Sunday, January 27, 2019

#ख़यालों_की_रेज़गी_ठग्गू_के_लड्डू


सामाजिक संघर्षों से पलायन किये हुए कायर लोग पूरी दुनिया के सामने , सार्वजनिक तौर पर, संशयवादी, निषेधवादी, या प्रश्नसूचक चिह्न जैसी मुद्राएँ अपनाकर खुद को सही साबित करते रहते हैं I लेकिन जब कभी वे लोग आपस में अकेले होते हैं, तो या तो शर्मिन्दगी भरी चुप्पी साधे रहते हैं, या शराब पीकर निजी स्वार्थ और दिमागी गंद की बातें निहायत बेशर्मी से करते होते हैं, या नशे में धुत्त होकर एक दूसरे को गंदी गालियाँ देते हैं, और फिर गले मिलकर रोते हैं।

(21जनवरी, 2019)

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बहुत सारे ईमानदार और संवेदनशील नागरिक हैं जो कायर और बुज़दिल हैं ।
बहुत सारे सच्चरित्र, शरीफ़ और नेकदिल लोग हैं, जो कूपमंडूक, लकीर के फ़कीर और मनहूस हैं ।
बहुत सारे लोग तेज़ी से और अनुशासित ढंग से काम करते हैं, लेकिन किसी हाईवे के टोलगेट के बूथ पर बैठे मुलाज़िमों की तरह काम करते हैं ।
बहुत सारे बौद्धिक रूप से कुशाग्र लोग हैं जो अंधी महत्वाकांक्षाओं के उड़नखटोले पर सवार जलती बस्तियों के ऊपर से उड़कर गुज़र जाते हैं सुविधा-संपन्न विचार-द्वीपों पर ।
बहुत सारे जाने-माने कवि-लेखक हैं, जो रस-रंजन, लम्पटगीरी आदि-आदि के साथ लिखते भी हैं, कदाचित ही पढ़ी जाने वाली उनकी पुस्तकें भव्य पुस्तकालयों में शोभा पाती हैं, पुरस्कृत होती हैं और कई भाषाओं में अनूदित होती हैं ।
बहुत सारे बहादुर, सक्रिय और कर्मठ लोग हैं पर उनके सर पर तर्कणा और विवेक की देवी ने कभी हाथ नहीं फेरा।
ये सभी दुर्योग भी इतिहास के अँधेरे और बर्बरता के पक्ष में खड़े हैं, हालाँकि ये भी इतिहास की ही उपज हैं और कोई स्थायी परिघटना नहीं ।

(21जनवरी, 2019)


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हारा हुआ और अकेला पड़ गया इंसान हारे हुए और अकेले पड़ गए लोगों के बीच सुकून महसूस करता है। वे सभी अपनी अलग-अलग चुप्पियों और तात्कालिक खुशियों के बीच साझा मोर्चा बनाते हैं। अगर उनमें से कोई भी उम्मीदों, सपनों और भविष्य की बातें करने लगता है, तो वह एक अलिखित क़रार का उल्लंघन करता है और उसे उस साझा मोर्चे से अलग कर दिया जाता है।

(22जनवरी, 2019)

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बहुत सारे लोगों को लगता है कि सुअवसर का सन्देश लेकर कूरियर जब भी उनके घर पहुँचा तो वहाँ ताला बंद मिला I उससमय वे नाई की दूकान पर दाढ़ी बनवा रहे थे या नुक्कड़ के ठेले पर पानी-बताशे खा रहे थे। इस बात के लिए वे खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाते।
बहुत सारे लोग दुःख के साथ सोचते हैं कि अगर समाज ने उनकी प्रतिभा को पहचाना होता और अगर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उनके सर पर न आन पड़ी होतीं; तो वे टैगोर या सत्यजित रे या रविशंकर या सुनील गावस्कर या होमी जहाँगीर भाभा से कम नहीं होते, या थोड़ा ही कम होते। उनकी पत्नियाँ उन्हें मुटियाते-पगुराते भैंसे से अधिक कुछ नहीं समझतीं।
बहुत सारे लोगों के लिए पत्नियाँ सबसे सुरक्षित रक्षा-कवच होती हैं। अपनी सारी विफलताओं और अपूर्ण कामनाओं-आकांक्षाओं के लिए वे उन्हें ज़िम्मेदार ठहराते हैं और अपने अहसासे-कमतरी से निज़ात पा लेते हैं Iपत्नियाँ कूड़े की टोकरी होती हैं जिसमें वे अपना सारा दिमागी कचरा डालते रहते हैं।
बहुत सारे लोगों के दिमाग में कई बार किसी अच्छी कविता का ख़याल, या कभी-कभी तो एक पूरी कहानी का प्लाट कौंध जाता है I लेकिन सब्जी-दूध लेकर घर लौटने और बच्चे का होमवर्क पूरा कराने के दौरान कभी वे सारे शानदार विचार दिमाग से खिसक जाते हैं। समाज का दुर्भाग्य कि वह उनके अवदानों से वंचित रह जाता है।
बहुत सारे लोग जिन बेहद मामूली बातों को मौलिक समझते हैं, वे काफ़ी पहले कही जा चुकी होती हैं। कम पढ़ने-लिखने की वजह से उनसे वे परिचित नहीं होते, इसलिए कम से कम उनके लिए वे बातें नयी और मौलिक ही होती हैं, भले ही दुनिया के लिए उनकी यह "खोज" किसी काम की न हो, और भले ही इस "खोज" के लिए उन्हें इतिहास में जाना न जाए !

