Sunday, August 05, 2018

हमारा समाज...


हमारा समाज अन्दर से इतना सड़ चुका है, इतना सड़ चुका है कि कोई छोटे-मोटे सामाजिक आन्दोलन इसे व्याधि-मुक्त कर ही नहीं सकते I फासिज्म का बर्बर-असभ्य उभार तो इसका एक आयाम है ! पूरा समाज तरह-तरह की निरंकुश मानवद्रोही प्रवृत्तियों की नर्सरी बन चुका है I 200 वर्षों की गुलामी के बाद जन्मना रुग्ण-विकलांग भारतीय पूँजीवाद ने समाज को केवल पूँजीवादी बुराइयाँ दीं, क्योंकि इसके पास पूँजीवाद का कुछ ऐतिहासिक सकारात्मक था ही नहीं I यह पूँजीवाद जब अति-वित्तीयकरण और व्यवस्थागत संकट की मंजिल तक पहुँचा तो देश फासिस्ट काली आँधी की गिरफ्त में आ गया I ये फासिस्ट यदि सत्ता में नहीं रहेंगे तब भी फासिस्ट उत्पात जारी रहेगा जैसेकि 1990 से जारी है I इसलिए सवाल भा.ज.पा. को चुनाव में हराने का नहीं, बल्कि तृणमूल स्तर से मेहनतकशों और प्रगतिशील मध्यवर्गीय युवाओं को संगठित करके एक रैडिकल सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने का है I फासिज्म तृणमूल स्तर से संगठित निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है I उसे केवल इसीतरह से धूल में मिलाया जा सकता है I
यह सपना छोड़ दीजिये कि 2019 में मोदी हार जायेगा और भारत में किसी कल्पित आदर्श बुर्जुआ जनवाद की स्थापना हो जायेगी I पहली बात, फासिस्टों का उत्पात जारी रहेगा I दूसरी बात, यह मत भूलिए कि कांग्रेस ने ही उन नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत की थी, जिन्हें लागू करने की गति और तर्क को भा.ज.पा. ने चरम तक पहुँचाया I उन सामाजिक जनवादियों की मति निराशा, कायरता और संसदीय जड़-वामनता के चलते मारी गयी है जो बस यहीं तक सोच पते हैं कि कांग्रेस, संसदीय वाम दल और बुर्जुआ क्षेत्रीय दल मिलकर भा.ज.पा. को हरा देंगे और फासिज्म का संकट दूर हो जायेगा I याद रखिये, नव-उदारवादी नीतियों पर अमल हर हाल में एक निरंकुश राज्य-सत्ता की मांग करता है और यही कारण है कि आज पूरी दुनिया में बुर्जुआ जनवादी स्पेस सिकुड़ता जा रहा है तथा बुर्जुआ जनवाद और निरंकुश राज्यसत्ता के बीच की विभाजक रेखा धूमिल पड़ती जा रही है I बात केवल फासिज्म की नहीं है I बुर्जुआ जनवाद और फासिज्म के बीच बुर्जुआ राज्य के कई आपवादिक रूप भी होते हैं, जैसेकि बोनापार्तिज्म, जैसे नव-उपनिवेशवाद के दौर में लातिन अमेरिका की मिलिट्री जुंटाओं की सत्ताएँ, आदि-आदि ... Iभारत में आपातकाल का दौर भी एक आपवादिक बुर्जुआ राज्यसत्ता का दौर था I कांग्रेस एक फासिस्ट पार्टी या आन्दोलन नहीं है, लेकिन उसने राजनीतिक-संवैधानिक संकट के दबाव में 1975-77 के बीच एक बर्बर निरंकुश राज्यसत्ता का संचालन किया था I
भारत के वाम बौद्धिकों और संसदीय जड़-वामनों ने समाजवाद की परियोजना को मन ही मन असंभव मान लिया है और उसके बारे में सोचना ही छोड़ दिया है I एक बुर्जुआ जनवाद के आदर्शीकृत यूटोपिया से आगे वे सोच ही नहीं पाते I वे सिर्फ छोट-छोटे बदलावों की पैबंदसाज़ी करने तक ही सोच पाते हैं ! लेकिन, जैसाकि ब्रेष्ट ने कहा था, छोटे बदलाव बड़े बदलावों के दुश्मन होते हैं ! और जर्मन महाकवि गोएठे ने भी यूँ ही तो नहीं कहा था कि 'छोटे सपने मत देखो क्‍योंकि उनमें लोगों के दिलों को झकझोरने की ताक़त नहीं होती।'
ब्रेष्ट की ये पंक्तियाँ भी इस व्यवस्था की चौहद्दी को अपनी और समूची जनता की नियति मान चुके वाम "शरीफजादों" को शायद बहुत कड़वी लगें :
"जो कमज़ोर होते हैं वे लड़ते नहीं ।
जो उनसे अधिक मज़बूत होते हैं
वे लड़ सकते हैं घंटे भर के लिए ।
जो और अधिक मज़बूत होते हैं , वे फिर भी
लड़ सकते हैं कई वर्षों तक ।
सबसे अधिक मज़बूत लोग लड़ते हैं
अपनी पूरी ज़िंदगी ।
वही हैं जो अपरिहार्य होते हैं ।"
इन लिबरल लोगों के बारे में लेनिन कहते हैं :" लिबरल लोग संघर्ष की पैरवी कर ही नहीं सकते क्योंकि वे संघर्ष से डरते हैं. प्रतिक्रिया के तीव्र होने पर वे संविधान का रोना रोने लगते हैं, और इसप्रकार अपने तीव्र अवसरवाद से वे लोगों का दिमाग भ्रष्ट करने का काम करते हैं. ...जब किसी लिबरल को गाली दी जाती है तो वह कहता है कि शुक्र है कि उन्होंने उसे पीटा नहीं, जब उसकी पिटाई होती है तो वह खुदा का शुक्रिया अदा करता है कि उन्होंने उसकी जान नहीं ली. अगर उसकी जान चली जाए तो वह ईश्वर को धन्यवाद देगा कि उसकी अनश्वर आत्मा को उसके नश्वर शरीर से मुक्ति मिल गयी."
लिबरल बुद्धिजीवी वे लोग होते हैं जो जीत के दिनों में अति-उत्साही और पराजय के दिनों में अति- दुनियादार "व्यावहारिक" हो जाते हैं I मार्क्स की बेटी और यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन की नेता एलीनोर मार्क्स ने पेरिस कम्यून के 21 वर्षों बाद कम्यूनार्डोंको याद करते हुए कहा था,"वीरोचित ढंग से लड़ना बड़ी बात है ... लेकिन कितने ऐसे लोग हैं जो एक दिन के लिए नहीं,एक घंटे के लिए नहीं, बल्कि वर्षों की लम्बी, थकाऊ अवधि के दौरान, हर दिन वीरोचित बने रहेंगे ?"
(31जुलाई,2018)

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