Sunday, April 14, 2019

संस्‍कृति के कुँए में फासिस्‍टी भाँग और नामवर का देवत्‍व


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

देवता चाहे कितने भी कुकर्म करें, उनका देवत्‍व खण्डित नहीं होता। अवतार चाहे जितने  छल-प्रपंच-अनाचार-व्‍यभिचार करें, धार्मिक जन उन्‍हें ईश्‍वर की लीला बताते हैं। ब्रह्मा और इन्‍द्र, राम और कृष्‍ण अपने तमाम व्‍यभिचार, अनाचार, अन्‍याय और छल के बावजूद धार्मिक हिन्‍दू मानस में पूजनीय बने रहते हैं। हिन्‍दी साहित्‍य की प्रगतिशील धारा का बड़ा हिस्‍सा इसी हिन्‍दू परिपाटी का निष्‍ठापूर्वक पालन करता है। प्रगतिशीलों जनवादियों के बीच भी कुछ ऐसे देवपुरुष प्रतिष्‍ठापित हैं, जिनके तमाम धतकरम उनके भावविभोर भक्‍तों की नज़र में उनकी लीला होते हैं। नामवर सिंह नाना प्रकार की लीला करने वाले ऐसे अवतारी जनों में शीर्षस्‍थ हैं और ऐसे छोटे-मोटे देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्‍नर तो बहुत सारे हैं।
हिन्‍दी की मार्क्‍सवादी आलोचना के शलाका पुरुष माने जाने वाले नामवर सिंह आगामी 28 जुलाई को जब अपने जीवन के 91वें वर्ष में प्रवेश करेंगे तो इस अवसर पर उनका अभिनन्‍दन करेगा हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवादियों का वह सांस्‍कृतिक-बौद्धिक गिरोह, जो आज एक-एक करके देश के लगभग सभी शीर्ष सांस्‍कृतिक-बौद्धिक-शैक्षिक प्रतिष्‍ठानों पर मज़बूती के  साथ क़ाबिज़ हो चुका है। 'इन्दिरा गाँधी राष्‍ट्रीय कला केन्‍द्र' की नवनियुक्‍त कार्यकारिणी ने गत 11 जून को अपनी पहली बैठक में ''कला, संस्‍कृति, दर्शन और जीवनशैली के क्षेत्रों में बौद्धिक और सांस्‍कृतिक हस्‍तक्षेप मज़बूत करने के लिए'' कई नयी योजनाएँ लीं और विभिन्‍न नये कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया। इनमें से एक है 'संस्‍कृति संवाद श्रृंखला' की शुरुआत। यह श्रृंखला हर दो महीने के अन्‍तराल पर होगी। इसका पहला कार्यक्रम नामवर सिंह के 91वें जन्‍मदिवस (28 जुलाई) को आई.जी.एन.सी.ए. और महात्‍मा गाँधी अन्‍तरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय, वर्धा मिलकर आयोजित करेंगे जिसमें नामवर सिंह को सम्‍मानित किया जायेगा।
आई.जी.एन.सी.ए. देश की सांस्‍कृतिक-बौद्धिक-शैक्षिक संस्‍थाओं पर कब्‍ज़ा जमाने की संघ परिवार की धुँआधार मुहिम का ताज़ा शिकार रहा है। अप्रैल के पहले सप्‍ताह में मोदी सरकार के संस्‍कृति मंत्रालय ने यू पी ए सरकार द्वारा नियुक्‍त चिन्‍मय गरेखान के नेतृत्‍व वाले न्‍यासी मण्‍डल और कार्यकारिणी को भंग करके नये न्‍यासी मण्‍डल और कार्यकारिणी की नियुक्ति की। छात्र जीवन में विद्यार्थी परिषद की राजनीति करने के बाद पत्रकारिता करने वाले राम बहादुर राय न्‍यासीमण्‍डल और कार्यकारिणी के नये अध्‍यक्ष नियुक्‍त किये गये। न्‍यासी मण्‍डल में संस्‍कृति मंत्री महेश शर्मा और संस्‍कृति मंत्रालय के दो नौकरशाहों के अतिरिक्‍त वही संस्‍कृति कर्मी और बौद्धिक जन शामिल हैं, जो या तो  संघ परिवार के पुराने भरोसेमंद हैं या फिर अपने धुर दक्षिणपंथी विचारों के लिए जाने जाते रहे हैं। इनमें नाटककार दया प्रकाश सिन्‍हा, कुशाभाऊ ठाकरे विश्‍वविद्यालय, रायपुर के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, फिल्‍मकार चन्‍द्रप्रकाश द्विवेदी के नाम उल्‍लेखनीय हैं। राम बहादुर राय की खासियत यह है कि संघ परिवार के प्रति निष्‍ठा के साथ ही उनकी निकटता वी.पी.सिंह, चन्‍द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और नी‍तीश कुमार से भी रही है। प्रभाष जोशी 'जनसत्‍ता' में जब वाम, दक्षिण और गाँधीवाद के बीच सन्‍तुलन साधा करते थे तो दक्षिणपंथी समाजवादी बनवारी के साथ राम बहादुर राय भी दक्षिण पक्ष के एक नुमाइन्‍दा हुआ करते थे। जाहिर है, संघ परिवार ने काफी सोच-समझकर उन्‍हें आई.जी.एन.सी.ए. की ज़ि‍म्‍मेदारी सौंपी है।
