Friday, May 18, 2018

अपने-अपने मार्क्स




मार्क्स की 200वीं वर्षगाँठ के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपंथियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं I इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं I इनमें से कोई मार्क्स को मानवता के इतिहास के महानतम दार्शनिकों में शुमार करता है, कोई महान मानवतावादी के रूप में उनकी प्रशंसा करता है, कोई पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली का सर्वश्रेष्ठ विश्लेषण करने वाला महान अर्थशास्त्री बताता है और कोई वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को प्रस्तुत करने वाला महान चिन्तक बताता है I ये सभी लोग जिस बात की अनदेखी करते हैं, या जिसपर ज़ोर नहीं देते; वह वो बात है जो कार्ल मार्क्स की समाधि पर दिए गए अपने भाषण में उनके अनन्य मित्र, सह-चिन्तक और सह-योद्धा फ्रेडरिक एंगेल्स ने कही थी,"मार्क्‍स सर्वोपरि तौर पर एक क्रान्तिकारी थे। जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को मुक्‍त करने में योग देना था, जिसे सबसे पहले उन्होंने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उसकी मुक्ति हो सकती है। संघर्ष करना उनका सहज गुण था। और उन्होंने ऐसे जोश, ऐसी लगन और सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका कोई मुक़ाबला नहीं है।"

जाहिर है कि मार्क्स दुनिया के ज्ञात इतिहास को प्रभावित करने वाले सबसे बड़े दार्शनिक थे, पर वे ऐसा इसलिए थे क्योंकि उनके लिए दर्शन की एकमात्र सार्थकता दुनिया को बदलने और उसे न्यायपूर्ण बनाने में थी I अपने विचार और कर्म की यात्रा की शुरुआत में ही उन्होंने कहा था,"दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, लेकिन सवाल उसको बदलने का है I" इसीलिये एंगेल्स ने कहा था, और माओ ने भी इस बात को दुहराया था कि 'मार्क्सवाद कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धांत है, कोई कठमुल्ला-सूत्र नहीं I'

मार्क्स बेशक एक महान मानवतावादी थे, क्योंकि वे रिनेसां के महान विचारकों के वारिस थे ! वे वास्तविक अर्थों में, प्रबोधनकालीन दार्शनिकों द्वारा निरूपित अर्थों में,एक जनवादी थे I पर वे मात्र इतना ही नहीं थे I वे काल्पनिक समाजवादियों से आगे बढकर समाजवाद का वैज्ञानिक सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति थे I इन अर्थो में वे न केवल मानवतावाद और जनवाद के शिखर थे, बल्कि उसे आगे समाजवाद तक विस्तारित करने वाले व्यक्ति थे I मार्क्स केवल समाजवाद का सिद्धांत ही प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने यह भी बताया कि समाजवाद की राज्यसत्ता का स्वरूप केवल और केवल सर्वहारा अधिनायकत्व का ही हो सकता है और पेरिस कम्यून का समाहार करते हुए उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सर्वहारा वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर क़ब्ज़ा करके समाजवाद का अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता, बल्कि बुर्जुआ राज्य-मशीनरी का बलात ध्वंस करके अपनी नयी राज्य-मशीनरी का निर्माण उसके लिए अपरिहार्य होगा I उनके इसी चिंतन के सूत्र को लेनिन ने, विशेषकर अपनी 'राज्य और क्रांति' पुस्तक में आगे विस्तार दिया, पर कुछ अटकलपच्चू "ज्ञानी" और शरारती बुर्जुआ अकादमीशियन और कूपमंडूक समाजवादी अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि क्रांति की लेनिनवादी अवधारणा मार्क्स के चिंतन का विरूपण या विकृतीकरण है I इसीतरह ऐसे मूर्ख या शरारती लोग यह भी कहते हैं कि पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा मार्क्स की सोच के विपरीत है, जबकि राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के लिए सर्वहारा वर्ग के अगुवा दस्तों के जुझारू संगठन पर मार्क्स और एंगेल्स ने हमेशा बल दिया था और जीवनपर्यंत सर्वहारा वर्ग को इसी लाइन पर संगठित करने की कोशिश की थी I लेनिन ने सर्वहारा की हरावल पार्टी की संरचना और कार्यप्रणाली का निरूपण करते हुए मार्क्स और एंगेल्स की सोच को ही आगे विकसित किया था I

मार्क्स बेशक आधुनिक युग के महानतम अर्थशास्त्री थे, पर पूँजीवादी उत्पादन-संबंधों के हर पहलू को रेशा-रेशा खोलकर समझने की उनकी कोशिश का एकमात्र उद्देश्य यह था कि उन उत्पादन-संबंधों का ध्वंस करके नए, समाजवादी उत्पादन-संबंधों का निर्माण किया जाये और यह काम उन्हें सांगोपांग समझे बिना नहीं किया जा सकता था I

'शांतिपूर्ण संक्रमण' और संसदीय मार्ग के सिद्धान्त का काउत्स्कीपंथी-ख्रुश्चेवपन्थी फटा लाल गमछा लपेटकर चुनावी गटरगंगा में डुबकी मारकर बुर्जुआ संसद के "पवित्र मंदिर" में घुसकर सत्ता की देवी की कापालिक साधना करने वाले संसदीय वामपंथी जड़वामन क्रांति के बारे में मार्क्स की स्थापनाओं की चर्चा नहीं करते I बुर्जुआ मानवतावादी मार्क्स की एक विकृत-भोंडी मूर्ति बनाकर उन्हें अपने आराध्यों में शुमार कर लेना चाहते हैं I सोशल डेमोक्रेट्स और बुर्जुआ लिबरल्स मार्क्स को एक सोशल डेमोक्रेट या बुर्जुआ लिबरल बना देना चाहते हैं तथा अकादमीशियन मार्क्स को एक महान चिन्तक बुद्धिजीवी के रूप में चित्रित करने की कोशिश करते हैं I बात ठीक भी है I अगर कौव्वा किसी ईश्वर की कल्पना करता होगा तो कौव्वा के रूप में ही करता होगा और सूअर के ज़ेहन में अपने ईश्वर की छवि एक सूअर की ही बनती होगी I

लेनिन ने एक बार कहा था कि अधिकांश क्रांतिकारियों की मृत्यु के बाद शासक वर्ग और उसके बौद्धिक चाकर उनके सिद्धांतों को तोड़-मरोड़कर दन्त-नखहीन बना देते हैं और फिर उन क्रांतिकारियों को अपना मसीहा घोषित कर देते हैं I

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