ग्राम्शी ने कहा था : मनुष्य प्रकृति की नहीं,इतिहास की उपज है | बात बिलकुल ठीक है | हम प्राकृतिक जीव होने से दसियों हज़ार साल आगे निकल आए हैं | एक सामाजिक प्राणी के रूप में हमारी नियति समाज के साथ जुड़ी हुई है | लेकिन अलगावग्रस्त आत्मकेंद्रित मानस आज भी सामाजिकता से विमुख होकर केवल अपने बारे में और अपने स्वजनों के बारे में सोचता है | एक प्राकृतिक जीव की तरह वह आत्मरक्षा , संतानोत्पत्ति और वंशबेलि को आगे बढ़ाने को ही परमलक्ष्य की प्राप्ति मानता है | बुर्जुआ समाज के पढे- लिखे नागरिक भी एक प्राकृतिक जीव की तरह अपने जैविक पुनरुत्पादन के फलितार्थ को लेकर चिंतित रहते हैं | एक स्वस्थ सामाजिक प्राणी के रूप में हमारी सर्वोपरि चिंता सामाजिक सृजनशीलता को लेकर होनी चाहिए, न कि जैविक सृजनशीलता को लेकर | जीवन-संघर्ष के तमाम दुखों-कष्टों से हम सामाजिक-आत्मिक सृजन की ऊर्जा जुटते हैं और पुनर्नवा होते रहते हैं | कालिदास की इस उक्ति को इसी भांति नया अर्थ देना होता है --' क्लेशः फलेन हि पुनर्नवता विद्यते |' यह अमरत्व-प्राप्ति की भी नयी प्रविधि है : वंशबेलि को आगे बढ़ाने की जगह समूची आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचना, उसके लिए कुछ करना और उसे एक बेहतर दुनिया सौंप जाने की कोशिश करना !
Pages
- मुखपृष्ठ
- डायरी के नोट्स : जो सोचती हूं उनमें से कुछ ही कहने की हिम्मत है और क्षमता भी
- कला-दीर्घा
- कन्सर्ट
- मेरी कविताई: जीवन की धुनाई, विचारों की कताई, सपनों की बुनाई
- मेरे प्रिय उद्धरण और कृति-अंश : कुतुबनुमा से दिशा दिखाते, राह बताते शब्द
- मेरी प्रिय कविताएं: क्षितिज पर जलती मशालें दण्डद्वीप से दिखती हुई
- देश-काल-समाज: वाद-विवाद-संवाद
- विविधा: इधर-उधर से कुछ ज़़रूरी सामग्री
- जीवनदृष्टि-इतिहासबोध
Tuesday, March 13, 2018
ग्राम्शी ने कहा था : मनुष्य प्रकृति की नहीं......
ग्राम्शी ने कहा था : मनुष्य प्रकृति की नहीं,इतिहास की उपज है | बात बिलकुल ठीक है | हम प्राकृतिक जीव होने से दसियों हज़ार साल आगे निकल आए हैं | एक सामाजिक प्राणी के रूप में हमारी नियति समाज के साथ जुड़ी हुई है | लेकिन अलगावग्रस्त आत्मकेंद्रित मानस आज भी सामाजिकता से विमुख होकर केवल अपने बारे में और अपने स्वजनों के बारे में सोचता है | एक प्राकृतिक जीव की तरह वह आत्मरक्षा , संतानोत्पत्ति और वंशबेलि को आगे बढ़ाने को ही परमलक्ष्य की प्राप्ति मानता है | बुर्जुआ समाज के पढे- लिखे नागरिक भी एक प्राकृतिक जीव की तरह अपने जैविक पुनरुत्पादन के फलितार्थ को लेकर चिंतित रहते हैं | एक स्वस्थ सामाजिक प्राणी के रूप में हमारी सर्वोपरि चिंता सामाजिक सृजनशीलता को लेकर होनी चाहिए, न कि जैविक सृजनशीलता को लेकर | जीवन-संघर्ष के तमाम दुखों-कष्टों से हम सामाजिक-आत्मिक सृजन की ऊर्जा जुटते हैं और पुनर्नवा होते रहते हैं | कालिदास की इस उक्ति को इसी भांति नया अर्थ देना होता है --' क्लेशः फलेन हि पुनर्नवता विद्यते |' यह अमरत्व-प्राप्ति की भी नयी प्रविधि है : वंशबेलि को आगे बढ़ाने की जगह समूची आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचना, उसके लिए कुछ करना और उसे एक बेहतर दुनिया सौंप जाने की कोशिश करना !
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment