Tuesday, March 13, 2018

एक बार फिर, कुछ खुदरा विचार ...






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मध्यवर्गीय भद्र जन को नसीहतें देने में काफी आनंद आता है I नसीहत देने के लिए चाहिए -- थोड़ा अनुभव, थोड़ी पढ़ाई और थोड़े से दब्बू लोग I आज जो नसीहतें सुन रहा है, वह सपने देखता है कि कल वह नसीहत देगा I
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आप ड्रामा जैसा कुछ करके जिंदादिल, दोस्तमिजाज़ या संवेदनशील नहीं बन सकते I अचानक खुद के बदल जाने की यह ख्वाहिश भी एक किस्म का कैरियरवाद ही है I व्यक्तिगत इतिहास से, अतीत के परिवेश और परवरिश से रूह पर पड़े दाग़ और निशानात यूँ, इतनी आसानी से नहीं जाते I और संवेदनशील बनने का ड्रामा तो किया ही नहीं जा सकता, भीतर की संवेदनहीनता छलककर, कहीं न कहीं अपना इज़हार कर ही देती है I
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कहना-सुनना और देखना --- इनसे हम लोगों और चीज़ों से परिचय बनाते हैं I एक और चीज़ है -- छूना I मुँह और कान से बरती जाने वाली भाषा और आँखों की भाषा का सभ्यता के विकास-क्रम में जितना विकास हुआ है, उतना स्पर्श की भाषा का नहीं हुआ है I इस मायने में मनुष्य औपचारिक ज्यादा होता गया I ऐतिहासिक जनवादी क्रांतियों के बाद जिन समाजों के ताने-बाने में जनवाद के तत्व रच-बस गए, वहाँ लोग ( स्त्री-पुरुष मित्र, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, भाई-बहन, पिटा-पुत्री, माँ-बेटा, या कोई भी ) सहज-स्वाभाविक एक-दूसरे से गले लगते हैं, चूमते हैं, थपथपाते हैं, कोंचते हैं, धौल लगाते हैं और दुःख या भावाकुलता के क्षणों में हाथों में हाथ दिए बैठे रहते हैं I ऐतिहासिक रूप से बंद समाजों में यह सब नहीं होता, या बहुत कम होता है, या नक़ल-नौटंकी के रूप में होता है I हालाँकि, उन्नत पूँजीवादी समाजों में भी अलगाव और मनोरुग्णता बढ़ने के साथ ही स्पर्श की भाषा, लाजिमी तौर पर, भोथरी होती जा रही होगी I
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आशा को बुलाने के लिए कितने जतन करने पड़ते हैं, कितने हरकारे भेजने पड़ते हैं I निराशा बस एक आवाज़ पर दौड़ी चली आने के लिए तत्पर बैठी रहती है I
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अत्याचार और उत्पीड़न की कोई भी विशाल मशीनरी जब असेम्बल की जाती है तो उसमें बेहद ज़रूरी नट-बोल्ट और पट्टों की तरह कुछ सीधे-सादे और कुछ आदर्शवादी लोगों को फ़िट किया जाता है I इनके बिना कोई उत्पीड़क तंत्र काम ही नहीं करता I

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