Saturday, September 08, 2018

उन्माद और बर्बरता...


उन्माद और बर्बरता का सड़कों पर श्मशानी नग्न-नृत्य जारी है। फिलहाल बिहार इस मामले में सबसे आगे चल रहा है जहाँ फासिस्टों की गोद में बैठे पतित समाजवादी सत्ता का लालीपॉप चूस रहे हैं। अभी परसों बिहिया में भीड़ ने एक स्त्री को नंगा करके सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उसके एक दिन पहले मोतीहारी में एक प्राध्यापक को अटल-विरोधी पोस्ट लिखने पर भीड़ ने बुरीतरह पीटा और सरेआम उसके कपडे फाड़ दिए। आज की खबर है कि नालंदा में रेप का विरोध करने पर दबंगों ने एक महिला को ज़िंदा जला दिया।
गत एक माह के भीतर लिन्चिंग की दर्ज़नों घटनाएँ घट चुकी हैं। राँची में ह्त्या के अभियुक्तों का जमानत पर छूटने के बाद केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने उनका स्वागत किया था। तबसे गो-गुंडों और हत्यारों की भीड़ के पक्ष में केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के अतिरिक्त भाजपा-शासित राज्यों के कई मंत्रियों के बयान आ चुके हैं।
दलित-उत्पीड़न के विगत सारे रिकार्ड पिछले 3-4 वर्षों के दौरान ध्वस्त हो गए हैं।
मुजफ्फरपुर, हरदोई और देवरिया के महिला संरक्षण गृह की संवासिनियों के यौन-उत्पीड़न के जघन्य कांडों के पर्दाफ़ाश के बाद पता चला कि सोशल ऑडिट करने वाली टीम ने बिहार के अधिकांश महिला संरक्षण गृहों के बारे में ऐसी आशंकाएँ जाहिर की थी। उ.प्र, के भी कई ऐसे केन्द्रों से गंभीर अनियमितता की शिकायतें मिलीं। ऐसे लगभग सभी मामलों में राजनीतिक संलिप्तता के आरोप थे। इसलिए अब मीडिया में 'टोटल ब्लैकआउट' करके लीपापोती की मुहिम जारी है I सी.बी,आई. और सभी सरकारी जांच एजेंसियाँ इसमें तत्परता से लगी हुई हैं।
एक समय था जब उत्तराखंड में स्त्री-विरोधी अपराधों की संख्या नगण्य हुआ करती थी। अब माहौल पूरीतरह से बदल चुका है। उत्तरकाशी में बलात्कार और हत्या के बाद अब ऐसी ही एक घटना पिथौरागढ़ में भारत-नेपाल सीमा के एक गाँव में घटी है।
फ़र्जी मुठभेड़ों और हिरासत में मौतों के लिए भारतीय पुलिस सदा से कुख्यात रही है। जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने काफी पहले भारतीय पुलिस को यदि 'गुंडों का सर्वाधिक संगठित गिरोह' कहा था तो यूँ ही नहीं कहा था ! लेकिन उ.प्र. की योगी सरकार ने फ़र्जी मुठभेड़ों के पिछले सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं। पिछले एक वर्ष के भीतर लखनऊ की सड़कों पर अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन करने वालों को बार-बार बर्बरतापूर्वक घसीट-घसीटकर पीटा गया है। आलम यह है कि हज़रतगंज में गाँधी मूर्ति के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले बुद्धिजीवियों को भी पुलिस धमकाती है, नारे नहीं लगाने देती, अपशब्दों का प्रयोग करती है और जल्दी से जल्दी बिखर जाने के लिए चेतावनी देती है। इधर उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार भी आतंक-राज का माहौल बनाने में योगी सरकार से प्रतिस्पर्धा कर रही है। इसके हमलोग प्रत्यक्ष भुक्तभोगी तब हुए जब हरिद्वार के मज़दूरों में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने और लागू करने जैसी माँगों को लेकर चलाये जा रहे माँगपत्रक आन्दोलन के दौरान कार्यकर्ताओं और मज़दूरों की टोली के साथ संघी गुंडों ने मारपीट की और फिर उनके बुलाने पर आयी पुलिस ने मज़दूर कार्यकर्ताओं को ही अशांति फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। पुलिस और प्रशासन सीधे-सीधे भारतीय जनता युवा मोर्चे के स्थानीय नेताओं के दबाव में काम कर रहे थे और हमलोगों को लगातार यह धमकी दी जा रही थी कि नक्सली होने का आरोप लगाकर जल्दी ही हमें लम्बे समय के लिए भीतर कर दिया जाएगा। जब मैं हल्द्वानी पुस्तक मेले में थी तो एक "साहित्य-प्रेमी" पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा, "आपके एकदम सर पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं !"
