Friday, February 09, 2018



गो सब को बहम सागरो बादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना जियादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने
हर शख़्स का सद चाक लिबादा तो नहीं था
मंजिल को न पहचाने, रहे इश्क़ का राही
नादाँ ही सही ऐसा सादा तो नहीं था
थक कर यूंही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उठें यह इरादा तो नहीं था
- फैज़ अहमद फैज़
(फरवरी,1983)

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