Monday, February 19, 2018

सामाजिक-राजनीतिक संकट....




आजकल, सामाजिक-राजनीतिक संकटों के घटाटोप से अछूती, परिवेश-विच्छिन्न, फागुन और बसंत से आक्रान्त, "अलौकिक", "निष्कलुष", आत्मलीन, आत्ममुग्ध, शीरे जैसी चिपचिपी प्रेम कविताओं का सोशल मीडिया पर और आयोजनों में धकापेल देख-देखकर कुछ-कुछ उबकाई जैसी फीलिंग आ रही है। कवियो-कवयित्रियो, प्रेम की ऐसी गंगा बहाओ, उसमें ऐसी बाढ़ ला दो कि उसमें सड़कों पर हो रही सारी नृशंस बर्बरताएँ, सारे दंगे-फसाद, पुलिस उत्पीड़न और एनकाउंटर की सारी घटनाएँ, सारे घपले-घोटाले, मँहगाई-बेरोज़गारी जैसी सारी समस्याएँ एक साथ तिनकों के समान बह जाएँ। लानत है !!

(18 फरवरी,2018)

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