Sunday, September 23, 2018

आत्मकथ्य

आत्मकथ्य







पीछे छूटती रही मैं लगातार
और किसी ने नहीं कहा मुझसे
कि इसका कोई मायने नहीं,
इसमें कोई शर्म नहीं ।
पराजय के लहूलुहान अहसास से
मुक्ति की किसी ने नहीं दी शिक्षा,
किसी ने नहीं बताया
पराजितों और पीछे छूट गए लोगों की
गरिमा और मौलिकता के बारे में ।
यह सब बताया मुझे ज़िन्दगी ने ।
जीने की तरक़ीब मैंने खुद ईज़ाद की ।
सपने देखने का शिल्प मैंने खुद से सीखा ।
खुद ही मैंने जाना
असफलता के सम्मान के बारे में,
भीड़ के पीछे न चलने का
फैसला मैंने खुद लिया ।
हाँ, मगर दुःख में हँसना मैं न सीख पायी ।
दुःख में मैं अकेली होती हूँ
अपने साथ,
कुछ लिखती हूँ सिर्फ़ अपने लिए
और हाँ,
आँसू मेरे लिए तब शर्म की बात होते हैं,
अगर वे किसी निजी दुःख से उपजे हों ।
अब भी मैं उन्हें छुपाती हूँ ।
सीखा है मैंने बस खुद से
और ज़िन्दगी से
और किताबों से
और चन्द यात्राओं और सरायों में मिले राहियों से
और उन्हें मैं याद करती हूँ
और सलाम करती हूँ
हर रोज़ ।

(5सितम्‍बर,2018)
**
(अपने पुत्र के शिक्षक के नाम अब्राहम लिंकन के पत्र से प्रेरित )


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