Tuesday, March 13, 2018

त्रिपुरा विधानसभा चुनावों के नतीज़ों पर कुछ बातें




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त्रिपुरा विधान सभा चुनावों के नतीज़ों को लेकर खासकर वे लोग बहुत सदमे में हैं, जिन्हें संसदीय वाम से अभी भी काफी उम्मीदें हैं और जो लगातार यह दिवास्वप्न देखते रहते हैं कि संसदीय वाम की पार्टियां अब चेत जायेंगी, वे अपनी शीतनिद्रा से जाग जायेंगी और या तो स्वयं एकजुट होकर, या कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर, या गैरकांग्रेसी बुर्जुआ दलों के साथ मोर्चा बनाकर हिन्दुत्ववादी फासिज्म की मोदी लहर को, कम से कम 2019 के लोकसभा चुनावों तक तो पीछे धकेल ही देंगी I
त्रिपुरा के चुनावी नतीज़ों के ठोस विश्लेषण से पहले, ऐसे तमाम लोगों से हम बार-बार कही गयी यह बात फिर से कहना चाहेंगे कि फासिज़्म की वैचारिकी, उसके आर्थिक आधार, उसके उदभव और प्रभुत्व के कारणों तथा इटली और जर्मनी में फासिस्ट दौर के इतिहास के बारे में प्रचुर मार्क्सवादी साहित्य मौजूद है, उन्हें उसका अध्ययन करना चाहिए I फासिज़्म की लहर को संसदीय चुनावों में हराकर पीछे नहीं धकेला जा सकता I सत्ता में न होते हुए भी यह अपना कहर जारी रखेगा, यह भारत में भी देखा जा चुका है I फासिज्म सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी वित्तीय पूँजी का प्रतिनिधि और पूंजीवाद के संकट का पूंजीवादी विमोचक होता है और उसकी बुनियादी चारित्रिक विशिष्टता यह होती है कि वह निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है जिसे तृणमूल स्तर से एक कैडर-आधारित ढांचे वाला फासिस्ट संगठन संगठित करता है I तृणमूल स्तर से, मज़दूर वर्ग, सभी मेहनतक़श वर्गों और मध्य वर्ग के प्रगतिशील हिस्सों का एक रैडिकल सामाजिक आन्दोलन खडा करके ही, और मज़दूरों की जुझारू लामबंदी के द्वारा ही इसे शिकस्त दिया जा सकता है I दूसरी बात, बीसवीं शताब्दी के मुकाबले आज की भिन्नता यह है कि नवउदारवाद और पूंजीवाद के व्यवस्थागत संकट के इस दौर में फासिज़्म-विरोधी मोर्चे में बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा, यानी बुर्जुआ वर्ग की कोई भी पार्टी भागीदार नहीं बनेगी I भारत के संसदीय वाम का मूलतः वही ऐतिहासिक अपराध है जो 1920 और 1930 के दशकों में यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों ने किया था I पिछले छः-सात दशकों से ये पार्टियां संसदीय चुनावों का टैक्टिकल इस्तेमाल करने की जगह संसदीय राजनीति में डूबी रही हैं, मात्र आर्थिक लडाइयां लड़ते हुए मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक संघर्षों को पूरी तरह छोड़ चुकी हैं, तथा, तृणमूल स्तर से विभिन्न जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा करके आम जनता की वर्ग चेतना और वर्गीय एकजुटता को उन्नत करना तो इनके एजेंडा पर कभी रहा ही नहीं I ऐसे में, नवउदारवाद के इस दौर में, संसदीय वामपंथी पार्टियाँ यदि संसदीय राजनीति में भी हाशिये के हाशिये पर पहुँचती जा रही हैं तो इससे आश्चर्य और दुःख मिथ्या आशावाद के शिकार उन्हीं लोगों को होगा जो मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-माओ के मार्क्सवाद और बर्नस्टीन-काउत्स्की-ख्रुश्चेव-देंग सियाओ-पिंग के छद्म मार्क्सवाद में कोई अंतर करना ही नहीं जानते, यानी बकौल लेनिन, वे मार्क्सवाद का क-ख-ग भी नहीं जानते, क्योंकि वे मार्क्सवाद और संशोधनवाद में कोई अंतर नहीं कर पाते I
