Thursday, December 28, 2017

एक पुरानी कहानी नये रूप में



उस नगर राज्‍य में सुसंस्‍कृत संवेदनशील भद्रजनों और कला-मर्मज्ञों की कमी न थी। नगर के केन्‍द्र में कई रंगशालाओं, सभागारों, कला-वीथिकाओं, संगोष्‍ठी कक्षों और विशाल पुस्‍तकालय वाले भव्‍य कला भवन की बहुमंजिली अट्टालिका थी। वहाँ नियमित कला प्रदर्शनियाँ, संगीत समारोह, नाट्य प्रदर्शन, जीवंत वाद-विवाद आदि होते रहते थे। जीवन और कला की दशा-दिशा पर, मानवीय मूल्‍यों के क्षरण, तर्कणा के विघटन और सामान्‍य जनों की जीवन-समस्‍याओं पर वहाँ अनवरत वाद-विवाद-संवाद होते रहते थे।
सामान्‍य जन इस भव्‍य कला भवन की बौद्धिक-सांस्‍कृतिक गतिविधियों को श्रद्धा, कुण्‍ठा और आतंक की भावना से देखते थे। बेशक़, कुछ ऐसे भी थे जो उपेक्षा या उपहास का भाव रखते थे। कला भवन के सुसंस्‍कृत, संवेदनशील कला-कोविद यदा-कदा बर्बरता के ख़तरों पर भी चिन्‍तातुर चर्चाएँ किया करते थे।
फिर नगर पर बर्बरों ने हमला किया। उत्‍पात मचाते हुए वे सड़कों पर घूमने लगे। जीवन से ऊबे हुए, कुछ विघटित चेतना के दुस्‍साहसी लोग भी उनके साथ हो लिए। कला भवन में उन्‍होंने भयंकर लूटपाट और तोड़फोड़ मयायी। सारे बौद्धिकों-कलाकारों को उन्‍होंने रेवड़ों की तरह बाहर निकालकर सड़कों पर हाँक दिया। कोई भी उन्‍हें या कला के उस अद्वितीय प्रतिष्‍ठान को बचाने नहीं आया। वे भी नहीं, जो उनके प्रति श्रद्धाभाव रखते थे।
कुछ समय बीतने के बाद, उन्‍हीं बौद्धिकों की परम्‍परा में दीक्षित-प्रशिक्षित इतिहासकारों ने उस घटना का इतिहास लिखा जिसमें उन्‍होंने उस ऐतिहासिक विनाश के लिए बर्बरों के साथ ही असभ्‍य, गँवार जनता को भी ज़ि‍म्‍मेदार ठहराया।

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