत्वाकुल युवा चौधरियों की खाप पंचायत है जिसमें कुछ नितान्त अगम्भीर धुँधुकारी तत्व भी शामिल हैं। फ़ैसला पहले से तय था जिसे फ़तवे या फ़रमान की तरह सुना दिया गया। और फ़ैसले में दरअसल नया कुछ भी नहीं था। पचास वर्षों पहले यान्त्रिक मार्क्‍सवाद के संन्यासी अखाड़े के एक नामी महामण्डलेश्‍वर ने मुक्तिबोध के खि़लाफ़ एक फ़ैसला दिया था, उसी में कुछ शब्द बदलकर और कुछ नुक्ते जोड़कर नये फ़ैसले का मजमून तैयार कर लिया गया था। पुराना फ़ैसला तो इसलिए कभी प्रभावी नहीं हो पाया क्योंकि साहित्य-क्षेत्र का व्यापक प्रगतिकामी जनमत मुक्तिबोध के पक्ष में था जो दिनानुदिन बढ़ता ही चला गया। दूसरे, कुछ दूसरे मठाधीश अपने कारणों से उस फ़ैसले के पक्ष में नहीं थे। अब एक बार फिर “लोकवादी” कविता के कुछ खाप चौधरी और चौंक-चमत्कार-विवादों के ज़रिये रोशनी में रहने के आकांक्षी कुछ हतबुद्धि लोग मुक्तिबोध के विरूद्ध नया फ़रमान लेकर उपस्थित हुए हैं।
सीधे-सीधे बात करें तो इन नये प्रपंच के सूत्रधार हैं, नीलकान्‍त, कवि विजेन्द्र, युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार और साहित्य की सनसनीखेज स्टण्ट पत्रिका ‘लहक’ के सम्पादक निर्भय देवयांश। कथा की शुरुआत मुक्तिबोध और त्रिलोचन की जन्मशती के उपलक्ष्य में इलाहाबाद में ‘जसम’ द्वारा आयोजित संगोष्‍टी में हुई जिसमें नीलकान्‍त ने मुक्तिबोध की कविताओं की दुरूहता, आत्मग्रस्तता और रहस्यवाद के आधार पर उन्हें ख़ारिज़ किया। इसके बाद उनके दो लेख क्रमश: ‘अनहद’ के मार्च 2017 अंक (‘मुक्तिबोध का भूत और भूतग्रस्त आलोचना’) तथा ‘लहक’ के अप्रैल-मई 2017 अंक में प्रकाशित हुए। नीलकान्त मुक्तिबोध की उन अपेक्षतया छोटी कविताओं की कोई चर्चा नहीं करते, जहाँ उनका राजनीतिक पक्ष एकदम सहज और मुखर होकर सामने है। वे फ़ैण्टेसी के शिल्‍प वाली उनकी लम्बी कविताओं की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए सिद्ध करते हैं कि उनका कोई भी प्रकट-अप्रकट सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ नहीं था और इनके पीछे मार्क्‍सवादी दृष्टि जैसी कोई चीज़ नहीं थी। इसके मूल में मुक्तिबोध का आत्मग्रस्त-अलगावग्रस्त मानस था और पारिवारिक पृष्‍ठभूमि से प्राप्त अचेतन में पैठे ऋग्वेदी कुलकर्णी ब्राह्मण, शिवलिंग पूजा, वैदिक ऋचाओं, तन्त्र-मन्त्र कुण्डलिनी, इड़ा-पिंगला आदि-आदि के धार्मिक रहस्यवादी संस्कार थे। यही कविता में बार-बार सतह पर तैरते थे और अन्तिम समय में कोमा की दशा में प्रलाप की शक्ल में प्रकट हो रहे थे। इसके लिए नीलकान्‍त पूरे अर्थ-सन्दर्भ से काटकर उनकी फ़ैण्टेसी के बिम्बों का उदाहरण देते हैं। परम अभिव्यक्ति की खोज को वे राम विलास शर्मा का समर्थन करते हुए परम ज्ञान की खोज बताते हैं और ‘नेति-नेति’ के अनन्त-अगम्य वेदान्ती दुश्‍चक्र में फँस जाना इसकी नियति बताते हैं। फ़ैण्टेसी के रचना-प्रक्रिया की द्वन्‍द्वात्मक भौतिकवाद और मार्क्‍सवादी ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टोमोलॉजी) के आधार पर मुक्तिबोध ने ‘तीसरा क्षण’ शीर्षक निबन्‍ध (’एक साहित्यिक की डायरी’) में जो व्याख्या की है, उसकी भीषण दुर्व्‍याख्या करते हुए नीलकान्‍त ने हेगेल, मार्क्‍स और पूरे दर्शन शास्‍त्र की जो ऐसी-तैसी की है, वह इतना प्रलाप और प्रमाद से परिपूर्ण है कि उस पर अलग से एक निबन्‍ध लिखा जा सकता है। अपने इस कुत्सित मनोविश्‍लेषणवादी पद्धति से नीलकान्‍त अन्‍त में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुक्तिबोध का दार्शनिक चिन्तन बर्गसां, मार्क्‍स, किर्केगार्द, सार्त्र, शॉपेनहावर आदि दार्शनिकों की खिचड़ी है (यह निष्‍कर्ष राम विलास शर्मा पहले ही निकाल चुके थे)। इसीलिए मुक्तिबोध की कविताओं में संवेदनहीन, इन्द्रियातीत, अगोचर, अन्‍धा-लंगड़ा ‘परम अभिव्यक्ति’ का दर्शन तो है, लेकिन 1857, बिरसा मुण्डा, लक्ष्मीबाई, फ़्रांसीसी क्रान्ति, समाजवादी क्रान्तियाँ, दलित स्त्रियों की चीत्कार आदि तिरोहित है। दुर्व्‍याख्याओं को छोड़ भी दें तो तथ्यतः यह या तो घटिया, बेईमानी भरा झूठ है, या फिर नीलकान्त ने मुक्तिबोध की सारी तो छोड़ दें, ज्‍़यादातर रचनाएँ भी नहीं पढ़ी हैं।
विजेन्द्र के नतीजे भी नीलकान्त के नतीजों के समान हैं, पर उनकी पद्धति थोड़ी भिन्न है, हालाँकि उतनी ही भोंड़ी और घटिया है। ‘अनहद’ के मार्च 2017 अंक में आलोचक जीवन सिंह को लिखे एक पत्र के बहाने वे मुक्तिबोध की कविता पर अपना विमर्श प्रस्तुत करते हैं (हालाँकि इसी अंक में प्रकाशित जीवन सिंह का साक्षात्कार बताता है कि वे विजेन्द्र के अभिमत से रत्तीभर भी सहमत नहीं हैं)। विजेन्द्र यह स्थापना देते हैं कि मुक्तिबोध का व्यक्तित्व एक आत्मग्रस्त व्यक्तित्व है, जिसके कारण वे किसानों-मज़दूरों से एकात्म नहीं हो पाते। इसी वजह से वे अपने आभिजात्य से भी मुक्त नहीं हो पाये। आत्मसंघर्ष के नाम पर वे अपने कुलीन, जड़ संस्कारों से संघर्ष का एक सुरक्षित, बिना जोखिम का, रास्ता चुनते हैं और विफल हो जाते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं से एकदम सन्दर्भों से काटकर विजेन्द्र कुछ पंक्तियाँ उठाते हैं और सिद्ध करते हैं कि यह एक अस्तित्ववादी के अभिशप्त, अवसादग्रस्त निस्सहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ जीवन की एक तस्वीर है। कठिन पारिवारिक स्थितियों में मित्र नेमिचन्द्र जैन को आर्थिक मदद के लिए लिखे गये एक पत्र के आधार पर विजेन्द्र सिद्ध करते हैं कि नेमि जैसे “काँइयाँ, मँझोले और अवसरवादी” लेखक से मदद माँगने वाले मुक्तिबोध दैन्य भाव के शिकार थे। अन्‍त में रामविलास शर्मा से सहमति ज़ाहिर करते हुए विजेन्द्र यह नतीजा देते हैं कि मुक्तिबोध अस्तित्ववाद