गो सब को बहम सागरो बादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना जियादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने
हर शख़्स का सद चाक लिबादा तो नहीं था
मंजिल को न पहचाने, रहे इश्क़ का राही
नादाँ ही सही ऐसा सादा तो नहीं था
थक कर यूंही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उठें यह इरादा तो नहीं था
- फैज़ अहमद फैज़
(फरवरी,1983)
नादाँ ही सही ऐसा सादा तो नहीं था
थक कर यूंही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उठें यह इरादा तो नहीं था
- फैज़ अहमद फैज़
(फरवरी,1983)
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