विचार-विहीन भावुकता और आदर्शवाद का आलम यह है कि कुछ अच्छे-भले पढ़े-लिखे लोग यह प्रलाप तक करने लगे हैं कि जनता अगर माणिक सरकार जैसे सादगी और गरीबी में रहने वाले स्वच्छ छवि के व्यक्ति को किनारे हटाकर भाजपा को सत्ता में ला सकती है, तो यह जनता है ही इस लायक कि फासिस्टों का कोप-कहर झेलकर इसकी कीमत चुकाए Iअरे भलेमानसो, राजनीति में चीज़ें किसी पार्टी के नेता के सादे, भ्रष्टाचार-मुक्त जीवन से नहीं बल्कि व्यक्ति और पार्टी की विचारधारा, राजनीति और नीतियों से तय होती है I गाँधी और नेहरू काल के बहुतेरे कांग्रेसी नेता भी सादा जीवन बिताते थे I आपातकाल का समर्थन करने वाले भाकपा नेता इन्द्रजीत गुप्ता भी बेहद सादा जीवन बिताते थे I और पीछे चलें I प्रूधों, बाकुनिनऔर वाइटलिंग भी बेहद गरीबी का जीवन बिताते थे, और मार्तोव, मार्तीनोव जैसे तमाम मेन्शेविक नेता भी भ्रष्टाचारी या अमीरी में जीने वाले लोग नहीं थे I यह उनकी राजनीति से तय होता था कि वे क्रांतिकारी थे या मज़दूर वर्ग के दुश्मन I यदि चीज़ें नेता के जीने के तरीके से ही तय हो जातीं तो तमाम राजनीति विज्ञान और राजनीतिक अर्थशास्त्र को जानने की ज़रूरत ही क्या थी I भावुकतावादी मार्क्सवादी मार्क्सवाद तो कुछ पढ़ते नहीं, बस 'कॉमन सेन्स लाजिक' लगते रहते हैं I वे कहते हैं अपने को मार्क्सवादी, पर होते हैं तोल्स्तोयपंथी I दूसरी बात, चुनाव में अभी भी मोदी को चुनने के लिए जनता को कोसने वाले लोग बुर्जुआ चुनावों से बहुत न्याय-निर्णय की उम्मीद रखते हैं, वे इन चुनावों में पूँजी की भूमिका और फासिस्टों की घपलेबाजियों के रिकार्ड को भी नहीं जानते और इस बात को नहीं समझ पाते कि जनता को कोई सही नेतृत्व यदि सही राजनीतिक चेतना देकर मूल मुद्दों को सही ढंग से उसके सामने रेखांकित न करे, तो पूंजीवादी संकट के दौरों में वह सबसे आसानी से फासिस्टों के लोकरंजक नारों और 'फेटिश' और मिथ्या चेतना के प्रभाव में आ जाती है I कम से कम सामाजिक जनवादियों और संसदीय वामपंथियों द्वारा दिए जाने वाले विकल्प तो फासिस्टों के लोकरंजक नारों के सामने काफी फीके लगते हैं, खासकर तब जब जनता उन्हें लम्बे समय से देख और भुगत रही हो I वामपंथी बुद्धिजीवियों की एक फितरत यह भी होती है कि वे हमेशा अपने को किनारे करके बात करते हैं, अपनी भूमिका की कभी कोई चर्चा नहीं करते और जनता को कोसने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते I इन दुखी आत्माओं से क्या कहा जा सकता है सिवाय इसके कि हो सके तो उन्हें अपने लिए नयी जनता चुन लेनी चाहिए I
त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ मीडिया में जो खबरें आती थीं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना किसी गंभीर चुनौती के साफ-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे में वामपंथी लोग जो कुछ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त न के बराबर होती थी I इसीलिये वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगों को काफी सदमा लगा I त्रिपुरी समाज के अंतर्विरोधों की ज़मीनी सच्चाइयों को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामों को ठीक से नहीं समझा जा सकता, पर उनकी चर्चा से पहले कुछ और गौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना देना चाहते हैं I पिछले लगभग तीन दशकों से उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में आर.