से कभी पीछा नहीं छुड़ा पाये और अस्तित्ववाद-मार्क्‍सवाद को गड्ड-मड्ड करते रहे। अतः हिन्दी कविता के मानक कवि नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, कुमारेन्द्र तो हैं (अन्यत्र वे इस कड़ी में अपना नाम भी गिनाते हैं और इतिहास में दर्ज होने की आतुरता छिपा नहीं पाते), लेकिन मुक्तिबोध क़तई नहीं। इसी विमर्श को विजेन्द्र ने जब सोशल मीडिया पर विस्तार दिया तो कविता में “लोक” की प्रतिष्‍ठा की अपनी पुरातन प्रतिज्ञा पर बल देते हुए फिर इस पर बल दिया कि मुक्तिबोध की कविताओं में कहीं भी किसान नहीं है, वे कुलीनतावादी हैं। साथ ही यह भी जोड़ दिया कि जनपक्षधर कविता सहज-सरल, जनता की भाषा में होनी चाहिए और दुरूह क़तई नहीं तथा यह कि फ़ैण्टेसी इस धारा की कविता के लिए क़तई अनुपयुक्त शैली है। फ़ेसबुक पर अजीत प्रियदर्शी की एक पोस्ट पर कमेण्ट करते हुए विजेन्द्र ने अपना मन्तव्य एकदम स्पष्‍ट कर दिया। उन्होंने लिखा : “यह एक अच्छी बात होगी हिन्दी के पाठक और कविता के लिए अगर मु.बो. जैसा (मुक्तिबोध को मु.बो. लिखकर वे उनके प्रति अपनी अवमानना प्रकट करते हैं – क.कृ.) दुरूह, आत्मग्रस्त और तिलस्मी कवि पैदा न हों। हमें निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार की परम्परा का ही समुचित और समृद्ध विकास चाहिए। मु.बो. का नहीं। वह भारतीय काव्य-परम्परा को विकसित न कर उसे विकृत करते हैं।” मुक्तिबोध की “विफलताओं” और “प्रतिगामी” प्रवृत्तियों के पीछे विजेन्द्र जो कारण बताते हैं और जिस पद्धति से उस कारण को ढूँढ़कर लाते हैं, उसे जानकर तो कोई भी संजीदा आदमी दंग रह जायेगा कि क्या बुढ़ापे में इस आदमी ने अपना सारा विवेक और सारी संवेदना खो दी है? मुक्तिबोध ने अन्तरंग दायरे के मित्रों को लिखे अपने कई पत्रों में कठिन आर्थिक स्थितियों में परिवार चलाने की कठिनाइयों को झेलते हुए विवाहित जीवन के प्रति अपनी झुँझलाहट दर्शायी है, यह भी लिखा है कि लेखकों के लिए शादी जी का जंजाल है, पत्नी शान्ता के प्रति भी अपनी खीज दर्शायी है। एक पारदर्शी इंसान के तात्कालिक सहज मानवीय बर्ताव से विजेन्द्र नतीजा निकालते हैं कि मुक्तिबोध की सारी समस्याओं की जड़ यह थी कि उन्होंने निजी जीवन में कभी भी “शतदलीय उल्लास” का अनुभव नहीं किया। इसी रौ में आगे वे जो लिखते हैं, उसमें अपने पुरातनपन्‍थी मानस को भी नंगा कर देते हैं। वे लिखते हैं : “हमारे वहाँ विवाह को भी एक अनिवार्य तथा पवित्र संस्कार माना गया है। उसके बिना जीवन न सिर्फ़ अधूरा है बल्कि अर्थहीन भी है। सृष्टि की निरन्तरता के लिए स्त्री-पुरुष का संयोग नितान्त आवश्‍यक है। सांख्य दर्शन में प्रकृति-पुरुष एक संकेत है सृष्टि के लिए।” कोई भी देख सकता है कि विवाह और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के बारे में विजेन्द्र के “पवित्र” विचार मार्क्‍सवाद की अवधारणाओं से कितना “मेल खाते हैं!!” बहरहाल, यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी यह कि किसी रचनाकार के कृतित्व के गुण-दोष का मूलाधार उसके निजी जीवन में ढूँढ़ना और समूचे सामाजिक-राजनीतिक परिवेश के बजाय मात्र उसके प्रत्यक्ष निजी और पारिवारिक परिवेश को उसके मानस की निर्मिति के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की पद्धति भोंड़ी भौतिकवादी पद्धति है जो इतनी भोंड़ी है कि हास्यास्पद है।
मुक्तिबोध-विरोधी मुहिम के तीसरे सिपहसालार युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार भी कविता में “लोक” की प्रतिस्थापना की मुहिम के एक स्वयंभू सिद्धान्तकार हैं और “लोक” कविता के इस साँचे में जा़हिर तौर पर मुक्तिबोध की कविता कहीं फिट नहीं बैठती। इसलिए परमार भी मुक्तिबोध के विरोध में खड़े हो गये। मुक्तिबोध की कविता पर उनके आरोप वही हैं जो विजेन्द्र के और उन्हें सिद्ध करने के लिए सोशल मीडिया पर मुक्तिबोध की सघन बुनावट वाली कविता से कुछ सन्दर्भच्युत पंक्तियाँ उठाकर वे उनका अपना कुपाठ प्रस्तुत करते हैं। परमार के अनुसार, अकादमिक आलोचकों की साज़िश से गत आधी सदी के दौरान केवल मुक्तिबोध पर ही चर्चा का घटाटोप रहा और अन्य कवि अचर्चित छूट गये। ठीक है भईया, तब आप उस साज़िश का भण्डाफोड़ करो, पर आप तो लाठी लेकर मुक्तिबोध पर ही पिल पड़े! परमार का अन्तरविरोध यह है कि ‘अनहद’ के ऊपर चर्चित अंक में उन्होंने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ का एक सकारात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। परमार की आलोचनात्मक अवस्थितियाँ पहले भी मरुभूमि की रेत की तरह खिसकती रही हैं। विजेन्द्र की “लोकवादी” कविता को कुछ दिनों पहले उन्होंने अभिजनवादी रूपवादी नक़ली लोक कविता क़रार दिया, फिर वे उनकी निगाहों में प्रशंसा के क़ाबिल बन गये।
मुक्तिबोध के विरुद्ध सबसे विचित्र, अगम्भीर प्रलापपूर्ण आक्षेप ‘लहक’ सम्पादक निर्भय देवयांश ने लगाये हैं। फ़ैण्टेसी के शिल्‍प वाली मुक्तिबोध की संश्लिष्‍ट बुनावट वाली कई कविताओं से उन्होंने एकदम सन्दर्भहीन कुछ अंश निकाले हैं, उनकी मनमानी व्याख्या की है और यह सिद्ध किया है कि ये निजी जीवन में असुरक्षा और त्रासदियों-विडम्बनाओं के शिकार व्यक्ति के अपने जीवन और निजी संघर्ष की प्रमादपूर्ण अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध की कविताओं में विभाजन, राष्‍ट्रीय आन्दोलन, किसानों-मज़दूरों का जीवन और संघर्ष - सबकुछ अनुपस्थित है, वे केवल काग़ज़ी युद्ध करते हैं और आकाशीय शब्दों की दुनिया में विचरण करते हैं। इन सबका कारण ढूँढ़ते हुए देवयांश खुराना की ‘जीन थियरी’ से लेकर दर्जनों मनोवैज्ञानिकों के हवाले देते हैं और व्यक्तित्व के निर्माण में परिवेश का योगदान बताते हुए मुक्तिबोध के जनविमुख ‘एब्‍नॉर्मल’ मानस के निर्माण में मुक्तिबोध के पारिवारिक-वैवाहिक जीवन का योगदान बताते हैं।