अपने सम्‍मान के कार्यक्रम को लेकर नामवर सिंह ने अभी तक कोई बयान नहीं दिया है। उनके पिछले आचरण को देखते हुए उनके मौन को स्‍वीकृति का ही लक्षण माना जाना चाहिए। अतीत में वे बिहार के बाहुबली नेताओं पप्‍पू यादव और आनन्‍द मोहन की आत्‍मकथाओं का विमोचन करते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। संघ विचारक तरुण विजय की पुस्‍तक के विमोचन कार्यक्रम में भी शामिल होकर वे प्रशस्ति-वाचन कर चुके हैं ।  यूँ कहें कि वाम और दक्षिण के भेद से ऊपर उठकर नामवर सिंह बौद्धिक परमहंस की स्थिति में पहुँच चुके हैं। विडम्‍बना यह है कि अपनी इन तमाम कारगुजारियों के बावजूद नामवर सिंह हिन्‍दी आलोचना की प्रगतिशील-जनवादी धारा के शलाका पुरुष बने हुए हैं। उनके आप्‍तवचनों और आशीर्वचनों के लिए हिन्‍दी के ज्‍यादातर कवि-लेखक लालायित रहते हैं। जो लोग दबी ज़ुबान से, भुनभुनाकर, बाज मुद्दों पर उनकी आलोचना करते हैं, प्राय: वे भी उनके श्रीमुख से अपना नामोल्‍लेख सुनने के बाद भावविभोर होकर लोटपोट हो जाते हैं।
हिन्‍दी साहित्‍य को नामवर सिंह का जो सैद्धान्तिक अवदान है, उससे कई गुना अधिक ''व्‍यावहारिक अवदान'' है। चार दशकों से भी अधिक समय से वे विश्‍वविद्यालयों के हिन्‍दी विभागों में नियुक्तियों की राजनीति करते रहे हैं। सत्‍ता के सांस्‍कृतिक-साहित्यिक प्रतिष्‍ठानों में उखाड़-पछाड़ की राजनीति करने में उनकी टक्‍कर के धुरंधर खिलाड़ी सिर्फ अशोक वाजपेयी रहे हैं। राजा राम मनोहर राय ट्रस्‍ट के जरिए किताबों की पुस्‍तकालय-खरीद कराकर वे प्रकाशकों-लेखकों को उपकृत करते रहे हैं और ओम प्रकाश और शीला संधू के ज़माने से लेकर माहेश्‍वरी युग तक राजकमल-प्रकाशन समूह के अन्‍त:पुर में उनकी वही भूमिका रही है जो (बक़ौल विष्‍णु खरे) सम्‍भ्रान्‍त परिवारों के पुराने वफ़ादार नौकर 'रामू काका' की हुआ करती है। आलोचना की लेखन परम्‍परा से वाचिक परम्‍परा में संक्रमण के बाद नामवर सिंह अपनी आज कही गयी बात को कल काटकर नयी स्‍थापना देने के लिए कुख्‍यात रहे हैं। कोई नहीं बता सकता कि कब वे किसे पुदीने की झाड़ पर चढ़ा देंगे और किसका झाड़ी में खींचकर शिकार कर डालेंगे। जहाँ तक उनके सैद्धान्तिक अवदानों की बात है, यह एक अलग से विस्‍तृत चर्चा का विषय है। लेकिन इतना याद दिलाना ज़रूरी है कि प्रकाशक के दबाव में आनन-फानन में लिखी गयी सुप्रसिद्ध कृति 'कविता के नये प्रतिमान' उससमय बहुचर्चित पश्चिमी 'नयी आलोचना' और मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति की बेमेल खिचड़ी से अधिक कुछ नहीं है और उस पुस्‍तक की स्‍थापनाओं को स्‍वयं नामवर सिंह ही खारिज कर चुके हैं। मार्क्‍सवादी आलोचना का काम रचना का प्रतिमान निर्धारित करना नहीं बल्कि उसका द्वंद्वात्‍मक विश्‍लेषण करना होता है। सच तो यह है कि नामवर सिंह की आलोचना की कोई सुसंगत पद्धति है ही नहीं। उनकी आलोचना सार-संग्रहवादी (इक्‍लेक्टिक) है, उक्ति-वैचित्र्य, अन्‍तरविरोधी स्‍थापनाओं, सुभाषितों और आप्‍तवचनों का संकलन मात्र है। नामवर सिंह के श्रीमुख और लेखनी को ही यह वरदान प्राप्‍त है कि वह नेरूदा, लोर्का, पाश, गोरख पाण्‍डेय से लेकर पप्‍पू यादव, आनन्‍द मोहन और तरुण विजय तक का प्रशस्ति-वाचन कर सकें।
ऐसा व्‍यक्ति यदि संघ परिवारी वर्चस्‍व वाले आई.जी.एन.सी.ए. से अपना सम्‍मान करवाता है तो इसमें ज़रा भी आश्‍चर्य की बात नहीं है। आश्‍चर्य हिन्‍दी के वामपंथी लेखकों और उनके संगठनों के रवैये पर होता है। सभी चुप हैं। किसी ने भी आई.जी.एन.सी.ए. के प्रस्‍ताव पर नामवर की चुप्‍पी पर सवाल नहीं उठाया, उसकी भर्त्‍सना नहीं की। किसी ने भी नामवर को पत्र लिखकर या बयान जारी करके यह अपील करने की ज़रूरत नहीं समझी कि संस्‍कृति, शिक्षा और विचार के केन्‍द्रों पर हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट हमलों और कब्‍जों के इस दौर में आई.जी.एन.सी.ए.द्वारा आयोजित सम्‍मान समारोह में शामिल होकर नामवर को फासिस्‍टों के सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व की मुहिम को प्रकारान्‍तर से मान्‍यता और बल देने का काम कत्‍तई नहीं करना चाहिए। कारण स्‍वाभाविक है। ब्रेष्‍टीय अन्‍दाज में कहा जा सकता है: 'वह जो रुष्‍ट-असन्‍तुष्‍ट चेहरा दीख रहा है/सम्‍मान-पुरस्‍कार का अवसर/अभी उस तक पहुँचा नहीं है।' प्रगतिशील-जनवादी-वामपंथी हिन्‍दी साहित्‍य की यह वही दुनिया है जहाँ केदारनाथ सिंह  गुहा नियोगी के हत्‍यारों के हाथों पुरस्‍कृत होकर और लीलाधर जगूड़ी भाजपाई मुख्‍य मंत्री नित्‍यानंद स्‍वामी को पिता बनाकर भी सम्‍माननीय बने रहते हैं, जहाँ कई वाम धुरंधर अशोक वाजपेयी के कृपाकांक्षी बने रहते हैं, जहाँ अग्निमुखी वामपंथी कवि-लेखक सहसा सरकारी अकादमियों के शीर्षपद पर जा बिराजते हैं, जहाँ सर्वाधिक कुख्‍यात हत्‍यारे पुलिस अधिकारी कवि-लेखक के रूप में प्रतिष्ठित होकर कवियों-लेखकों को पुरस्‍कृत करते रहते हैं, और किसी सभा-संगोष्‍ठी में फासीवाद के सांस्‍कृतिक प्रतिरोध पर वक्‍तव्‍य देने या कविताएँ पढ़ने के बाद बहुतेरे लेखक-कविगण भाजपा प्रायोजित सांस्‍कृतिक आयोजनों में शामिल होने के लिए रायपुर, बनारस या जयपुर का रुख कर लेते हैं। ऐसे में आश्‍चर्य नहीं कि आई.जी.एन.सी.ए. के भगवा मंच से सम्‍मानित होकर नामवर जैसे ही नीचे उतरें, उन्‍हें कोई वाम प्रगतिशील संस्‍था या संगठन अपने मंच से सम्‍मानित करने के लिए पकड़ ले जाये।
कोई कह सकता है कि अभी ही क्‍यों, कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के बुर्जुआ सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों से तो प्रगतिशील-वाम कवियों-लेखकों-संस्‍कृतिकर्मियों को हमेशा ही दूरी बरतनी चाहिए। बिल्‍कुल ठीक बात है। जो लोग पद-पीठ-पुरस्‍कार के लिए कांग्रेसी शासन के दौरान सत्‍ता के गलि‍यारों में घूम रहे थे और जो लोग सैफई राज परिवार या नी‍तीश कुमार की सरकार के कृपाकांक्षी बने हुए हैं, उनका अवसवरवाद भी घृणित और निकृष्‍ट है। लेकिन, हमें सामान्‍य बुर्जुआ जनवादी परिवेश और फासिस्‍ट वर्चस्‍व के परिवेश के बीच अन्‍तर करना होगा। जिससमय गुजरात-2002 के सूत्रधार केन्‍द्र में सत्‍तासीन हैं, जो दाभोलकर-कलबुर्गी-पानसारे की हत्‍या से लेकर गाय, लव जेहाद, 'भारत माता की जय' के शोर और मुजफ्फरनगर-दादरी-कैराना का समय है, जो अघोषित आपातकाल जैसा समय है, जब सभी केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालयों, यू.जी.सी., एफ.टी.आई.आई.,आई.सी.एच.आर., एन.बी.टी.,एन.सी.ई.आर.टी., आई.आई.टी. और फि‍ल्‍म सेंसर बोर्ड पर कब्‍जे के बाद हिन्‍दुत्‍ववादी शक्तियाँ फासिस्‍ट राजनीतिक-वैचारिक वर्चस्‍व की मुहिम को अभूतपूर्व आक्रामता के साथ आगे बढ़ा रही हैं, ऐसे समय में प्रतिरोध की आवाज़ उठाने के बजाय, यदि कोई व्‍यक्ति फासिस्‍टों के आयोजनों में भागीदारी करके उनकी सामाजिक स्‍वीकृति के पक्ष को मजबूत बनाता है, तो वह हत्‍यारों के दरबार में खून के चहबच्‍चों के ऊपर बिछी कालीन पर बैठकर सितार बजाने का काम करता है। हत्‍यारों की जमात के पीछे जो सुसंस्‍कृत-शालीन-विद्वान लोग खड़े होते हैं, वे भी उनसे कम जघन्‍य अपराधी नहीं होते।
आज की स्थिति पर कात्‍यायनी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्‍तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ:

