Sunday, December 02, 2018

शीर्षकहीन कविता


उस मॉल के बीचोबीच जो एक विशाल हॉल था

उसके बीचोबीच खड़े होकर

मैंने चीखकर कहा," सुनो लोगो, मेरी स्मृतियाँ, छायाएँ, सपने और मंसूबे

न बिकने के लिए हैं, न शोकेसों में सजने के लिए हैं !"

फिर कई लोग मुझे किनारे ले जाकर कहते रहे,

"कभी इरादा बदल जाये तो बताना !"

वे खरीद-फरोख्त के अनुभवी लोग थे

बाज़ार की रग-रग से वाक़िफ़ !

बाज़ार की रग-रग से वाक़िफ़ लोग ख़ुद को

इंसान की रग-रग से भी वाक़िफ़ समझते हैं

पर हमेशा नहीं तो कम से कम कई बार वे

ग़लत भी साबित होते हैं !

(26नवम्‍बर,2018)

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