मुक्तिबोध की इन सभी आलोचनाओं की आलोचना सुदीर्घ विस्तार की माँग करती है। इस काम को कभी अलग से करना होगा। सूत्रवत् यदि कहा जाये कि ये सभी आलोचनाएँ मूलतः आधी सदी पहले रामविलास शर्मा द्वारा प्रस्तुत आलोचना का ही भोंड़ा-प्रहसनात्मक विस्तार हैं। कभी रणदिवे काल में ‘भारत के ज्दानोव’ की भूमिका में स्वयं को महसूस करते हुए राम विलास शर्मा रांगेय राघव, अमृत राय और राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियों को ठिकाने लगा चुके थे। उनके आखि़री शिकार मुक्तिबोध थे। उसके बाद तो उन्होंने व्यक्तियों को छोड़कर मार्क्‍सवादी इतिहास-लेखन का शिकार करना शुरू कर दिया था और इतिहास का एक भारत-आकुल, अतीत-व्याकुल संस्करण प्रस्तुत करने में जुट गये थे। रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’ में मार्क्‍सवाद की जगह मुख्यतः फ़्रायड के मनोविश्‍लेषणवाद के उपकरण से मुक्तिबोध की कविताओं का विश्‍लेषण करने की कोशिश की। कविता की रचना-प्रक्रिया में कवि के अवचेतन की भूमिका पर बल देते हुए उन्होंने हर कविता में मुक्तिबोध के काव्यनायक को स्वयं मुक्तिबोध के रूप में देखा आर उसके आत्मसंघर्ष को सामाजिक वर्ग-संघर्ष के परावर्तन तथा व्यक्तित्वान्तरित होकर आम संघर्षरत जनों से जुड़ने के आकांक्षी एक मध्यवर्गीय मानस के जटिल द्वन्‍द्वों की अभिव्यक्ति की जगह मुक्तिबोध के निजी जीवन के द्वंद्वो, कुण्ठाओं और सन्तापों के रूप में देखा। फ़्रायड इस क़दर शर्मा जी पर हावी थे कि ‘अँधेरे में’ कविता में ‘प्रेमिका’ शब्द मात्र देखकर उन्होंने मुक्तिबोध को काम-वासना की ग्रंथि का शिकार बताया और फिर अन्तिम निष्‍कर्ष में तो सीज़ोफ़्रेनिया का मरीज तक घोषित कर दिया।
आज यह एक ज़ाहिर बात है कि नामवर सिंह ने ‘कविता के नये प्रतिमान’ पुस्तक साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए, माँग पर, जल्दी-जल्दी तैयार की थी और उस पर मार्क्‍सवाद से अधिक तत्कालीन पाश्‍चात्‍य आलोचना की पद्धति और प्रतिमानों का प्रभाव है। मुख्य पुस्तक में तो मुक्तिबोध की जगह केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा आदि की ही चर्चा अधिक है। फिर मुक्तिबोध को पुस्तक का द्वितीय संस्करण आने पर परिशिष्‍ट में स्थान मिला, ‘अँधेरे में : पुनश्‍च’ शीर्षक नये निबन्ध के रुप में। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि नामवर सिंह ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कतिपय कमियों-असंगतियों और कुछ रूपवादी-भाववादी रुझानों के बावजूद मुक्तिबोध के कृतित्व को सही सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखने की शुरुआत की। उन्होंने मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष की परिणति सामाजिक संघर्ष में मानी और यह निष्‍कर्ष दिया : “निस्सन्देह इस कविता का मूल उद्देश्‍य है अस्मिता की खोज, किन्तु कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह इस खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद नहीं बल्कि गली-सड़ी गतिविधि राजनीतिक परिस्थिति और अनेक मानव चरित्रों की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है। आज के व्यापक सामाजिक सम्बन्धां के सन्दर्भ में जीने वाले व्यक्ति के माध्यम से ही मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में अस्मिता की खोज को नाटकीय रूप दिया है।”
‘अँधेरे में’ कविता को सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भ देते हुए भी, ज़ाहिर है, कि नामवर इस कविता के मर्म को व्यापकता और सूक्ष्मता में नहीं पकड़ पाये। संक्षिप्त होते हुए भी मुक्तिबोध के बारे में शमशेर बहादुर सिंह का कथन सर्वाधिक सटीक है। उनके लेखे, यह कविता देश के आधुनिक जन-इतिहास का स्वतन्त्रतापूर्व और पश्‍चात का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज़ है। दूधनाथ सिंह के अनुसार, “ ‘अँधेरे में’ आजादी के बाद के भारतीय जीवन के कुहरे में एक ‘रक्तालोकस्नात पुरुष’ की खोज की कविता है।” गत क़रीब चार दशकों के दौरान कई मार्क्‍सवादी आलोचकों ने मुक्तिबोध के कृतित्व और रचना-प्रक्रिया पर अधिक सहानुभूति, सन्‍तुलन और गहराई के साथ विचार किया है। निस्सन्देह इनमें सर्वाधिक गम्भीर काम है नन्द किशोर नवल का। उनकी पुस्तक ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ मुक्तिबोध के कृतित्व की सामाजिक पृष्‍ठभूमि, उनकी दार्शनिक दृष्टि और रचना-प्रक्रिया की सांगोपांग पड़ताल करती है।
मुक्तिबोध की रचनाओं में मात्र उनके निजी-पारिवारिक जीवन का अक्स देखने वाले और उन्हें उनकी कथित ‘एब्‍नॉर्मल’ मानसिकता की उपज मानने वाले लाल बुझक्कड़ साहित्य-विश्‍लेषण की मार्क्‍सवादी पद्धति के क-ख-ग से भी परिचित नहीं हैं और कुत्सित भौतिकवादी दृष्टि के शिकार हैं। यह सही है कि व्यक्तित्व और मानस के निर्माण में पारिवारिक जीवन और निजी जीवन के इतिहास का योगदान होता है, लेकिन चेतना जिन भौतिक परिस्थितियों की उपज होती है उनमें निजी-पारिवारिक स्थितियों से बहुत अधिक सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का योग होता है। बहुतेरे महान लेखकों का निजी-पारिवारिक जीवन अशान्ति और कभी-कभी तो विचलनों से भरा हुआ था। इससे पैदा होने वाली भौतिक-आत्मिक सीमाओं का अपनी उन्नत चेतना के बूते अतिक्रमण करके उन्होंने अपना सर्जनात्मक काम किया। इसके विपरीत कूपमण्‍डूक सद्गृहस्थों और मीडियाकर लेखकों का निजी-पारिवारिक जीवन प्रायः तालाब के निश्‍चल पानी की तरह शान्त-सुखमय पाया जाता है। विजेन्द्र जैसे जो “सद्गृहस्थ” लेखक