(23जनवरी, 2019)


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बहुत सारे लोग क्रांतिकारी राजनीतिक सरगर्मियों में कुछ दिनों तक भागीदारी के बाद, इस या उस बहाने घर की राह लेते हैं। कुछ दिन वे अपनी गृहस्थी जमाने की जद्दोजहद में खर्च करते हैं। फिर उनकी आर्थिक स्थिति जैसे ही बढ़िया और सुरक्षित हो जाती है, वे क्रांतिकारियों को हर मामले में सुझाव-परामर्श-मार्गदर्शन देते रहने का और भरपूर लगन एवं समझदारी के साथ क्रान्ति न करने के लिए कोसते रहने का गुरुतर दायित्व अपने कन्धों पर उठा लेते हैं।
राजनीतिक भगोड़ों और पतितों में उन तमाम लोगों के ख़िलाफ़, चमत्कारी ढंग से, एक अद्भुत किस्म का साझा मोर्चा बन ही जाता है, जो अभी भी संघर्ष में डटे हुए हैं। 'फेंससिटर' बुद्धिजीवी कभी अपने अपराध-बोध के शमन के लिए संघर्षरत लोगों का साथ देते हैं, तो कभी अपनी शंकाओं और कुंठाओं से प्रेरित होकर राजनीतिक भगोड़े छद्मवेशी प्रगतिशीलों की हाँ में हाँ मिलाते हैं ! एन.जी.ओ. के अतिरिक्त साहित्य और मीडिया की दुनिया अक्सर राजनीतिक भगोड़ों का शरण्य बनती है।
क्रांतिकारी वाम की विचारधारा से प्रतिबद्ध जो लोग राजनीतिक-सामाजिक कामों में लगे हैं, उन्हें जो तमाम सुझाव-परामर्श दिए जाते हैं और उनकी जो तमाम आलोचनाएँ की जाती हैं, उनपर गौर करनी ज़रूरी होता है। मुश्किल यह है कि बहुत सारी आलोचनाएँ निजी कुंठा, कुढ़न-जलन और बदमाशी की भावना से प्रेरित होती हैं।
बहुत सारे लोग थे जिन्होंने बहुत सारा मार्क्सवाद पढ़ रखा था, पर उनके भीतर तीन में से कोई एक, या तीनों कमियाँ एक साथ मौजूद थीं -- वे कायर थे, या/और यशकामी थे, या/और सुविधाजीवी थे। मार्क्सवाद का इस्तेमाल उन्होंने अपनी स्थिति की हिफाज़त के लिए किया।
बहुत सारे लेखकगण हैं जो अफसर या प्रोफ़ेसर वगैरह हैं I बेटा विदेश में है, या जाने वाला है। राजधानी में या किसी महानगर में तीन बेडरूम का फ्लैट है, गाड़ी है, पर्याप्त बचत है1 ये सारी चीज़ें अपने आप में कोई शिकायत की बात नहीं हो सकतीं। मगर अक्सर होता यह है कि अधिकांश ऐसे महानुभाव लोग जब पुस्तकों से ठंसे अपने अध्ययन-कक्ष में दीर्घाकार स्टडी टेबल पर बैठते हैं तो उनके दिमाग में स्वतः कुछ इस प्रकार के उत्तर-आधुनिक टाइप ख़यालात आने लगते हैं : 'यह जीवन क्या है, हमारे अपने क्षणभंगुर सपनों की कांपती-थरथराती छाया', या, 'जीवन क्या है -- मृत्यु पर विमर्श का अनुकूल अवसर, या फिर, एक अपरिहार्य अंत की प्रतीक्षा' ... आदि-आदि I ज़िन्दगी जितनी अधिक सुरक्षित होती जाती है, उतना ही अधिक वे अमूर्त होते चले जाते हैं। वे या तो किसी अनूठे दार्शनिक प्रश्न पर चिंतन करते हैं, या मृत्यु पर, या प्रेम पर !

