Sunday, August 05, 2018

प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार और गणितज्ञ डी.डी.कोसम्बी केे111वाँ जन्मदिवस के अवसर पर !

मार्क्सवाद के कुछ विरोधी इसे 19वीं सदी के पूर्वाग्रहों पर आधारित एक पुराना पड़ चुका आर्थिक जड़सूत्र कहकर खारिज करते हैं। मार्क्सवाद कभी भी जड़सूत्र नहीं था। महज़ 19वीं सदी में सूत्रबद्ध किये जाने के कारण यह पुराना पड़ चुका और गलत नहीं हो जाता, ठीक वैसे ही जैसे गौस, फैराडे और डार्विन की खोजें, जो अब विज्ञान का हिस्सा बन चुकी हैं। तार्किकता का तकाज़ा है कि जो लोग इसके 19वीं सदी के पुरानेपन पर नाकभौं चढ़ाते हैं उन्हें मिल, बर्क और हरबर्ट स्पेंसर को अपने पक्ष में उद्धृत नहीं करना चाहिए, और न ही इससे भी कहीं ज़्यादा पुरानी और निश्चित तौर पर ज़्यादा कालातीत हो चुकी भगवद् गीता में आस्था रखनी चाहिए। आम तौर पर इसके बचाव में कहा जाता है कि गीता और उपनिषद भारतीय हैं; जबकि मार्क्सवाद जैसे विदेशी विचार आपत्तिजनक हैं। आम तौर पर ऐसे तर्क अंग्रेज़ी में, यानी शिक्षित भारतीयों के बीच प्रचलित विदेशी भाषा में, और ऐसे लोगों द्वारा दिये जाते हैं जो विदेशियों द्वारा भारत में ज़बर्दस्ती लागू की गयी उत्पादन प्रणाली (बुर्जुआ प्रणाली) के तहत जीते हैं। इसलिए आपत्ति विदेशी मूल से उतनी नहीं लगती जितनी स्वयं उन विचारों के प्रति लगती है जिनसे वर्गीय विशेषाधिकार खतरे में पड़ सकते हैं। कहा जाता है कि मार्क्सवाद हिंसा पर, वर्ग-युद्ध पर आधारित है जिसमें आजकल श्रेष्ठ जन विश्वास नहीं करते हैं। वैसे वे यह घोषणा भी कर सकते हैं कि मौसमविज्ञान तूफानों की भविष्यवाणी करके उन्हें प्रोत्साहन देता है। मार्क्सवाद की किसी भी कृति में युद्ध के लिए उकसावा और बेवजह हत्याओं के पक्ष में शब्दाम्बरपूर्ण तर्क ऐसे नहीं हैं जिनकी दिव्य गीता में ऐसी बातों से रत्तीभर भी तुलना की जा सकती हो।

— दामोदर धर्मानन्‍द कोसम्‍बी
‘‘एग्ज़ैसपरेटिंग एसेस’’ की भूमिका से (1957)

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