एस.एस. अपना सघन नेटवर्क फैलाकर काम कर रहा है I उत्तर-पूर्व की जनजातियों को हिंदुत्व की पहचान से जोड़ना, जनजातियों के आपसी टकरावों को और केंद्र से जारी उनके टकराव को 'पहचान की राजनीति' का आधार देकर उत्पीडित राष्ट्रीयताओं के संघर्ष को वर्ग-संघर्ष की राजनीति से दूर करना और उन्हें फासिस्ट राजनीति से वैचारिक तौर पर करीब लाना -- यह संघ की रणनीति रही है, जो, रेडिकल सशस्त्र संघर्षों के नेतृत्व के क्रमशः पतन और विघटन से पैदा हुए निराशापूर्ण स्पेस में स्थान बनाकर अब धीरे-धीरे रंग भी लाने लगी है I कांग्रेस के लम्बे शासन के दौरान इन इलाकों की आबादी जिस उपेक्षा और दमन का शिकार हुई, उसे भी संघ और भाजपा ने खूब भुनाया I 2014 में केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद भाजपा ने त्रिपुरा से वाम मोर्चे को उखाड़ फेंकने के प्रोजेक्ट पर विशेष तौर पर काम किया I संघ के स्वयंसेवकों के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर भाजपा कार्यकर्ताओं को वहाँ लगाया गया I माकपा नेतृत्व को यह पता था, लेकिन जैसा सभी संसदीय जड़वामनों के साथ होता है, सरकार चलाते-चलाते यह पार्टी कार्यकर्ता स्तर तक इतनी पलीद हो चुकी है कि इसका कैडर ढांचा मात्र रस्मी, ढीला-पोला और काहिल होकर रह गया है I दूसरी ओर बुर्जुआ दायरे में भी माकपा ने नीतिगत पंगुता का परिचय दिया और त्रिपुरी जनजातियों के जिस असंतोष और असुरक्षा का भाजपा लाभ उठा रही थी, उसके शमन के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया I इन्हें अपने आप पर कुछ ज्यादा भरोसा भी था, जिसके चलते इन्हें यह उम्मीद ही नहीं थी कि प्रचंड बहुमत से वाम मोर्चा सीधे 16 सीटों पर आ जायेगा और 2 सीटों वाली भाजपा 'इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा' ( आई.पी.ऍफ़.टी. ) के साथ मोर्चा बनाकर 43 सीटें हासिल कर लेगी I कुछ लोगों को इस बात पर भी आश्चर्य है कि भाजपा और माकपा के बीच मात्र दशमलव 3 प्रतिशत वोट प्रतिशत के अंतर पर सीटों में इतना अंतर कैसे ? भाजपा के अपने 43 प्रतिशत के साथ आई.पी.एफ़.टी. के 7.5 प्रतिशत को जोड़ दिया जाये और माकपा के 42 प्रतिशत के साथ अन्य वाम दलों के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाये तो भी दोनों के बीच अंतर 6 प्रतिशत के आसपास है और जनजाति-बहुल इलाकों के अतिरिक्त पूरे राज्य में भी जनजाति आबादी जिसतरह बिखरी हुई है, यदि उसने एकजुट होकर भाजपा गठबंधन को वोट दिया तो सीटों का इतना अंतर हो सकता था I यह भी एक फैक्टर था कि संघ कार्यकर्ताओं ने घर-घर तक पहुँच बनाकर बूथ-मैनेजमेंट बहुत कुशल किया था, जबकि वाम मोर्चा ने इस मामले में भी काहिली दिखाई थी I फासिस्टों के चाल-चेहरा-चरित्र को देखते हुए ई.वी एम. घपले का उनके द्वारा सहारा लेने से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस ब्रम्हास्त्र का सेलेक्टिव इस्तेमाल वे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनावों में और 2019 के लोकसभा चुनावों में करेंगे, इसकी संभावना ज्यादा है I त्रिपुरा में तो परिस्थितियाँ वैसे भी उनके पक्ष में थीं I