पारम्परिक विवाह और दाम्पत्य में “जीवन के शतदलीय उल्लास” का अनुभव करते हुए और विवाह को “पवित्र संस्कार” तथा “प्रकृति-पुरुष का मेल” मानकर आदर्श हिन्दू का जीवन बिताते हुए लोक जीवन और क्रान्ति-स्वप्नों के रुमानी चित्र उकेरते रहते हैं, वे समानता और स्वतन्त्र निर्णय पर आधारित स्त्री-पुरुष के प्यार की मार्क्‍सवादी अवधारणा को कितना समझते हैं, यह सोचने की बात है। यदि सब कुछ निजी जीवन से ही तय होता है तो कैसे यह मान लिया जाये कि जीवनपर्यन्त अभाव का जीवन जीने वाले मुक्तिबोध तो अपने कुलीनतावादी आग्रहों से मुक्त होकर जनता से कभी एकरूप नहीं हो सके, लेकिन विजेन्द्र ताउम्र प्राध्यापकी से लेकर प्राचार्य (जो निरंकुश प्रशासक होता है) की नौकरी करते हुए, हर प्रकार की राजनीतिक सरगर्मियों से हमेशा दूर रहते हुए, सुखी पारिवारिक जीवन के “शतदलीय उल्लास” के साथ सिर्फ़ साहित्य की एकान्त साधना करते रहे और लोक जीवन के साथ एकदम एकाकार हो गये! लोक की कविता के नाम पर विजेन्द्र जो कृत्रिम, कुलीनतावादी, रूपवाद परोसते रहे हैं, उसकी जड़ें उनके पारिवारिक जीवन में ही नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन में भी हैं।
अब हम आते हैं दुरुहता के आरोप पर, और इस आग्रह पर कि जनता का साहित्य केवल वही हो सकता है जो सरल-सुबोध-सम्प्रेषणीय है। इस प्रश्‍न का उत्तर मुक्तिबोध बहुत पहले अपने लेख ‘जनता का साहित्य किसे कहते हैं’ शीर्षक लेख में दे चुके हैं। वे लिखते हैं : “जनता के साहित्य का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगि़ज़ नहीं। अगर ऐसा होता तो कि़स्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलन्दी, बारीक़ी और ख़ूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्‍शा साहित्य में रहता है, सुनने या पढ़ने की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। यह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्‍कार। साहित्य का उद्देश्‍य सांस्कृतिक परिष्‍कार है, मानसिक परिष्‍कार है। किन्तु यह परिष्‍कार साहित्य के माध्यम द्वारा तभी सम्भव है जब स्वयं सुनने वाले या पढ़ने वाले की अवस्था शिक्षित (की) हो। यही कारण है कि मार्क्‍स का दास कैपिटल, लेनिन के ग्रन्‍थ, रोम्या रोलां के, टॉल्स्टॉय और गोर्की के उपन्यास एकदम अशिक्षित और असंस्कृतों के न समझ में आ सकते हैं, न वे उनके पढ़ने के लिए होते ही हैं। ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ ‘जनता के लिए साहित्य’ से है, और वह जनता ऐसी हो जो शिक्षा और संस्कृति द्वारा कुछ स्टैण्डर्ड प्राप्त कर चुकी हो।”
दरअसल साहित्य से सरलता और सम्प्रेषणीयता का जो निरपेक्ष आग्रह किया जाता है, यह पुराना लोकरंजकतावादी आग्रह है, जो ऐतिहासिक भौतिकवाद से अपरिचय के कारण पैदा होता है। मार्क्‍सवाद के अनुसार, जिस समाज में श्रम-विभाजन होता है, उसमें मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच की अलंघ्य खाई के कारण आम मेहनतकश जनता स्तरीय सांस्कृतिक-आत्मिक सम्पदा और उसके आस्वाद की क्षमता से वंचित हो जाती है। बेशक, जिस तरह राजनीति में ‘थ्योरेटिकल लिटरेचर’, ‘प्रोपेगैण्डा लिटरेचर’, ‘एजिटेशनल लिटरेचर’ की श्रेणियाँ होती हैं, उसी तरह साहित्य में भी सहज लोकप्रिय से लेकर अमूर्त और स्तरीय सांस्कृतिक-दार्शनिक अन्तर्वस्तु वाले साहित्य की श्रेणियाँ होती हैं। हम हर कोटि के लेखन से सहज-सम्प्रेषणीय होने के लिए आग्रह नहीं कर सकते। उच्चस्तरीय साहित्य समाज के उन उन्नत-चेतस, नेतृत्वकारी क्षमता वाले तत्वों के लिए होता है, जो जनता को नेतृत्व देने और समाज को दिशा देने की अपनी क्षमता के कारण संख्या में कम होकर भी महत्वपूर्ण होते हैं। वैसे सच तो यह है कि जिस आम जनता की दुहाई दी जाती है, वह विजेन्द्र को भी नहीं पढ़ती और जो उन्नत चेतस पाठक हैं वे उनसे कई गुना अधिक मुक्तिबोध को पढ़ते हैं। पूछने को तो विजेन्द्र से यह भी पूछा जाना चाहिए कि फ़ेसबुक पर रोज़ पचास साल पुरानी शैली में जो नितान्त अमूर्त पेण्टिंग्स वे डालते रहते हैं, उन्हें किन दर्शकों के लिए डालते हैं? सरल-सम्प्रेषणीय के आग्रह के हिसाब से तो उन्हें रवि वर्मा की शैली में ही पेण्टिंग्स बनाने चाहिए। यह भी पूछा जा सकता है कि फ़ैण्टेसी का इतना विरोध करने के बावजूद ‘मैग्मा’ जैसी अपनी कई कविताओं में उन्होंने फ़ैण्टेसी का प्रयोग क्यों किया है और उनकी ऐसी कविताओं को कितने लोग समझते हैं?
सरलता-दुरूहता की इस चर्चा का अन्त हम मुक्तिबोध की कविता के बारे में उन्हीं त्रिलोचन के एक कथन से करेंगे जिन्हें विजेन्द्र हिन्दी के मानक कवियों में एक मानते हैं। त्रिलोचन कहते हैं : “आज उनकी रचनाओं पर जो विवाद है, उन विवादों का समाधान रचनाओं में ही पाया जा सकता है। मुक्तिबोध को सहानुभूति रखने वाले भी क्लिष्‍ट कवि कहा करते हैं, यह भी एकांगी कथन है। कविताओं को कई-कई बार पढ़ने पर मतलब समझने में दिक्‍़क़त नहीं रह जाती है। कविताओं को रचना-प्रक्रिया के माध्यम से ही समझा जा सकता है। समाज के बाह्य संघर्ष कब किस मनःस्थिति में कवि के आन्तरिक संघर्ष में बदल जाते हैं, इसका पता कविताओं से ही चलता है।” ग़ौर कीजिए, लगे हाथों त्रिलोचन यह भी स्पष्‍ट करते चलते हैं कि कवि के जो आन्तरिक संघर्ष हैं वे उसकी निजी ज़िन्दगी से पैदा नहीं होते बल्कि समाज के बाह्य संघर्ष के ही रुपान्तरण होते हैं।
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“लोकवाद” के पुरोहित और फ़ैण्टेसी का घनचक्कर
