Friday, August 25, 2017




" हमसे मार्क्सवाद के अध्ययन का अनुरोध करना द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सृजन-शैली की ग़लती को फिर से दोहराने के समान होगा , और इससे हमारे सृजनात्मक मूड को हानि पहुंचेगी ।" मार्क्सवाद का अध्ययन करने का मतलब यह है कि हम दुनिया को , समाज को और कला-साहित्य को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखें , इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी साहित्यिक रचनाओं और कलाकृतियों में दर्शनशास्त्र के लेक्चर झाड़ते फिरें । साहित्यिक व कलात्मक सृजन के कार्य में मार्क्सवाद यथार्थवाद को हटाकर उसकी जगह नहीं ले सकता बल्कि उसे अपने अंदर समाविष्ट करता है , ठीक उसीतरह जैसे वह भौतिक विज्ञान में परमाणु और विद्युत-अणु संबंधी सिद्धांतों को हटाकर उनकी जगह नहीं ले सकता बल्कि उन्हें अपने अंदर समाविष्ट करता है । । कोरे , नीरस कठमुल्लावादी फार्मूले सृजनात्मक मूड को नष्ट कर देते हैं ; यही नहीं वे सबसे पहले मार्क्सवाद को ही नष्ट कर देते हैं । कठमुल्लावादी "मार्क्सवाद" मार्क्सवाद नहीं होता , वह मार्क्सवाद-विरोधी होता है । तो क्या मार्क्सवाद सृजनात्मक मूड को नष्ट नहीं कर देता ? हाँ , कर देता है । वह निश्चित रूप से हर ऐसे सृजनात्मक मूड को जो सामंती , पूंजीवादी , निम्न-पूंजीवादी , उदारतावादी , व्यक्तिवादी , शून्यवादी , "कला कला के लिए" के सिद्धान्त को मानने वाला , अभिजातवर्गीय , पतनशील अथवा निराशावादी होता है, और हर ऐसे सृजनात्मक मूड को जो विशाल जनसमुदाय और सर्वहारा वर्ग का नहीं है , नष्ट कर देता है । जहाँतक सर्वहारा वर्ग के लेखकों और कलाकारों का संबंध है , क्या उन्हें इसप्रकार के सृजनात्मक मूडों को नष्ट नहीं कर देना चाहिए ? मैं समझता हूँ कि उन्हें ज़रूर ऐसा करना चाहिए , इन सबको पूरीतरह नष्ट कर देना चाहिए , और इन्हें नष्ट करने के साथ ही नई चीजों की रचना की जा सकती है ।
-- माओ त्से-तुंग
(येनान की कला-साहित्य गोष्ठी में भाषण)

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