Saturday, January 19, 2019


आलोचक अगर सही मामले में अपने हुनर में पारंगत हो, तो वह साहित्य-सैद्धांतिकी और सौन्दर्य शास्त्र का विशेषज्ञ होता है I साहित्य-सैद्धांतिकी और सौन्दर्य शास्त्र की गहराइयों में उतरने के लिए उसे दर्शन में भी दखल रखनी होती है और अपने देश-काल-समाज के साहित्य में परावर्तन की परख करने के लिए किसी हद तक राजनीति, इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र की भी समझ बनानी पड़ती है I ऐसी योग्यता रखने के कारण ही प्लेखानोव,लुनाचार्स्की, मिखाइल लिफ्शित्ज़, वोरोव्स्की, वोरोन्स्की, लुकाच, वाल्टर बेंजामिन, ब्रेष्ट, टेरी ईगल्टन आदि आलोचक का अपना दायित्व कुशलता के साथ निभा सके I

इस दृष्टिकोण से हिन्दी आलोचना का परिदृश्य अत्यंत गंदा और सतही है I यहाँ ज्यादातर पुस्तकों के फ्लैप और अखबारी पुस्तक-समीक्षा लिखने वाले छुटभैये ही आलोचना का खोमचा सजाये बैठे हैं ! कृतियों की भूरि-भूरि प्रशंसा या सिरे से खारिज किये जाने के पीछे लेखक से आलोचक के निजी रिश्ते और फायदे-नुक्सान के गणित की सर्वोपरि भूमिका होती है --- यह साहित्य की दुनिया का 'खुला रहस्य' है I दरअसल राजनीतिक उखाड़-पछाड़ और दलबंदी-चकबंदी की शुरुआत तो आलोचकों की पुरानी पीढ़ी ही कर चुकी थी और "प्राध्यापकीय आलोचना" का श्रीगणेश भी पहले ही हो चुका था, लेकिन पुराने आलोचकों पर कम से कम अपढ़-कुपढ़ होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता था, चाहे आप उनकी सारी स्थापनाओं से सहमति भले न रखते हों I आज के जो वन्य महत्वाकांक्षी, नौबढ़, अपढ़, छुटभैय्ये बौने मठाधीश बनने को आतुर, ऊँची कुर्सियों पर उचक-उचक कर चढ़ने के लिए होड़ कर रहे हैं, इन्हें तो जोड़-तोड़ के सिवा और कुछ ज्यादा आता भी नहीं !

आलोचक साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष का लेखक के मुकाबले अधिक विशेषज्ञ होता है I इतालवी लेखक उम्बेर्तो एको ने लिखा है कि आलोचक गण जिस गोष्ठी में किसी लेखक और उसके कृतित्व की चर्चा करते हैं, उसमें लेखक को भी बुलाना ठीक वैसा ही होता है जैसे कार्डियोलोजिस्ट्स के कांफ्रेंस में दिल के किसी मरीज़ को बुला लिया जाये I इस बात से आलोचक के काम की गंभीरता का पता चलता है I पर हिन्दी जगत का परिदृश्य ऐसा नहीं होता Iयहाँ तो अक्सर लेखक ही चाय-नमकीन (और बाद में ख़ास लोगों के लिए रसरंजन) पर अपनी रचना पर चर्चा के लिए गोष्ठी आयोजित कराता है, जिसमें प्रसन्न महामहिम आलोचक-गण उसपर कुछ प्रशंसा-पुष्प की वर्षा कर देते हैं I अगर जो कहीं लेखक ही कोई महामहिम हुआ ( जैसे किसी विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर, या कोई उच्चपदस्थ नौकरशाह ) तो आलोचक गण दांत निपोड़े उपकृत की भूमिका में होते हैं I दृश्य कुछ उस नाई की दूकान जैसा होता है, जिसमें एक नाई मालदार ग्राहक की दाढ़ी बनाता रहता है, दूसरा चम्पी करता रहता है और तीसरा उसके पैर के नाखून काटता रहता है I

आज के सड़ते-बजबजाते पूँजीवादी सांस्कृतिक परिवेश और नवउदारवाद के दौर में निम्न-बुर्जुआ वर्ग का, और विशेषकर बुद्धिजीवियों का जो पतन हुआ है, उसका प्रातिनिधिक प्रहसनात्मक दृश्य हमें साहित्यिक गोष्ठियों में देखने को मिलता है !

(16 जनवरी, 2019)

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