साहित्य में जिस लोक की प्रतिष्‍ठापना का प्रण लेकर विजेन्द्र दशकों से चलते रहे और जिसकी अलख आज उमाशंकर सिंह परमार आदि-आदि की युवा पीढ़ी जगाये हुए है, यह क्या चीज़ है? लोक का प्रयोग यहाँ अंग्रेज़ी के ‘फ़ोक’ के अर्थों में होता है या ‘पीपुल’ के अर्थों में? यदि ‘फ़ोक’ के अर्थों में लिया जाये तो लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक संस्कृति का मतलब प्राक्-पूँजीवादी ग्रामीण समाज के किसानों और दस्तकारों के बीच प्रचलित साहित्य, संगीत, संस्कृति के रूपों से होता है जिसमें प्रगति के साथ प्रतिक्रिया के तत्व भी घुले मिले होते हैं। बुर्जुआ विकास के साथ, किसी की भी इच्छा से स्वतन्त्र, लोक संस्कृति गुज़रे ज़माने की चीज़ होती जाती है, या फिर नयी बुर्जुआ अन्तर्वस्तु को अपनाकर अपने विकृत रूप में बनी रहती है। सर्वहारा के विश्‍व दृष्टिकोण से लैस कला-साहित्य-संस्कृति लोक कला-साहित्य-संस्कृति से आलोचनात्मक विवेक द्वारा चुनकर कुछ घटकों को अपने में आत्मसात् कर सकती है। वैसे क्रान्तिकारी कला-साहित्य-संस्कृति बुर्जुआ समाज के मेहनतकश वर्गों से भी कला-संस्कृति के रूपों को ज्यों का त्यों नहीं ले सकती, क्योंकि हर समाज में जनता के बीच भी शासक वर्गों के विचार और संस्कृति का ही वर्चस्व होता है। सर्वहारा का हरावल संस्कृति के क्षेत्र में भी कला-साहित्य-संस्कृति के रूपों को गढ़ता है, ये स्वतःस्फूर्त रूप से जनता के बीच से पैदा नहीं होते। यानी प्रोग्रेसिव या रेवोल्यूशनरी लिटरेचर को आप ‘फ़ोक लिटरेचर’ नहीं कह और मान सकते।
अब हम मानकर चलें कि विजेन्द्र आदि “लोकवादी” लोक शब्द का इस्तेमाल ‘पीपुल’ के अर्थों में कर रहे हैं जैसा कई बार मार्क्‍सवादी साहित्य में होता भी रहा है। तब सवाल उठता है कि क्या अबतक के प्रगतिशील जनवादी साहित्य में लोक स्थापित नहीं था, या इस बात से किसी को परहेज़ था कि कुछ लोगों को साहित्य में लोक की स्थापना या लोक साहित्य या लोकवाद का परचम उठाना पड़ा। दूसरे, यह लोक (पीपुल) न तो वर्गोपरि है, न ही अपने आप में वर्ग है। यह क्रान्ति के पक्ष में खड़े सभी वर्गों का समुच्चय है। इस हिसाब से इस लोक में शहरी मज़दूर वर्ग और शहरी मध्य वर्ग भी आते हैं। लेकिन व्यवहारतः हम देखते हैं कि साहित्य के इन “लोकवादियों” के एजेण्डा से शहरी मध्यवर्ग तो एकदम ग़ायब है और शहरी मज़दूर वर्ग की चर्चा भी बस कहीं रस्मी तौर पर आ जाती है। गाँव और किसानों को भी ये “लोकवादी” वर्गोपरि इकाई के रूप में दिखाते हैं, खेतों में काम करने वाले किसानों की मेहनत और लूट की ख़ूब चर्चा होती है। खेतों में जो भूमिहीन ग्रामीण सर्वहारा काम करता है और बड़े मालिक किसानों के हाथ अपनी श्रमशक्ति बेचता है, वह इनके विमर्श से बहिष्‍कृत होता है। जो बड़ा और ख़ुशहाल मध्यम मालिक किसान है, वह मुख्यतः श्रमशक्ति का लुटेरा है और उसका संकट बुर्जुआ समाज के छोटे लुटेरे का संकट है। निम्न-मध्यम मालिक किसान का एक छोटा सा संस्तर है जो अपनी खेती अपनी मेहनत के बूते करता है। कालान्तर में पूँजी की मार से उजड़कर उसे सर्वहारा की क़तारों में शामिल होना ही है। मार्क्‍सवादी राजनीति अर्थशास्‍त्र का सामान्य अध्येता भी जानता है कि कृषि लागत घटाने और उत्पादों के लाभकारी मूल्य की माँग एक घोर मज़दूर विरोधी और प्रतिक्रियावादी माँग है। लेनिन ने यह भी स्पष्‍ट किया कि बुर्जुआ समाज में छोटे मालिक किसानों के मालिक बने रहने के भ्रम को बनाये रखना तथा भूमिहीनों में ज़मीन की भूख पैदा करना वस्तुगत तौर पर प्रतिक्रियावादी काम है।
साहित्य की “लोकवादी” जमात (राजनीति के “लोकवादी मार्क्‍सवादियों” की ही तरह) गाँवों की वर्गीय संरचना को सर्वहारा नज़रिये से समझे बिना समूची किसान आबादी को एक करके देखती है और “गाँव-गाँव”, “किसान-किसान” चिल्लाती रहती है। यह बुर्जुआ सभ्यता का विरोध किसानी चेतना से, और अतीत की ज़मीन पर खड़ा होकर करती है तथा बुर्जुआ संस्कृति के नाम पर आधुनिकता का ही विरोध करती है। संक्षेप में कहें तो मार्क्‍सवाद से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं है और ये वैचारिक तौर पर रूस के नरोदवादियों के सहोदर हैं (प्रसंगवश, नरोदवाद का अनुवाद भी लोकवाद या “पॉपुलिज़्म” ही किया जाता है)। विजेन्द्र से लेकर उमाशंकर सिंह परमार तक के साहित्यिक “लोकवाद” की यही राजनीतिक अन्तर्वस्तु है। इन “लोकवादियों” के लिए मुक्तिबोध की कुशाग्र वैज्ञानिक वर्ग-दृष्टि और उनके आधुनिक साहित्यिक कला-रूपों के मर्म को पकड़ पाना सम्भव ही नहीं है।
“लोकवादी” जिस प्रकार किसानी समाज के आन्तरिक वर्ग-विभेदों की जटिलता को भुलाकर उसे एक समरूप सामाजिक परत के रूप में देखते हैं, उसी प्रकार वे जनपक्षधर कविता का भी एक सजातीयतावादी, समरूप, एकलवर्णी संस्करण तैयार करते हैं और प्रगतिशीलता के व्यापक वर्णक्रम को एक रंग में समेट देते हैं। यह इनकी किसानी ‘मिथ्या चेतना’ है, क्योंकि इनमें से अधिकांश शहरी मध्यवर्ग के ही लोग हैं। कविता में यदि किसान मज़दूर का जीवन है, गाँव और प्रकृति के सहज-सुबोध वर्णन हैं, इतिहास के संघर्षों और क्रान्तियों की स्मृति है और सबकुछ नागार्जुन-त्रिलोचन-केदार अथवा विजेन्द्र-कुमारेन्द्र-मानबहादुर सिंह जैसी भाषा में है, तब तो ठीक, अन्यथा गड़बड़ है। यदि कविता में मध्यवर्गीय मानस के वैचारिक द्वन्‍द्व हैं, उनके माध्यम से सामाजिक द्वन्‍द्वों की परावर्तित छवियाँ हैं, जटिल रूपक हैं, अमूर्तन है, फंतासी है, दार्शनिक-समाजेतिहासिक विमर्श है तो कविता ख़ारिज़। इन्हीं कसौटियों पर विजेन्द्र और अन्य “लोकवादी” मुक्तिबोध को ख़ारिज़ कर देते हैं और शमशेर को भी। ये कसौटियाँ रामविलास शर्मा की कसौटियों के ही भोंड़े-भद्दे रूप हैं।
