Friday, February 16, 2018


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

बिहार हो या गुजरात , बुर्जुआ जनवाद जितना प्रहसन बनता जा रहा है , फासिस्टों के लिए रास्ता उतना ही निष्कंटक होता जा रहा है ।
समाजवादी तो हमेशा से संघियों के लिए सीढ़ी और बैसाखी का काम करते रहे हैं । लोहिया और जे.पी. ने जनसंघ को बुर्जुआ संसदीय राजनीति की मुख्य धारा में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई थी । लगे हाथों लोहिया के 'रामायण मेला' औए अज्ञेय की 'राम-जानकी यात्रा को भी याद कर लिया जाना चाहिए ।
यूरोप में फासिस्टों के उभार में सोशल डेमोक्रेट्स के लिबलिबपन और घुटनाटेकू नीतियों की भूमिका को भी याद रखा जाना चाहिए । इतिहास के सबक बहुत काम आते हैं ।
अरे हाँ, किसी को याद है आखिरी बार भारत के संसदीय वामपंथी किसी देशव्यापी या राज्यव्यापी जनांदोलन में सड़कों पर कब उतरे थे ? किसी ने कभी सुना है कि दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई के सिवा मजदूरों को कभी ये कोई राजनीतिक शिक्षा भी देते हों या उनको किसी राजनीतिक लड़ाई के लिए भी तैयार करते हों ? किसी संसदीय वामपंथी नेता के मुंह से समाजवाद या मजदूर क्रांति शब्द आपने आखिरी बार कब सुना था , याद है ? क्या ये लाल कलंगी वाले मुर्गे नेहरूकालीन पब्लिक सेक्टर और "कल्याणकारी राज्य" को बचाने के नारों के अतिरिक्त नव-उदारवादी नीतियों के किसी क्रांतिकारी , समाजवादी विकल्प के बारे में भी कभी बात करते पाये गए हैं ? इतिहास की शिक्षा तो यह है कि फ़ासिज़्म का मुक़ाबला केवल मजदूर वर्ग की जुझारू गोलबंदी द्वारा ही किया जा सकता है । क्या भारत के संसदीय वामपंथियों को ऐसा कुछ करने की कोशिश करते किसी ने देखा है ? ये तो सिर्फ संसद और विधानसभाओं में तथाकथित सेकुलर , गैर-भाजपा पार्टियों की गोलबंदी करते हैं और उनमें से भी कब कौन छिटककर भाजपा की गोद में बैठ जाए , कोई नहीं समझ पाता है । जिन्हें अभी भी इनसे कुछ उम्मीद है उसे क्या कहा जाये --- अति आशावादी या मूर्ख ?

राह चाहे जितनी कठिन और लंबी हो , पर वह एक ही है , और वह है नए सिरे से नई ज़मीन पर क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन का पुनर्निर्माण । वैचारिक धुन्ध की सफाई की ज़रूरत है , नई क्रांतिकारी भरती की ज़रूरत है और शहरों और गांवों के मेहनतकशों को नए सिरे से संगठित करने की ज़रूरत है । रास्ता हज़ार मील लंबा है , यह सोचकर पहला कदम ही न उठाया जाए , यह कहाँ की बुद्धिमानी है ?

28 जुलाई, 2017

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