(23जनवरी, 2019)


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रात मैंने एक बहुत बुरा सपना देखा I वैसे हम जैसे दिनों में जी रहे हैं, उनके मुकाबले कोई सपना भला कितना बुरा हो सकता है !
सपने में मैंने अपने आप को प्राचीन यूनान के किसी छोटे से शहर में पाया। चौराहों पर औरत और मर्द गुलामों की मंडी सजी हुई है । वहाँ विमर्शरत रहने वाले दार्शनिकों ने अपनी चटाइयाँ समेट ली हैं और घर लौटकर शहर छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। खुले पुस्तकालय सूने पड़े हैं । अन्दर कुर्सियों पर कुत्ते सोये हैं I बाहर कम्पाउण्ड में गधे लीद कर रहे हैं। कहीं दूर से स्त्रियों का विलाप सुनाई दे रहा है। सियार बस्ती के किनारे के नाले के किनारे बैठे समवेत स्वर में रो रहे हैं। नशे के माफ़िक कोई संगीत बज रहा है Iइस शोर में सिर्फ़ इशारों में बात की जा सकती है, पर लोग एक-दूसरे के इशारों को समझ नहीं पा रहे हैं । संवाद बंद है ।
विचारहीनता सड़कों पर नग्न नृत्य करती, मजमे लगाती घूम रही है। खबर है कि बर्बर आ चुके हैं। कुछ कह रहे हैं कि बर्बर तो हमारे बीच ही भेस बदलकर रह रहे थे और अपने समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ का कहना है कि बर्बरों की प्रतीक्षा करते लोग ही बर्बर हो चुके हैं। कुछ दुखी और चिंतित लोग घरों में बत्तियाँ बुझाकर बैठे हुए हैं। कुछ कवि हैं जो लैंप की मद्धम रोशनी में आँखें गड़ाए हुए आने वाले समय के हिसाब से अपनी पांडुलिपियों में संशोधन कर रहे हैं ताकि उनपर और उनके परिवार पर कोई खतरा न आये।
उधर नाले के उस पार कुछ कामगारों और दस्तकारों की बस्ती है। कुछ लोग खुसफुसाकर बताते हैं कि कुछ युवा और कुछ बच्चे हैं जो वहीं कहीं छुपकर बैठे हुए कुछ मंत्रणा कर रहे हैं !

(24जनवरी, 2019)

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(#ख़यालों_की_रेज़गी_ठग्गू_के_लड्डू श्रृंखला के अंतर्गत पिछली पोस्ट में मैंने एक बुरे सपने का वर्णन किया था जिसमें मैं प्राचीन ग्रीस के किसी शहर में पहुँच गयी थी। साथी Manukant ने इस मुफ़्त ग्रीस-यात्रा पर मुझे बधाई दी। इसका जो जवाब मैंने दिया, उसे यहाँ दे रही हूँ। मक़सद सिर्फ़ थोड़ा हँसी-मजाक है, और कुछ नहीं। कृपया इसमें किसी गंभीर निहितार्थ की तलाश न करें !)
मुफ़्त मैं स्पेस में ही नहीं, टाइम में भी चली जाया करती हूँ सैर-सपाटा के लिए ! अतीत में तो कभी-कभार जाती हूँ, भविष्य का चक्कर तो अक्सर मार लिया करती हूँ I मैं एक जादूगरनी बुढ़िया हूँ जो रूपकों और बिम्बों में वर्त्तमान के रहस्य खोलती है और समाज का भविष्य बाँचती है ! मेरे पास है एक जादुई दूरबीन, एक जादुई खुर्दबीन और एक जादुई चटाई है जो टाइम मशीन की तरह भी काम करती है !☠️😸
(24जनवरी, 2019)