कविता के मार्क्‍सवादी अध्येताओं में यह मान्य धारणा रही है कि जीवन के मूर्त-अमूर्त द्वन्‍द्व कविता में या तो सीधे परावर्तित होते हैं या फिर भाव-छवियों, प्रभाव-छायाओं और आकांक्षाओं-स्वप्नों के रूप में आते हैं। सर्जक चेतना जीवन को जैसे देखती है, उसके अन्तरविरोधों को या तो सीधे कलात्मक आख्यान के रूप में उपस्थित कर देती है, या फिर उन वस्तुगत स्थितियों के मानसिक प्रभावों और प्रतिक्रिया के चित्रण के माध्यम से उनके बारे में बताती है। पहली श्रेणी की कविता वस्तुनिष्‍ठ (ऑबजेक्टिव) कविता और दूसरी श्रेणी की कविता विषयनिष्‍ठ (सब्जेक्टिव) कविता कहलाती है। प्रायः पहली के मुक़ाबले दूसरी श्रेणी की कविता में जटिल बिम्ब-विधान, रूपकों का अधिक अमूर्त-संश्लिष्‍ट स्थापत्य और फंतासी के प्रयोग देखने को मिलते हैं।
मुक्तिबोध की उत्तरवर्ती कविताओं की प्रकृति ज़्यादातर विषयनिष्‍ठ हैं जहाँ अमूर्तन और फंतासी की सघनता है, लेकिन यह भूला नहीं जाना चाहिए कि उन्होंने बड़ी संख्या में वस्तुनिष्‍ठ प्रकृति की कविताएँ भी लिखी हैं। लिखने को तो उन्होंने ‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ और ‘पोस्टर ही कविता है’ जैसी ‘एजिटेशन पोएट्री’ और ‘आँधी के झूले पर झूलो’ जैसे मज़दूर आन्दोलनों में गाया जाने वाला गीत भी लिखे हैं।
मुक्तिबोध की काव्य-यात्रा से भी हमें उनकी चिन्तन-प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया के विकास को समझने में काफ़ी मदद मिलती है। उनकी 1942-43 तक की कविताओं पर छायावादी प्रभाव स्पष्‍ट है। एक स्तर पर वे प्रसाद से प्रभावित थे, दूसरे स्तर पर माखन लाल चतुर्वेदी-नवीन-सुभद्रा कुमारी चौहान की धारा के निकट थे। छायावाद के रहस्यवाद, अतीत को शरण्य बनाने की प्रवृत्ति और सामरस्यवाद के प्रति प्रतिक्रियास्वरूप वे प्रयोगवाद और नयी कविता के बुर्जुआ आधुनिकतावादी प्रोजेक्ट की तार्किकता और वैयक्तिकता की स्थापना की तरफ़ आकृष्‍ट हुए। शुरुआती दौर में यह धारा एक संक्रमणशील परिघटना थी और पहले सप्तक के सात कवियों में से मुक्तिबोध सहित चार की स्पष्‍ट मार्क्‍सवादी रुझान थी। फिर यह धारा जब बुर्जुआ आधुनिकतावाद के रुप में स्थिरीकृत हो गयी तो मुक्तिबोध ने पाया कि इसकी तर्कणा खण्डित-विरूपित और बुर्जुआ परिसीमाओं में क़ैद है, यह बुर्जुआ समाज की आलोचना प्रस्तुत करने में विफल है तथा वैयक्तिकता का इसका आग्रह निपट समाज-विमुख व्यक्तिवाद तक जाता है। तब उन्होंने नयी कविता का अतिक्रमण करके प्रगतिवाद को वैचारिक रूप से श्रेष्‍ठतम मानते हुए अपने को उससे जोड़ा। लेकिन प्रगतिवाद के स्थापित सिद्धान्त केन्द्रों से उनका मतभेद लगातार बना रहा। उनका एक महत्वपूर्ण अन्तरविरोध यह था कि प्रगतिवादी शिविर प्रयोगवाद और नयी कविता को एकाश्‍मी प्रकृति का बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी मानता था तथा उसके भीतर के अन्तरविरोधों, सकारात्मक उपधाराओं और ऐतिहासिक भूमिका की अनदेखी करता था। यह समय था, जब दुनिया भर के प्रगतिशील खेमे में ‘ज्दानोव डॉक्ट्रिन’ (1946) में प्रस्तुत समाजवादी यथार्थवाद की यान्त्रिक भौतिकवादी, प्रत्यक्षवादी और प्रकृतवादी अवधारणा का बोलबाला था। इधर मुक्तिबोध लगातार यह महसूस कर रहे थे कि स्वातन्‍त्र्योत्तर भारत के पूँजीवादी संक्रमण से गुज़रते समाज के चंचल, पारभासी यथार्थ, सतह के नीचे के सारभूत यथार्थ और विकासमान प्रवृत्तियों के वस्तुपरक चित्रण में पारम्‍परिक प्रगतिवादी कविता की इकहरी बनावट वाला आख्यानात्मक वस्तुनिष्‍ठ शिल्‍प अक्षम है, इसमें ‘एपिकल’ सम्भावनाएँ नहीं हैं। इसी सोच की ज़मीन पर मुक्तिबोध ने फंतासी और संश्लिष्‍ट बनावट-बुनावट वाले रूपकों-बिम्बाें का प्रयोग करते हुए उन लम्बी कविताओं की रचना शुरू की, जिन्होंने उन्हें विवादों और हमलों के केन्द्र में ला दिया। ‘समीक्षा की समस्याएँ’ और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के लेखों द्वारा मुक्तिबोध ने तत्कालीन प्रगतिवादी समीक्षा की जड़ीभूत स्थापनाओं पर चोट करते हुए न केवल अपनी मान्यताओं से मार्क्‍सवादी आलोचना को समृद्ध किया, बल्कि अपनी रचना-प्रक्रिया को भी खोलकर समझाने की कोशिश की।
‘एक साहित्यिक की डायरी’ के ‘तीसरा क्षण’ शीर्षक आलेख में मुक्तिबोध ने कला के तीन क्षणों की बात करते हुए फ़ैण्टेसी के उद्गम, उसकी प्रकृति और क्रिया-व्यापार के बारे में जो लिखा, वह साहित्य सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में द्वन्‍द्वात्मक भौतिकवाद और मार्क्‍सवादी ज्ञान मीमांसा (एपिस्टोमोलॉजी) को लागू करने का एक दुर्लभ और अनूठा उदाहरण है। फ़ैण्टेसी पर साहित्य-सैद्धान्तिकी और दर्शन के क्षेत्र में एक लम्बे समय से चिन्तन होता रहा है और हाल के कुछ दशकों के दौरान मार्क्‍सवादियों ने भी इसमें काफ़ी योगदान किया है। इतिहास में यदि पीछे जायें तो गोयठे ने 1810 में मानवात्मा के चार परतों की बात की थी : अन्तर्दृष्टि, फ़ैण्टेसी, तार्किकता और बौद्धिकता। गोयठे ने आधुनिक विज्ञान और तर्कणा के वर्चस्व के विरुद्ध रोमैण्टिक विद्रोह के दौर में फ़ैण्टेसी के ज़रिये अन्तर्दृष्टि के ज्ञान को मनुष्‍य की तार्किक क्षमताओं के साथ जोड़ने की कोशिश की। काण्ट ने अनुभवसंगति और समझ बनाने के बीच कल्पना और फ़ैण्टेसी की मध्यस्थ भूमिका की बात करते हुए इन्हें वह शक्ति बताया जो अवधारणाओं और विचारों को संश्‍लेषित करती हैं। 19वीं शताब्दी में मनोवैज्ञानिकों ने इस विषय पर काफ़ी काम किया। 20वीं शताब्दी के छठे दशक में मुक्तिबोध जब मार्क्‍सवादी ज्ञान-सिद्धान्त और द्वन्‍द्ववाद का इस्तेमाल करते हुए कविता की रचना-प्रक्रिया पर बात कर रहे थे, तब तक कई मार्क्‍सवादी रचनाकार कविता और गल्प में फ़ैण्टेसी का इस्तेमाल तो कर चुके थे, लेकिन फ़ैण्टेसी के सैद्धान्तिक पक्ष पर कोई लेखन हुआ हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती। हाल के वर्षों में इसपर काफ़ी काम हुआ है। 