Tuesday, February 27, 2018

इतिहास-बोध

 


इतिहास-बोध (एक)


पत्थर को धोता है पानी,
पानी को धोती है हवा
और फिर सुगन्ध
हवा को पवित्र करती है।
हृदय को धोते हैं आँसू
आँसू को स्मृति बनाते हैं विचार,
विचार को शुद्ध और प्रामाणिक
बनाता है पसीना।
पसीने को सार्थकता
मिलती है सृजन से,
सृजन को सार्थकता
मिलती है जीवन से
और जीवन को
धो-पोंछकर साफ़ करना होता है
रक्त से।



***
 


इतिहास-बोध (दो)

राजनीतिक सूत्रीकरण ठोस होते हैं
स्पष्ट बताते हैं
करणीय के बारे में।
लेकिन अनिवार्यत: उनमें होता है
एक अंश त्रुटियों का,
रह ही जाता है
कुछ अधूरापन,
और उनके सिरे खुले रहते हैं
क्योंकि ऐसा ही है जीवन।
बस जीवन का कोई एक सिरा
या कुछ एक सिरे
आते हैं हमारी पकड़ में
और अनगिन रह जाते हैं अलक्षित, उलझे हुए।
ऐसा ही है यह जीवन
कि कविता में आ ही जाता है
वस्तुपरकता के तमाम आग्रहों के बावजूद
कुछ अतिरेक
और कुछ भावोद्रेक
और कुछ मनोगत विचलन।
निबन्धों के आकलनों और पूर्वानुमानों में से
आधे या कभी-कभी उससे भी कुछ अधिक
ग़लत निकल जाते हैं।
नारे जब उतरते हैं
चेतना तक,
चेतना और अधिक गहराई में चली जाती है।
हमेशा ही हम पाते हैं
स्थितियों में
निश्चितता-अनिश्चितता का द्वंद्व
और परिणतियों की
प्रायिकता मापते हैं।
यह द्वंद्व हल होता है
जब एक धरातल पर,
चेतना उतरती है और गहराई में
और फिर पाती है वहाँ
निश्चितता-अनिश्चितता का द्वंद्व।
अनिश्चित को निश्चित बनाना
सूक्ष्मतर धरातल की एक नयी
अनिश्चितता का आविष्कार है।
जैसे असम्भव को
सम्भव बनाते हैं हम
और फिर एक नयी असम्भवता के सामने
खड़े होते हैं।
समझ और भाषा का
यह अधूरापन
हमें निरन्तर गतिमान बनाये रखता है
और हम थकते नहीं।
थकते हैं तब,
जब हम रुकते हैं
और जीवन का सिरा
हमारे हाथ से छूट जाता है।
 
-- शशि प्रकाश

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