Thursday, January 31, 2019


परम पतित पापी पंड़वा पोस्ट लिखता है पी.एल.एफ़. से लौटकर कि बड़ा मज़ा आया , 'बाकी विवाद शुरू हो गया है, दो-चार दिन रौनक रहेगी, मजे लीजिये I' यह कहकर यह पुराना पुरबिहा पापी पी.एल.एफ़. के आयोजकों की पतनशीलता के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों की खिल्ली उड़ा रहा है, लिहाड़ी ले रहा है I उसकी इस हिमाक़त के वाजिब कारण भी हैं ! वह जानता है कि आज विरोध में बोलने वाले भी कल उससे 'हें-हें-हें-हें' करते हुए मिलने लगेंगे I पंड़वा जानता है कि ऐसे विरोधों का भभका कुछ दिनों में शांत हो जाता है और फिर वही,'तू मेरा हाजी बगोयम मैं तेरा हाजी बगो !' उसे पता है कि दिल्लीवासी जो उसके हमप्याला-हमनिवाला हुआ करते हैं और दिन के उजाले में बहुत उसूलपरस्त बनाते हैं, वे उसके सारे कुकर्मों को जानते हैं और फिर भी उसके साथ मिल-बैठकर सोहर गाते ही हैं ! वह यह भी जानता है कि दिल्लीवासी प्रगतिशील मठाधीश और मठवासी लोग इन "तुच्छ मामलों" में नहीं पड़ते, वे फोन पर उधर भी सहमति जताते हैं और इधर भी ! मज़े की बात है कि पी.एल.एफ. के आयोजकों के अवसरवाद के ख़िलाफ़ लिखी गयी पोस्ट्स पर सहमति जाहिर करने वाले कई महानुभावों को आज ही पंड़वा की वाल पर उसकी पोस्ट्स लाइक करते और लहालोट होते भी देखा जा सकता है!

(29जनवरी, 2019)





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कहीं भी क्रांतिकारी लहर जब उतार पर होती है और ठहराव और विघटन का दौर आता है तो कैरियरवाद का भूत प्रगतिशीलता का झंडा उठाये हुए लेखकों-बुद्धिजीवियों के सर पर न सिर्फ़ चढ़ जाता है, बल्कि चढ़कर उन्मादियों की तरह नाचने लगता है ! ऐसे लोगों को लगने लगता है कि क्रान्ति तो अभी दूर है, तबतक क्यों न अपनी मेहनत से कुछ अपना ही भला कर लिया जाए और प्रगतिशीलता का सिक्का भुनाकर कुछ नाम और प्रतिष्ठा कमा लिया जाए, देश-देशांतर में थोड़ा चमक लिया जाए ! भारत हो या नेपाल, बांग्लादेश हो या श्रीलंका, ऐसी प्रवृत्तियों का नाच हमें बौद्धिक-सांस्कृतिक जगत में खूब देखने को मिल रहा है !

(29जनवरी, 2019)





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क्या करूँ, मैं अपनी उद्दंडता और बदतमीज़ी से खुद ही परेशान हूँ ! अब कोई पतित समाजवादी या कोई सोशल डेमोक्रेट जो मज़दूरों की लडाइयाँ लड़ते-लड़ते फासिस्टों की गोद में जाकर बैठ गया हो, तो उसके मरने पर मैं न उसे 'नमन' लिख पाती हूँ, न आदरांजलि दे पाती हूँ ! मुझे नहीं लगता कि किसी के मर जाने मात्र से उसकी कारगुजारियों और उनके नतीजों को भुलाया जा सकता है ! एक इंसान दूसरों के लिए और पूरे समाज के लिए अपनी सामाजिक गतिविधियों और उनके नतीजों के अतिरिक्त और होता ही क्या है I भारतीय भद्रजनों के सुकोमल मन को बुरा लगेगा, लेकिन मेरा बाप भी अगर सामाजिक-राजनीतिक जीवन में होता और उसके प्रतिक्रियावादी सिद्धांत और व्यवहार जनता के हितों के ख़िलाफ़ होते तो उसके मरने पर मैं उसे कोई श्रद्धांजलि नहीं दे पाती ! हाँ, यह ज़रूर है कि ऐसे किसी आदमी के मरने पर मैं बस चुप रहती हूँ, खामखा किसी के अनुयाइयों को क्या चिढ़ाना या दुखी करना ! वह तो ये सारी बातें इसलिए कर रही हूँ कि एक साहब पीछे पड़ गए कि मरने पर दुश्मन के लिए भी तो एक श्रद्धांजलि बनती है ! बनती है तो आप दीजिये, मेरे पीछे मत पड़िये, जो भी बोलूँगी, बहुत बुरा लग जाएगा ! मैं बोलूँगी तो बोलेगा कि बोलती है !

(29जनवरी, 2019)












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