तो अब आइये, ज़रा उन परिस्थितियों पर एक सरसरी नज़र दौड़ा ली जाए I
1947 के पहले त्रिपुरा ब्रिटिश शासन के मातहत एक रियासत था I 1949 में इसका भारत में विलय हो गया I इसका एक हिस्सा,टिप्पेरा जिला पूर्वी पकिस्तान में शामिल हुआ I यूं तो बंगाली आबादी त्रिपुरा में पहले से रहती थी, लेकिन विभाजन के समय तक बहुसंख्या स्थानीय जनजातियों की ही थी I विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर बंगाली शरणार्थी आबादी त्रिपुरा में आकर बसी और स्थानीय जनजाति आबादी अल्पमत में आ गयी I 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय और उसके बाद भी बंगाली शरणार्थी आबादी त्रिपुरा में आती रही I आज स्थिति यह है कि त्रिपुरा की कुल आबादी में मात्र 30 प्रतिशत जनजातीय आबादी रह गयी है I इस स्थिति के चलते जनजातीय आबादी के भीतर असंतोष और असुरक्षा-बोध की भावना 1950 के दशक से ही पनपने लगी थी I यहाँ यह भी बता देना ज़रूरी है कि 1947 के पहले ही त्रिपुरा में कम्युनिस्ट रुझान की कई क्षेत्रीय पार्टियां मौजूद थीं जो स्थानीय राजशाही के विरुद्ध आदिवासी आबादी को संगठित करती थीं I पर आज़ाद भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस स्थिति का कोई फ़ायदा नहीं उठाया क्योंकि तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी पूरे तरह से घुटने टेककर संसदमार्गी हो चुकी थी I विभाजन से त्रिपुरा का सबसे बड़ा नुकसान हुआ --- उसका शेष भारत से भू-राजनीतिक अलगाव I तीन ओर से वह बंगला देश (तत्कालीन पूर्वी पकिस्तान) से घिरा था I सिर्फ उत्तर-पूर्व और पूर्व में असम और मेघालय की सीमाएं इससे लगती हैं जहां से दो राष्ट्रीय राजमार्ग इसे शेष देश से जोड़ते हैं I लुम्डिग (असम) से एक छोटी रेललाइन त्रिपुरा में जाती भी थी तो राजधानी अगरतला तक नहीं, बल्कि सिर्फ धर्मनगर तक I इससे इस राज्य की उपेक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है कि 2008-09 में पहली बार अगरतला तक रेललाइन पहुँची औए 2016 में उसे बड़ी लाइन किया गया I विभाजन के बाद कोलकाता से अगरतला की दूरी 350 कि.मी. से बढाकर 1700 कि.मी. हो गयी थी I ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था कि केंद्र की सरकार त्रिपुरा के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देती, पर हुआ ठीक इसके उलटा I आज भी त्रिपुरा की स्थिति यह है कि वहाँ कोई भी बड़ा उद्योग नहीं है I सिर्फ ईंट भट्ठे हैं, चाय के बागान हैं , कुछ रबर प्लान्टेशन है और थोडा बांस पैदा किया जाता है I सिर्फ 27 प्रतिशत ही ज़मीन खेती लायक है, जिसमें से 91 प्रतिशत पर धान की खेती होती है और वह भी पिछड़ी किस्म की, शेष पर गन्ना, जूट, और दालों की फसल होती है I त्रिपुरा सरकार के आंकड़ों के हिसाब से, उपभोग वितरण के पैमाने से राज्य की 55 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करती है I विडम्बना यह है कि 94 प्रतिशत साक्षर आबादी के साथ त्रिपुरा साक्षरता के मामले में पूरे देश में पहला स्थान रखता है I ऐसे में बेरोज़गारी की समस्या की गंभीरता को सहज ही समझा जा सकता है I स्थानीय जनजाति आबादी शिक्षा के मामले में पीछे नहीं है, लेकिन नौकरियों में वह बंगाली आबादी से काफी पीछे है I जिस राज्य में कुल मिलाकर, वाम मोर्चा ने 30 वर्षों तक शासन किया हो, वहाँ की यह स्थिति ढेर सारे सवाल तो खड़े ही करती है I