2003 में मार्क्‍सवादी सैद्धान्तिकी की पत्रिका ‘हिस्टॉरिकल मैटीरियलिज़्म’ ने मार्क्‍सवाद और फ़ैण्टेसी विषय पर केन्द्रित शोध पत्रों का सिम्पोजियम प्रकाशित किया। इस विषय पर रिच कूपर का भी एक शोध है : ‘ए मैटीरियलिस्ट थियरी ऑफ फ़ैण्टेसी लिटरेचर।’ कई मार्क्‍सवादी विचारकों का कहना है कि ‘कमोडिटी-फ़ेटिशिज्‍़म’ के घटाटोप वाले समाज में यथार्थ का चरित्र इस क़दर ‘फ़ैण्टास्टिक’ हो जाता है और आभासी यथार्थ की सतह से सारभूत यथार्थ इतना दूर हो जाता है कि उसे पकड़ने के लिए साहित्यिक शिल्‍प और टेकनीक के तौर पर फ़ैण्टेसी के इस्तेमाल से विशेष मदद मिलती है। बहरहाल, इतना तय है कि फ़ैण्टेसी को लेकर मार्क्‍सवादी दृष्टि से मुक्तिबोध ने जो चिन्तन किया है, वह विश्‍व स्तर पर साहित्य-सैद्धान्तिकी की एक धरोधर है, लेकिन दुर्भाग्य, कि इस रूप में आज तक उसकी चर्चा नहीं हो सकी है।
यह संक्षिप्त उल्लेख यहाँ हमने इसलिए किया है कि विजेन्द्र की इस भ्रान्ति को दूर किया जा सके कि फ़ैण्टेसी मार्क्‍सवाद के लिए कोई बेगानी या विजातीय चीज़ है। विजेन्द्र यह सवाल पूछते हैं कि क्या कारण है कि दुनिया के किसी मार्क्‍सवादी कवि या किसी भी बड़े कवि ने फ़ैण्टेसी के शिल्‍प का इस्तेमाल नहीं किया? यहाँ पर वे आश्‍चर्यजनक रूप से भारी अज्ञान के शिकार हैं। चलिए, हम सैकड़ों में से फ़ैण्टेसी के शिल्‍प में लिखी गयी महान कवियों की कुछ कविताएँ गिनाये देते हैं। चौसर की ‘द वाइफ़ ऑफ़ बाथ टेल’, ‘द मैन ऑफ़ लॉज टेल’, और ‘द मिलर्स टेल’, क्रिस्टोफर मार्लो की ‘डा. फाउस्ट’, गोयठे की ‘फाउस्ट’, टेनीसन की ‘द लास्ट टुर्नामेण्ट’, ‘गैरेथ एण्ड लिनेट’ और ‘द प्रिंसेज’, कॉलरिज की कई कविताएँ, शेक्सपीयर की ‘वीनस एण्ड एडोमिस’, वाल्ट व्हिटमैन की ‘दि आर्टिलरी मैन्स विज़न’, एमिली डिकिन्सन की ‘आई रॉब्ड द वुड्स’ और ‘अपॉन हिज सैडल स्प्रंग ए बर्ड’, पुश्किन की ‘द एलिगी’, शेली की ‘माण्ट ब्लॉक’, आदि-आदि। दो मार्क्‍सवादी महाकवियों के उदाहरणों से भी परिचित हो लीजिए : मयाकोव्स्की की ‘ए क्लाउड इन ट्राउज़र्स’ और आन्द्रेई वोज्नेसेंस्की की ‘द एण्टीवल्र्ड्स’। और हाँ फ़ेदेरीको गार्सीया लोर्का की 'इग्‍ना‍िसिओ सान्‍चेस मेखीआस' तथा पाब्‍लो नेरूदा की 'माक्‍चू पिक्‍चू के शिखर' जैसी कालजयी कविताओं को भला कोई कैसे भूल सकता है! हिन्दी भाषी लोगों को तो गर्व होना चाहिए कि मुक्तिबोध ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने फ़ैण्टेसी के शिल्‍प और टेकनीक का न केवल अपनी कविताओं में ‘एपिकल’ इस्तेमाल किया और सर्वथा अनूठे ढंग से इस्तेमाल किया, बल्कि इसके सैद्धान्तिक पक्ष पर लेखन भी किया।
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अँधेरे का वीडियोग्राफ़र... हिन्दी कविता का विश्‍वविद्यालय
कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक छोटी कहानी है - ‘कला’। कहानी में अँधेरे में भागती एक रेलगाड़ी में खिड़की के पास कैमरा लेकर बैठा एक आदमी बीच-बीच में अँधेरे की तस्वीर अँधेरे में लेता जा रहा था।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्तिबोध नवस्वाधीन देश के राष्‍ट्रीय अँधेरे में वीडियो कैमरा लेकर सतत् भटकते हुए एक ऐसे वीडियोग्राफ़र थे जो लोगों के बहिर्जगत के साथ उनके अन्तर्जगत की भी फि़ल्म बनाता चल रहा था। उनका कैमरा अँधेरे की सारी ध्वनियों और मौन की रिकार्डिंग करता जा रहा था और लोगों के भीतर के टकरावों की आवाज़ों को भी पकड़ रहा था। बन रही फि़ल्म के वे केवल सर्जक ही नहीं थे बल्कि एक पात्र के रूप में भी उसमें शामिल थे।
व्यक्तित्वान्तरण और आत्मसंघर्ष - मुक्तिबोध के सृजन के ये दो बीज-शब्द हैं जो उनकी कई रचनाओें को जोड़ने वाले योजक-सूत्र की तरह मौजूद हैं। यह आत्मसंघर्ष उस समूचे प्रगतिचेता मध्यवर्गीय बौद्धिक मानस का आत्मसंघर्ष है जो भय और स्वार्थ-सुविधा की दीवारों को गिराकर सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संकट के अन्धकार में जारी वर्ग-संघर्ष में भाग लेकर जन-संग-ऊष्‍मा से आप्लावित होना चाहता है और अपने व्यक्तित्व का नया अर्थ देना चाहता है, उसे सृजनात्मक, सोद्देश्‍य और प्रकाशित बनाना चाहता है, अपने आत्म-निर्वासन और व्यक्तित्व के विघटन को समाप्त करना चाहता है। वह ब्रह्मराक्षस है जो अपना ज्ञान जनता को देकर, जन-मुक्ति में सहायक बनकर अपनी मुक्ति चाहता है। वह ब्रह्मराक्षस का ‘सजल-उर-शिष्य’ भी है, जो ब्रह्मराक्षस से ज्ञान लेकर उसे जनता में बाँटकर ब्रह्मराक्षस को भी मुक्त करना चाहता है और अपना जीवन भी सार्थक करना चाहता है।
कविता में मुक्ति का यह उद्यम किसी एकाकी गुहावासी की एकान्त यौगिक साधना के समान नहीं चलता। यह उथल-पुथल भरे राष्ट्रीय-वैश्विक परिवेश में - बुर्जुआ समाज के सर्वतोमुखी संकट, सत्ता के स्वेच्छाचारी आततायीपन और वर्ग संघर्ष के उथल-पुथल से भरे अँधेरे में होता है। व्यक्तित्वान्तरण के आत्मसंघर्ष की गाथा रचते हुए, इस तरह मुक्तिबोध बुर्जुआ समाज की पतनशीलता और संकट का तथा जनता के जीवन, स्वप्नों और संघर्षों का महाख्यान भी रचते चले जाते हैं। यह यात्रा उत्तरवर्ती दौर में उनकी एक से दूसरी, पूरी-अधूरी कविताओं तक जारी रहती है, सारी कविताएँ एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं, वे जारी रहती हैं और “आवेग-त्वरित-कालयात्री” बन जाती है। मुक्तिबोध की कविताओं में फ़ैण्टेसी की रहस्यात्मकता वायवीय, तिलस्मी या पारलौकिक नहीं है। वह आभासी यथार्थ के पीछे छिपे सारभूत यथार्थ की तथा वर्तमान यथार्थ की सतह के नीचे पकते भविष्य की पारभासी झलक देने वाली रहस्यात्मकता है। यह मुक्तिबोध को अपने काव्यात्मक आख्यानों को बहुस्वरीय (पॉलिफ़ोनिक) और बहुपरती बनाने में भी मदद करती है। मुक्तिबोध के ‘तीसरा क्षण’ लेख से ज्ञात होता है कि वे व्यापक अर्थों में फ़ैण्टेसी को कविता के समानार्थी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। रूपकों और प्रतीकों की गझिमता से भरी फ़ैण्टेसी चलती चली जाती है, स्वप्न के भीतर स्वप्न और उनके टूटने की प्रक्रिया चलती चली जाती है और कविता में बहुपरती यथार्थ परत-दर-परत खुलता चला जाता है। इस तरह यथार्थ के सतत् गतिमान चरित्र और निश्चितता और अनिश्चितता के द्वन्‍द्व का, तथा आवश्‍यकता और स्वतन्त्रता (फ़्रीडम एण्ड नेसेसिटी) के द्वन्‍द्व का भी निरन्‍तर बोध होता रहता है।
इस दृष्टि से ‘अँधेरे में’ एक अद्वितीय कविता है। काव्य-नायक की स्वप्न-दर-स्वप्न जारी व्यक्तित्वान्‍तरण के आत्मसंघर्ष की यात्रा और जीवन-तथ्यों से सत्य के निगमन की विचार-यात्रा की पृष्ठभूमि के तौर पर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की जन-स्मृतियों में संचित इतिहास-आसवित अनुभव-सम्पदा का आख्यान भी चलता रहता है। वहाँ तोल्स्तोयवादी यूटोपिया, तिलक के रैडिकल राष्ट्रवाद के भग्न स्वप्न और गाँधी के बुर्जुआ मानवतावाद के अप्रासंगिक सिद्ध होने से लेकर सशस्त्र वर्ग-संघर्ष से ही सामाजिक मुक्ति सम्भव होने की समझ तक की यात्रा हमें दीख जाती है, तेलंगाना किसान संघर्ष की कौंध भी दीखती है, स्वातन्‍त्र्योत्तर भारत में सतह के नीचे खौलते और यहाँ-वहाँ फूट पड़ते जन असन्‍तोष के साथ ही सत्ता का चाक-चौबन्द होता हुआ दमन तन्त्र भी दीख जाता है और अपना जमीर बेचकर सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध हो चुके बुद्धिजीवी और उच्च मध्यवर्ग के लोग भी रात के अँधेरे में हत्यारे के साथ जूलूस में चलते दिखायी दे जाते हैं। कविता का अन्‍त क्रान्ति में जन-संग भागीदारी और इसके दिशा और रास्ते की खोज की बेचैनी के साथ होता है। इस कविता की सबसे बड़ी सफलता यह है कि जितनी सफलता से यह 1950 के दशक के भारत की कथा कहती है, उतनी ही प्रभावी ढंग से यह आज के भारत में भी प्रासंगिक प्रतीत होती है। स्थापत्य ओर निर्मिति में यह एक लम्बी फ़ैण्टेसी है, एक लम्बी कविता है, पर अन्तर्वस्तु और प्रभाव के हिसाब से यह एक महाकाव्य है। महाकाव्यात्मक चरित्र और सघन द्वन्‍द्वात्मकता के साथ सभ्यता समीक्षा प्रस्तुत करने के मामले में इसकी तुलना गोयठे की ‘फाउस्ट’ से की जा सकती है। मेरे विचार से यह कोई अतिश्‍योक्ति नहीं है।
पूर्वाग्रही-दुराग्रही “लोकवादी” मण्डली का कहना है कि गत आधी सदी के दौरान कविता की आलोचना के परिदृश्‍य पर मुक्तिबोध ही छाये रहे। हमारा मानना है कि मुक्तिबोध-साहित्य की वैचारिक गहराई और व्यापकता को देखते हुए इससे भिन्न कुछ और हो भी नहीं सकता था। बल्कि मार्क्‍सवादी हिन्दी आलोचना की वैचारिक वंचना के कारण अभी मुक्तिबोध पर उतनी विश्‍लेषणपरक, विस्तृत, व्यापक और गहरी चर्चा नहीं हो पायी है, जितनी कि होनी चाहिए। मुक्तिबोध अभी आगे भी चर्चा के केन्द्र में बने रहेंगे।
अपनी इस संक्षिप्त टिप्पणी में कवयित्री कात्यायनी ने मुक्तिबोध की अर्थवत्ता और महत्ता का सटीक प्रतिपादन किया है :
“मुक्तिबोध की कविताओं में उपेक्षित कालपीडि़त सत्य है तो उसके घर में ज़िन्दगी की कोख से जन्मा नया इस्पात भी है, दिमाग़ी गुहान्धकार में क़ैद ओरांग-उटांग और ब्रह्मराक्षस की ट्रेजेडी के रुप में बुद्धिजीवी की अकर्मण्य, आत्मग्रस्त, अहंवादी तर्कणा की नियति है, तो अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने का निश्‍चय भी है और छापामार लोकयुद्ध के स्वप्नदृश्‍य भी हैं, सिर पर साँवले पंख फैलाये वृहदाकार पक्षी, अँधेरे में टूटी सीढ़ियाँ और खाकी ख़तरे हैं, बरगद, पीपल, खण्डहर, बावली और बियाबान हैं, तो दूसरी ओर मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा, दीप्ति वलयित विचार-रत्न, व्यक्तित्वान्‍तरित तरुणाई और आत्मसम्‍भवा परम अभिव्यक्ति भी है। मुक्तिबोध ने संक्रमणकालीन भारतीय समाज के कृष्ण और शुक्ल पक्षों को ज्ञानात्मक संवेदन के रुप में अनुभव किया है, फिर उसे आभ्यान्तरित करके संवेदनात्मक ज्ञान में बदला है और फिर कविता के रूप में उसकी पुनर्रचना की है। मुक्तिबोध की कविता समाज के उजले-गँदले प्रवाह में धँसकर ख़ुद से संवाद करती है और अपने युग की सभ्यता-समीक्षा करती है। जीवन के भयानक अन्‍धकार को चीरने वाली चिंगारी मुक्तिबोध के लिए मार्क्‍सवाद है और साथ ही उनके लिए कविता के रचनात्मक संयोजन का औजार भी है।
“भारतीय जीवन कठिन युगीन संक्रमण से आज फिर गुज़र रहा है जब पूँजीवादी व्यवस्था की हृदयहीनता, आततायीपन, अलगाव, उपभोक्तावाद, मध्यवर्गीय दुरंगापन और उजरती गुलामों की त्रासदी मुक्तिबोध के समय से कई गुना अधिक भयावह है लेकिन इसके पार मालव-निर्झर की कंचन-रेखा भी है। एक आग का दरिया पार कर भारतीय जीवन को और भारतीय कविता को अन्‍ततः वहाँ तक पहुँचना ही है। और तभी जाकर शायद मुक्तिबोध की महानता का और उस असम्भवप्राय काव्यात्मकता के उद्गम का सही मूल्यांकन हो सकेगा जिसके द्वारा उन्होंने अपनी कविता में विचारों के गुरुत्व और भावनाओं के आवेग का इतना उच्चस्तरीय द्वन्‍द्वात्मक संश्‍लेषण प्रस्तुत किया है। तबतक, और शायद उसके बाद भी मुक्तिबोध अपने-आप में हिन्दी कविता का विश्‍वविद्यालय बने रहेंगे और उनसे एकदम अलग शैली और शिल्‍प वाले कवियों की पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ उनसे अनुप्राणित होती रहेंगी।”

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('समयांतर' के सितम्‍बर2017 में इस लेख का सम्‍पादित हिस्‍सा प्रकाशित हुआ था। पूरा लेख अपने ब्‍लॉग पर दे रही हूूँ।) 

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