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साहित्य की दुनिया में आजकल बड़े विचित्र-विचित्र अनुभव होते हैं ! अगर आप मार्क्सवादी हैं तो किताबों के फ्लैप और अखबारी समीक्षाएँ पढ़कर कॉफ़ीहाउसी मंडलियों या ड्राइंग रूम की रसरंजनी बैठकियों में हाँकने-ताकने वाला कोई बौद्धिक उचक्का 'इकॉनोमिक डिटर्मिनिस्ट' और 'क्लास रिडक्शनिस्ट' टाइप कोई लेबल आपके कपार पर चिपका जाएगा। मजे की बात यह कि वह इन शब्दों का अर्थ भी ठीक से नहीं जानता रहेगा। मार्क्सवाद की दो-चार किताबें भी वह नहीं पढ़े रहेगा I मार्क्सवाद-विरोध की गंभीर पुस्तकों से भी वह उतना ही अपरिचित रहेगा। ऐसे अति-आत्मविश्वासी कूपमंडूकों और बौद्धिक जालसाजों के साथ क्या सुलूक किया जाये, समझ में नहीं आता।
वाम जनवादी माने जाने वाले साहित्य में इन दिनों उम्मीदों, सपनों और संघर्षों की बात करना 'आउट ऑफ़ फैशन' है । तर्क और विज्ञान-आधारित बात करना भी घिसी-पिटी बात है। बात कुछ संशय, आशंकाओं, अनिश्चितताओं की होनी चाहिए, उदासियों-मायूसियों की होनी चाहिए। कुछ कलात्मक 'कुछ-कुछ होता है' टाइप होना चाहिए । या ऐसी बातें होनी चाहिए जो कुछ जादुई-जादुई हों, चमत्कारी-चमत्कारी हों, रहस्यमय-रहस्यमय हों । या थोड़ी आत्म-भर्त्सना होनी चाहिए, थोड़ा खिन्न, क्षुब्ध, निरुपाय दिखना चाहिए ।
कई वामपंथी कवि-कथाकार तो सुबह-सुबह अपनी कथरी-गुदड़ी समेटकर, गठरी-मुटरी लिए, झोला उठाये रूपवादियों-कलावादियों की बस्ती की ओर निकल जाते हैं । शाम तक उन्हें कुछ अलौकिक रूपक, बिम्ब, फंतासी, संकेत आदि भीख में मिल जाते हैं। शाम को लौटकर वे उन्ही को बीनते हैं, फटकते हैं, पछोरते हैं, धोते हैं और गूँथते हैं। फिर रात में उसे ही पकाते-खाते हैं और मिल-बैठकर कला देवी का कीर्तन गाते हैं । सरकारी अकादमियों में, राजधानी के भव्य सभागारों में होने वाले बड़े प्रकाशकों के आयोजनों में और सेठों के पैसे से लगने वाले 'लिट् फेस्ट्स' में सजने वाली माता की चौकियों और जगराता में भी उनकी खूब माँग होती है !

(25जनवरी, 2019)


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बहुत सारे लोग क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम को अपना जीवन दे देते हैं, लेकिन उनकी कर्त्तव्यपरायणता स्टेशन से सवारी ढोने वाले तांगे के घोड़े जैसी होती है।
बहुत सारे लोग अक्सर रुटीनी ढर्रे और काहिली से मुक्त होकर नयी शुरुआत करने का ईमानदार संकल्प लेते हैं और फिर ठोस अमल में उतरने का काम कल पर टालकर मीठी नींद लेने लगते हैं। यह दौरा उन्हें महीने में कम से कम एक बार तो पड़ ही जाया करता है।
बहुत सारे लोग बार-बार संकल्प लेकर और खुद से वायदा करके, उन्हें तोड़ देते हैं। हर बार वे अपनी नज़रों में थोड़ा और गिर जाते हैं I धीरे-धीरे उनकी रही-सही इच्छा-शक्ति भी जाती रहती है। कुछ दिनों बाद वे इतने कमजोर हो जाते हैं कि कोई भी नया संकल्प लेने, या खुद तक से कोई वायदा करने से डरने और कतराने लगते हैं ।

(26जनवरी, 2019)


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कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ... कि विश्वविद्यालयों में साहित्य पर शोध और लघु शोध आदि अगर बंद हो जाएँ और प्राध्यापकी के लिए शोध की अर्हता को समाप्त कर दिया जाए तो हिन्दी साहित्य की दुरवस्था में 5-10 प्रतिशत तो सुधार आ ही जाएगा !
अगर साहित्य की सारी सरकारी-अर्द्धसरकारी अकादमियाँ बंद कर दी जाएँ, सेठों और मीडिया मुगलों द्वारा प्रायोजित लिट् फेस्ट टाइप भोंड़े-भद्दे जलसे न हुआ करें, वजीफ़े और विदेश-यात्राओं की सुविधाएँ ख़तम हो जाएँ, तो 5-10 प्रतिशत सुधार और आ जाएगा !
बहरहाल, ये सब तो ख़याली पुलाव हैं ! पूँजीवादी समाज हर हाल में, साहित्य का स्वाभाविक शत्रु होता है। शोध-अध्ययन का स्तर गिराकर और सरकारी संरक्षण देकर साहित्य को रसातल में ले जाना भी पूँजीवादी राज और समाज की एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही है।

(26जनवरी, 2019)







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