त्रिपुरा 1972 तक केंद्र-शासित क्षेत्र था I जनवरी,1972 में उसे मणिपुर और मेघालय के साथ पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिला I राज्य बनाने के पहले से ही स्थानीय जनजाति आबादी का अलगाव और असुरक्षा-बोध गंभीर असंतोष के रूप में सुलगने लगा था I त्रिपुरा का एकमात्र भूमि सुधार क़ानून ' त्रिपुरा लैंड रेवेन्यू एंड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1960' है, जिसके अनुसार आदिवासी आबादी की ज़मीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकता, लेकिन बड़े पैमाने पर इसका उल्लंघन होता रहा और बेनामी हस्तांतरण होते रहे I एकबार 1978 में वाम मोर्चा सरकार ने कोशिश की थी कि आदिवासियों की ज़मीन उन्हें वापस मिले, लेकिन चुनावी राजनीति के चक्कर में बंगाली आबादी के दबाव में वह अपनी मुहिम को दूर तक न ले जा सकी I जनजातियों के भीतर राष्ट्र्रीय उत्पीडन का अहसास करने वाली एक और घटना 1965 में बांगला भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा बनाना थी I राज्य की आबादी की 30 प्रतिशत आदिवासी आबादी 19 जनजातियों में बंटी हुई है, जिनमें से अधिकाँश कोकबरोक भाषा बोलते हैं I पहलीबार 1979 में वाम मोर्चा की सरकार ने कोकबरोक भाषा को औपचारिक मान्यता दी, पर इससे व्यावहारिक स्तर पर कोई विशेष फर्क नहीं पडा I 1970 के दशक में आदिवासी और बंगाली आबादी के बीच टकरावों की शुरुआत हो चुकी थी I 1980 में 'त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स' और 'आमरा बंगाली' नामक संगठनों के बीच के टकराव ने जातीय दंगे का रूप ले लिया, जिसमें 1800 लोग मारे गए I इस असंतोष को नियंत्रित करने के लिए ही 1982 में 'त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद्' की स्थापना हुई, जिसे 1985 में कुछ और अधिकार मिले I राज्य का 68 प्रतिशत क्षेत्र इन परिषदों के तहत आता है और इन्हें सीमित प्रशासकीय, विधायी और न्यायिक अधिकार मिले हुए हैं I इन्हें और अधिक स्वायत्तता और अधिकार देने की मांग लगातार उठती रही है I त्रिपुरा में '77 तक कांग्रेस का शासन था, फिर '78 से '88 तक और 1993 से 2018 तक वाम मोर्चे का शासन रहा I विधान सभा की 60 में से एक तिहाई यानी 20 और लोकसभा की 2 में से एक सीट आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित है, लेकिन आदिवासी आबादी की हमेशा यह शिकायत रही है कि सभी गैर-आदिवासी पार्टियां कुछ ऐसे दब्बू और पिछलग्गू आदिवासी उम्मीदवार चुनती हैं, जिनकी कोई अपनी आवाज़ ही नहीं होती है I 1990 के दशक में एन.एल.एफ़टी. और ए.टी.टी.एफ़. जैसे संगठनों ने सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की I इन विद्रोही गुटों की सरगर्मियां जब शीर्ष पर थीं, तभी, यानी 16 फरवरी'97 को राज्य में आफ्सपा लगा I जून'2013 में इसे 30 पुलिस थानों तक सीमित कर दिया गया और मई,2015 में पूरीतरह हटा लिया गया I
