Friday, February 01, 2019


भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस फिर एक बेहद ख़तरनाक और गंदा खेल खेल रही है ! तुरत उसे इसका कुछ लाभ मिल भी जाए तो अंततोगत्वा इसका लाभ धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों को ही होगा !

सभी जानते हैं कि शंकराचार्य स्वरूपानंद कांग्रेसी संत हैं ! कल उनकी धर्म संसद ने 21 फरवरी को राम मंदिर निर्माण के लिए प्रयाग से अयोध्या कूच का एलान इसलिए किया कि केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों को बाध्य होकर संतों और उनके अनुयाइयों को गिरफ्तार कराना पड़े, हंगामा हो और फिर कांग्रेस देश को यह बताने में सफल हो जाए कि भाजपा मंदिर के मसले का सिर्फ़ चुनावी इस्तेमाल कर रही है, मंदिर बनवाने में उसकी कोई रुचि नहीं है I उनकी इस चाल की काट करने के लिए आज वी.एच.पी. समर्थक संतों की धर्म संसद शुरू हुई, जिसमें मंदिर-निर्माण के मसले पर मोदी सरकार को समय देने की बात हो रही है, ताकि फिर चुनावों में इसका इस्तेमाल किया जा सके !

कांग्रेस ने अकाली दल की धर्म की राजनीति का जवाब धर्म की राजनीति से देने के लिए ही संत भिंडरावाले को खड़ा किया था जो आगे चलकर उसके लिए भस्मासुर साबित हुआ I शाहबानो मामला, राम मंदिर का ताला खुलवाना और बाबरी मस्जिद गिराने में तत्कालीन नरसिंह राव सरकार की भूमिका -- कांग्रेस द्वारा भाजपा की केसरिया लाइन का जवाब नरम केसरिया लाइन से देने का एक लंबा इतिहास है ! इस समय भी चुनावों के पहले राहुल गाँधी का मंदिर-मंदिर घूमना, उनको जनेऊधारी उच्च कुलीन ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए कांग्रेसियों का बयान पर बयान जारी करना और अब स्वरूपानंद की धर्म-संसद --- यह बताता है कि कांग्रेस अब नेहरूकालीन मरियल-विकलांग धर्म-निरपेक्षता के दौर में भी वापस नहीं लौट सकती (रेडिकल बुर्जुआ अर्थों में धर्म-निरपेक्ष तो खैर वह कभी नहीं थी!) । जो सोशल डेमोक्रेट्स और लिबरल भद्र जन कांग्रेस के सहारे भारत में सेक्युलर बुर्जुआ जनवाद की बहाली और "नेहरूवियन समाजवाद के स्वर्ग" के धरती पर उतर जाने का सपना देख रहे हैं, वे घामड़ और उल्लू नहीं तो भला और क्या हैं !

कांग्रेस धर्म की राजनीति के बरक्स धर्म-निरपेक्षता की राजनीति की वाहक हो ही नहीं सकती ! जाति की राजनीति पर भरोसा करने वाली क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ भी ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि अंतिम निष्कर्ष के तौर पर जाति की राजनीति धर्म की राजनीति के पूरक का ही काम करती है ! कांग्रेस और उसके सहयोगी थोड़ी-बहुत लोकरंजक बातें भले कर लें, नव-उदारवाद से अलग उनकी कोई आर्थिक नीति हो ही नहीं सकती ! जो संसदीय वामपंथी हैं, वे तो अब कीन्सियाई "कल्याणकारी राज्य" के नुस्खों से भो पीछे हटकर ( अमर्त्य सेन टाइप भाषा में बात करते हुए ) "मानवीय चेहरे" वाले नव-उदारवाद के गले में वरमाल डाल चुके हैं और यू.पी.ए.-1 के दौर जैसी मधुयामिनी का इंतज़ार कर रहे हैं ! नव-उदारवाद पर आम सहमति के इस दौर में जिस कट्टरपंथी बुर्जुआ राजनीति का बोलबाला होगा वह भारतीय परिस्थितियों में सर्वोपरि तौर पर धर्म की राजनीति और फिर जाति की राजनीति ही होगी ! कांग्रेस जो गेम खेल रही है, वह भी इस बात में सहायक होगा कि जनता की ज़िंदगी के बुनियादी सवालों की जगह धार्मिक उन्माद की राजनीति ही होती रहेगी और हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के उत्पात तब भी सडकों पर जारी रहेंगे जब वे सत्ता में नहीं रहेंगे ।

(31जनवरी, 2019)

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