निरंकुश दमनकारी राज्यसत्ता और सड़कों पर उमड़ती उन्मादी हिंसक भीड़ अपना हक़ माँगते मेहनतकशों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और जनवाद एवं तर्कणा के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों को लगातार निशाना बना रही हैं और यह हमला लगातार अधिक सघन और खूँख्वार होता जा रहा है। जनवादी अधिकार की आवाज़ उठाने वाली शक्तियाँ पिछले दो दशकों के दौरान पहले की अपेक्षा भी अधिक कमजोर हुई हैं! बुर्जुआ पार्टियाँ संघी फासिज्म के विरुद्ध सड़कों पर उतरने में अक्षम हैं। संसदीय वामपंथी भी जुझारू संघर्ष की इच्छाशक्ति और कूव्वत खो चुके हैं। प्रगतिशील नामधारी बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा नीचतापूर्ण कैरियरवाद, सुविधाओं और सत्ताधारियों की चरण-चम्पी की प्रतिस्पर्द्धा में चरम बेशर्मी के साथ मशगूल है। इतनी गंदी-घिनौनी कायरता का आलम है कि पूछिए मत! चिकने घड़ों को तो मार्टिन निमोलर की कविता सुनाइये तब भी उनकी आत्मा में कुछ सुगबुगाहट होती नहीं दीखती। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक कविता की पंक्तियों का आशय यह है कि जब ह्त्या और आतंक लगातार बारिश की तरह बरसने लगते हैं तो लोग धीरे-धीरे उसके आदी होने लगते हैं।
लेकिन तय है कि यही स्थिति हमेशा नहीं बनी रहेगी। हमारा समाज निश्चय ही इस अंधी सुरंग से बाहर आएगा। लोहे की दीवारों के पीछे गहरी नींद सो रहे लोगों में से कुछ गहरी घुटन महसूस करेंगे और जागेंगे, और फिर, वे दूसरों को झकझोर-झकझोरकर जगायेंगे। जागरूक-जुझारू बुद्धिजीवियों की नयी पाँत सामने आयेगी जो अपने देश के मेहनतक़शों से अपने-आपको जोड़ेगी। दुनिया की कोई भी दमनकारी सत्ता अप्रतिरोध्य नहीं होती। फासिस्ट तभीतक अपराजेय लगते हैं, जबतक जनसमुदाय बिखरा होता है, निश्चेष्ट पड़ा होता है ! जैसे ही परिवर्तन की वाहक, इतिहास की नयी शक्तियाँ गतिमान होती हैं, जड़ता टूटने लगती है और क्षितिज पर उम्मीद की नयी रोशनी नज़र आने लगती है!
लेकिन महज इतना कहकर निश्चिन्त हो जाना भी थोथा, अकर्मक आशावाद होगा। निश्चय ही हमें ठोस कार्रवाइयों में उतरना होगा। हमें तृणमूल स्तर से व्यापक मेहनतकश जनता का जुझारू प्रगतिशील आन्दोलन संगठित करना होगा और उससे मध्यवर्ग के प्रगतिशील हिस्सों -- विशेषकर युवाओं को जोड़ना होगा। फासिज्म वित्तीय पूँजी के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइंदगी करता है और संकट के समय पूरा बुर्जुआ वर्ग इसे अपना शरण्य बनाता है, पर इसकी ताक़त मुख्यतः इस बात में निहित होती है कि यह निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक रूमानी उभार होता है, तृणमूल स्तर से संगठित निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है।
काम बहुत पड़े हैं भाई! अपने समय की नब्ज़ पर हाथ रखिये ! टुच्ची उखाड़-पछाड़, कायरतापूर्ण जन-विमुखता, कैरियरवाद की कुत्ता-दौड़, पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार के भेड़िया-धसान, शूकरी सुविधाभोगी वृत्ति और रंगे सियारों जैसे दोहरेपन को छोड़कर जो बुद्धिजीवी धारा के विरुद्ध खड़े होंगे और संघर्ष की राह चुनेंगे, इतिहास उन्हें सही साबित करेगा!
(22अगस्‍त,2018)

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