Wednesday, February 06, 2019


पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि मैं यहाँ आम प्रवृत्ति की बात कर रही हूँ, सामान्य परिदृश्य की बात कर रही हूँ और तमाम चेतावनियों, दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों, वितंडा-विवादों के बावजूद, इतना कहने से मैं स्वयं को रोक नहीं सकती !

एक सड़ते हुए, बेहद बीमार बुर्जुआ समाज में, फासिस्टी उत्पात के दशकों लम्बे दौर में, राज्यसत्ता की लगातार बढ़ती निरंकुशता, दमन-तंत्र की बढ़ती खूनी बर्बरता और रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की उड़ती चिंदियों के बीच, आपकी कविताओं-कहानियों पर भव्य सभागारों में आयोजन होते हैं, सत्ता और पूँजी के संस्कृति-प्रतिष्ठानों द्वारा, और सीधे सत्ता द्वारा भी, आप आमंत्रित, सम्मानित और पुरस्कृत होते रहते हैं, हत्यारों द्वारा प्रायोजित एवं संदिग्ध स्रोतों से वित्त-पोषित अति-कुलीन साहित्य-महोत्सवों में आप नक्षत्रों की तरह चमकते हैं; तो आपकी प्रगतिशीलता, आपका वामपंथ -- मेरे लिए संदिग्ध है ! आप या तो गधेपन की हद तक मूर्ख हैं जिसका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है ( और यह भी कम ख़तरनाक बात नहीं है !) या फिर प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध, प्रभावशाली और शक्तिशाली होने की आपकी दबी-छुपी मध्यवर्गीय कुण्ठित लिप्सा ने आपको बेहद असंवेदनशील,धूर्त, शातिर और निर्मम बना दिया है ! और आम लोग देर से ही सही, लेकिन अपने अनुभव से एक न एक दिन इस सच्चाई को जान ही जाते हैं कि सबसे भयावह और ख़तरनाक वह क्रूरता होती है जो संवेदनात्मक और सौन्दर्यात्मक मुखौटा लगाए रहती है और कविता की भाषा में मनुष्यता के बारे में चिन्ताएँ प्रकट किया करती है !

आप जानते हैं, नाजिम हिक़मत, पाब्लो नेरूदा, न्गूगी वा थ्योंगो, चिनुआ अचेबे, ब्रेष्ट, लोर्का, वाल्टर बेंजामिन, अर्नेस्तो कार्देनाल, ओत्तो रेने कास्तीयो, विक्तोर खारा, प्रमोद्य अनंत तूर आदि-आदि सैकड़ों महान रचनाकारों को अपनी ईमानदार, बेलाग-लपेट, समझौताहीन प्रतिबद्धता और वाम विचारों की क्या कीमत चुकानी पड़ी ! आप शायद यह भी जानते होंगे कि दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर अबतक, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के देशों में किसी विदेशी सत्ता द्वारा नहीं, बल्कि देशी बुर्जुआ सत्ताओं द्वारा क़त्ल कर दिए गए, जेलों में ठूँस दिए गए और अमानुषिक यातना का शिकार बनाए गए कवियों-लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की संख्या हज़ार की सीमारेखा पार कर जायेगी ! आप भारत में आज़ादी से पहले जेल, यातना और बेहद विपन्नता का जीवन बिताने वाले राष्ट्रवादी और जनवादी चेतना के लेखकों-पत्रकारों के बारे में बखूबी जानते होंगे और उन बहादुर युवा क्रांतिकारी वामपंथी कवियों-लेखकों से भी परिचित होंगे जिन्हें '70के दशक में अपनी जन-निष्ठा और उसूलों की कीमत असह्य यंत्रणा झेलकर या प्राण देकर चुकानी पड़ी ( आप आज साहित्य और राजनीति की उनकी यांत्रिक या कमजोर समझ पर सवाल उठा सकते हैं लेकिन उनकी वीरता और ईमानदार प्रतिबद्धता पर तो कोई परम पतित पुरातन पापी ही सवाल उठा सकता है ) I मुक्तिबोध की कविता को आज फासिस्टों की सरकार का एक मंत्री बजट-भाषण के दौरान कोट करता है, छत्तीसगढ़ में एक हत्यारा पुलिस अधिकारी कवि मुक्तिबोध पर आयोजन करता है, तमाम समारोहों में सुधी साहित्य-चिन्तकगण उन्हें निर्जीव प्रतिमा में बदलकर हत्यारों और लफंगों की सोहबत में उनपर धूप-दीप-नैवेद्य चढ़ाते हैं, उनके ऊपर "प्राध्यापकीय आलोचना" के कूपमंडूकतापूर्ण मोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे जाते हैं और शोध होते हैं, लेकिन अपने जीवन-काल में मुक्तिबोध हमेशा सत्ता-प्रतिष्ठानों और अकादमिक जगत के मठाधीशों की उपेक्षा के शिकार रहे, उनकी एक कृति पर प्रतिबन्ध भी लगा और फासिस्ट हिन्दुत्ववादी गुंडे हमेशा उन्हें आतंकित करने, मारने-पीटने की कोशिश करते रहे I तो क्या यह महज एक इत्तेफ़ाक़ है, या सत्तासीन फासिस्टों और अन्य बुर्जुआ राजनेताओं की मूर्खता है, कि कलबुर्गी-दाभोलकर-पानसारे-गौरी लंकेश की जघन्य ह्त्या के दौर में भी आपको ये दुर्दांत अत्याचारी भव्य आयोजनों में बुला रहे हैं, शाल, नारियल, प्रशस्ति-पत्र और मोटे लिफ़ाफ़े दे रहे हैं और शाम-ढले रस-रंजन भी करा रहे हैं ?