डोमा जी उस्‍ताद अब एक भद्र नागरिक हो गया है
कई अकादमियों और सामाजिक कल्‍याण संस्‍थाओं
और कला प्रतिष्‍ठानों का संरक्षक, व्‍यवसायी,
राजनेता और प्राइवेट अस्‍पतालों-स्‍कूलों का मालिक.
मुक्तिबोध के काव्‍यनायक ने जिन साहित्यिक जनों और कलावंतों को
रात के अँधेरे में उसके साथ जुलूस में चलते देखा था,
वे दिन-दहाड़े उससे मेल-जोल रखते हैं
और इसे कला-साहित्‍य के व्‍यापक हित में बरती जाने वाली
व्‍यावहारिकता का नाम देते हैं.

वयोवृद्ध मार्क्‍सवादी आलोचक शिरोमणि आलोचना के सभी प्रतिमानों को
उलट-फेर रहे हैं ताश के पत्‍तों की तरह
और आर.एस.एस. के तरुण विचारक की पुस्‍तक का
विमोचन कर रहे हैं.
मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण पद्धति के क ख ग से अपरिचित
युवा आलोचकों की पीठ थपकते-थपकते
दुखने लगती है.
कवि निर्विकार भाव से चमत्‍कार कर रहे हैं.
कहानियाँ सिर्फ कहानीकार पढ़ रहे हैं.
फिर भी सबकुछ सब कहीं ठीक-ठाक चल रहा है.
हर शाम रसरंजन हो रहा है,
बचत और सुविधाऍं लगातार बढ़ रही हैं ।
बीस रुपये रोज़ के नीचे जीने वाली 70 प्रतिशत आबादी
और लाखों किसानों की आत्‍महत्‍याओं और करोड़ों
कुपोषित बच्‍चों के बारे में सोचने-बोलने-लिखने वाले
अर्थशास्‍त्री-समाजशास्‍त्री ऊँचे संस्‍थानों और एन.जी.ओ.
में बिराजे हुए धनी मध्‍यवर्गीय अभिजन बन चुके हैं.
विद्वान मार्क्‍सवादी तांत्रिक कूट भाषा में आज की दुनिया
की समस्‍याओं पर लिख-बोल रहे हैं.
(भय, शंकाओं और आत्‍मालोचना से भरी एक प्रतिकविता)
...

(समयांतर के जुलाई, 2016 के अंक में प्रकाशित)

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