Tuesday, May 08, 2018

गुमनाम औरत की डायरी के कुछ और इंदराज




( एक गुमनाम स्त्री की जो डायरी मुझे पिछले साल दिल्ली मेट्रो में मिली थी, उसके कुछ और पन्ने आपके सामने प्रस्तुत हैं )



हमारे समय में प्यार एक जादुई यथार्थवाद है |


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कितनी रातों की हवाओं में उसके आँसुओं की नमी भरती रही | खिड़कियों से बाहर रिसकर आती उसकी सिसकियों ने कितने हरे पत्तों के ह्रदय विदीर्ण किये | तब कहीं जाकर वह एक बेरहम, दुनियादार, गावदी, कर्तव्यनिष्ठ स्त्री बन सकी |


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एक स्वप्नहीन समय में भी कुछ लोग स्वप्न देखते पाये गये | उन्हें दूर किसी दंडद्वीप पर निर्वासित कर दिया गया | वहाँ से रोज़ वे लोग अपने सपनों को डोंगियों में रखकर अपने देश की दिशा में तैराते रहे | कुछ सपने रास्ते में तूफ़ानों के शिकार होते रहे | पर जो गंतव्य तक पहुँचते रहे, वे ख़तरनाक ढंग से पूरे देश में फैलते रहे |


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जोखिम से बचने वाले लोगों ने सपने देखना तो दूर, उनके बारे में सोचना तक छोड़ दिया | वे तमाम सुख-संतोष-आनंद देने वाली चीज़ों, प्रतिष्ठा, ख्याति आदि के बीच जीते रहे | उनके पास खोने के लिए बहुत सारी चीज़ें थीं, पर पाने को कुछ भी नहीं था क्योंकि वे अपने सपने काफ़ी पहले खो चुके थे, और धीरे-धीरे मनुष्यता भी |


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प्यार

मैं सागर-तट पर, लहरों के एकदम निकट, ताड़-वृक्ष के खोखल से एक डोंगी बनाती हूँ, उसके मुँह पर एक कड़ी ठोंकती हूँ, उसमें रस्सी बाँधती हूँ और फिर डोंगी को खींचकर लहरों से दूर ले जाती हूँ | डोंगी रेत पर गहरा निशान छोड़ जाती है | फिर मैं पूरनमासी तक इंतज़ार करती हूँ | तब समुद्र चिग्घाड़ता हुआ आता है और रेत पर डोंगी के बनाए रास्ते से होकर उसके पास आ जाता है | फिर आश्चर्यजनक तरीके से वह अपने सीमांतों को आगे बढ़ाकर वहीं रह जाता है | अगली अमावस को मैं फिर डोंगी को रेत पर खींचकर पीछे ले जाती हूँ | फिर पूरनमासी को समुद्र डोंगी की बनाई राह से उसतक आ पहुँचता है | इसतरह यह सिलसिला चलता रहता है | इसतरह समुद्र एकदिन पास के जंगल तक पहुँच जायेगा, पेड़ों और लताओं की जड़ों तक | उस दिन मैं अपनी डोंगी लेकर समुद्र में निकल पडूँगी और अपनी मृत्यु की ओर बढ़ती चली जाऊँगी |

(9 अप्रैल,2018)

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