हम जानते हैं कि आप ये सारे सवाल उठाने वाले पर ही, या उसकी "यांत्रिक", "अति-क्रांतिकारी", "परम-शुद्धतावादी" सोच पर सवाल उठा देंगे, या इस टाइप कोई बेशर्म तर्क गढ़ने लग जायेंगे कि 'हमें हर उस जगह जाना चाहिए जहाँ हमारी बात सुनी जाए', या,'इन आयोजनों और प्रतिष्ठानों में जनता का पैसा लगा है अतः यह सब जनता का है', या यह कि, 'हम सत्ता के दरबार में भी जनता के गीत गाते हैं'... वगैरह-वगैरह...! अरे छोड़िये भी, किसे सूतिया बना रहे हैं ! ये बेशर्मी भरे आत्म-रक्षा के तर्क काफ़ी घिन पैदा करते हैं ! इन कुकर्मों में शामिल जो सबसे घृणित और पतित तत्व हैं, वे उलटे खुद ही आक्रामक तेवर में आकर सवाल उठाने वालों पर सवाल उठाने लगते हैं और उसीप्रकार कुत्सा-प्रचार की गंद उगलने लगते हैं जैसे दिल्ली के सारे गंदे नाले यमुना में महानगर की सारी गन्दगी उड़ेलते रहते हैं !

फासिस्टों, उनके सहयोगियों, उनके चम्पू अखबारोंऔर चन्द सेठिया घरानों के सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजनों में जाकर गाने-बजाने और ईनाम पाने वाले वामपंथियों पर सवाल उठाने पर लगातार जो बेशर्मी भरे कुतर्क और प्रत्याक्रमण करने जैसी हरक़तें सामने आ रही हैं, वे इन "वाम-जनवादी" मुखौटों के पीछे के गंदे चेहरों को खुद ही सामने ला दे रही हैं ! इसमें अब कोई संदेह रह ही नहीं जाता कि "वाम-जनवादी" मुखौटे वाले ये लोग दरअसल पतित सोशल-डेमोक्रैट और बुर्जुआ लिबरल्स हैं जो आतताइयों के आतंक के सामने हथियार डालने के बाद अब 'ट्रोज़न हॉर्स' की भूमिका में आ गए हैं ! चारों और नज़र घुमाकर देखने पर लगता है कि इनदिनों वाम-जनवादी कहे जाने वाले भूभाग के एक बड़े हिस्से पर 'अय्याश प्रेतों के उत्सव' हो रहे हैं !

निश्चित ही, इन जगहों से हम किसी नयी शुरुआत की, किसी नवोन्मेष की उम्मीद कदापि नहीं पाल सकते I गोर्की, ब्रेष्ट, नेरूदा, हिकमत, रॉल्फ फॉक्स, मयाकोव्स्की,लू शुन, एदुआर्दो गालियानो, न्गूगी आदि की परम्परा के सच्चे वारिसों को नयी शुरुआत के लिए अपनी नयी ज़मीन तैयार करनी होगी ! निश्चय ही, प्रतिक्रिया और विपर्यय के इस युग में, यह बहुत लंबा और दुष्कर काम लगता है ! तो ? क्या बैठे रहेंगे ? यह किसी जीवित हृदय को भला बर्दाश्त कैसे होगा ? तो अब, जब करना है, तो करना है ! एक नयी शुरुआत कहीं न कहीं से तो करनी ही होगी !

(4फरवरी, 2019)

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