त्रिपुरा की आदिवासी आबादी का असंतोष लम्बे समय से एक उच्च बिंदु पर पहुंचकर ठहरा हुआ है और पिछले दशक के सरकारी दमन के आगे निरुपायता के अहसास ने एक ऐसी प्रतिक्रिया की मानसिकता पैदा की है, जिसका फायदा आज फासिस्ट उठा रहे हैं I आदिवासी आबादी का आन्दोलन आज अलगाववादी नहीं है I उसका एक उग्र हिस्सा है जो त्विप्रालैंड नामसे अलग राज्य की मांग कर रहा है, इसकी नुमाइंदगी 'इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा' करता है, जिसने भाजपा से मोर्चा बनाकर इस चुनाव में 8 सीटें हासिल की है I दूसरा एक नरम हिस्सा है जो आदिवासी स्वायत्त जिला परिषदों की स्वायत्तता बढ़ने की और उन्हें 100 प्रतिशत डायरेक्ट फंडिंग की मांग कर रहा है I इस धारा की नुमाइंदगी 'आई.एन.पी.टी.' नमक संगठन मुख्यतः करता है I अब वाम मोर्चे की विफलता को आसानी से समझा जा सकता है I वाम मोर्चे ने सबसे लम्बे समय तक त्रिपुरा में शासन किया, लेकिन एक बुर्जुआ सुधारवादी पार्टी बुर्जुआ जनवादी दायरे में रहते हुए आर्थिक विकास और रोजगार-सृजन के लिए जितना कुछ कर सकती थी, उसने उतना भी नहीं किया I भूमि सुधार को प्रभावी बनाकर आदिवासियों की ज़मीन की सुरक्षा के लिए कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठाये गए I स्वायत्त परिषदों के अधिकार और स्वायत्तता बढ़ने की मांग को भी सिरे से खारिज किया जाता रहा I कोकबरोक भाषा देखते-देखते मृतप्राय हो गयी I वाम मोर्चे ने भी अलगाववादी गुटों से निपटने की लिए 'आफ्सपा' का ही सहारा लिया और उसे लम्बे समय तक बनाये रखा I आदिवासियों के बीच उसकी छवि एक बंगाली पार्टी की बन गयी Iइस स्थिति का भाजपा ने भरपूर फायदा उठाया I उसने बंगाली और आदिवासी आबादी में अलग-अलग ढंग से प्रचार किया I शहरी बंगाली मध्य वर्ग को उसने साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद और विकास के लोकरंजक नारे पर अपने साथ खडा किया, जबकि आदिवासी आबादी की हताशा का पूरा लाभ उठाते हुए उसने उनके बीच पहचान की राजनीति को हवा दिया और भरपूर तुष्टीकरण किया I
कुल मिलाकर कहें कि संसदीय वामपंथियों की लम्बी अकर्मण्यता, यथास्थितिवाद और गलीज़ सामाजिक जनवादी राजनीति के कुकर्मों का ही यह फल है कि आज त्रिपुरा में फासिस्टों को ऐसी सफलता मिली है I आप नीतियों की बात छोड़कर माणिक सरकार की सादगी पर लहालोट होते रहिये और वाम मोर्चे की असफलता पर छाती कूटते रहिये I जहांतक कांग्रेस की बात है, तो उसे इस दुर्गति को प्राप्त होना ही था I त्रिपुरा में लम्बे समय से कांग्रेस और भाजपा का अघोषित गंठजोड़ था I अब भाजपा को प्रभावी विकल्प बनाते देख यदि अधिकाँश कांग्रेसी उसीकी नैया में सवार हो गए, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है I
बंगाल और पूरे देश की ही तरह त्रिपुरा में भी संसदीय वाम राजनीति की ही परिणतियाँ उजागर होकर सामने आयी हैं I यह बात एक बार फिर साफ़ हुई है कि क्रांतिकारी वाम राजनीति के पुनरुत्थान के बिना और सभी मेहनतक़श वर्गों का एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा किये बिना, और सडकों पर मोर्चा लेने की एक लम्बी तैयारी किये बिना फासिस्टों को पीछे कत्तई नहीं धकेला जा सकता I

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