Friday, August 25, 2017

रूसी क्रांति को कैसे देखें


 ('रविवार डाइजेस्‍ट' के जून अंक में रूसी क्रांति के सौ बरस पूरे होने पर तीन लेख छपे हैं। यह दूसरा है : क्रांति का संक्षिप्त मूल्यांकन)

-- कविता कृष्‍णपल्लवी

रूस की अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी (नये कैलेण्‍डर के हिसाब से यह 7 नवम्बर, 1917 को हुई थी) के अवसर पर पूरी दुनिया में वे सभी लोग इसे याद कर रहे हैं, जिन्होंने ‘इतिहास के अन्त’, ‘क्रान्तियों के महाख्यानों के विसर्जन’ और उत्तर-मार्क्सवाद से ले कर उत्तर-सत्य के नये युग के आगमन के बौद्धिक शोरगुल के बीच भी मानवता की मुक्ति और एक शोषणमुक्त, समतामूलक समाज के निर्माण की ऐतिहासिक परियोजना में अपना विश्‍वास नहीं खोया है।
बीसवीं सदी के इतिहास को गढ़ने और एक सुनिश्चित शक्ल देने में अक्टूबर क्रान्ति की भूमिका सर्वोपरि थी। 7 नवम्बर, 1917 के बाद दुनिया वैसी ही नहीं रह गयी, जैसी वह पहले थी। अक्टूबर क्रान्ति के बाद जर्मनी, हंगरी और इटली में सर्वहारा क्रान्ति के प्रयास यदि विफल नहीं हो जाते, तो शायद आज तक का इतिहास कुछ और ही होता। लेकिन इसके बावजूद अक्टूबर क्रान्ति का आमूलगामी प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। युद्धपोत अव्रोरा के तोपों के धमाकों की गूँज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ी। ग्रीस, आयरलैंड और माल्टा से ले कर तुर्की, मिस्र और मेक्सिको तक पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति की लहर आगे बढ़ी, जो अपने अधूरेपन के बावजूद इतिहास को आगे गति दे रही थी। उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और नाम मात्र की राजनीतिक स्वतंत्रता वाले देशों में (जिन्हें बाद में नवउपनिवेश कहा जाने लगा) राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्ष की उत्ताल तरंगें उठने लगीं। गु़लाम देशों के बौद्धिक मानस में राष्‍ट्रीय जागरण की नयी चेतना पैदा करने और समाजवाद की अवधारणा को स्थापित करने में अक्टूबर क्रान्ति ने कितनी बड़ी भूमिका निभायी थी, इसका प्रमाण भारत में 1918 से लेकर 1940 तक की अवधि में प्रकाशित होने वाली हिन्दी की ‘प्रताप’, ‘प्रभा’, ‘अभ्युदय’, ‘चाँद’, ‘सुधा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’, ’स्वदेश’ आदि अग्रणी पत्रिकाओं और सभी भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं को देखने से मिल जाता है। इतिहास गवाह है कि अक्टूबर क्रान्ति ने न केवल पूरी दुनिया में चल रहे राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों को गहराई से प्रभावित किया, बल्कि उसके प्रभाव में इन देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन की भी शुरुआत हुई और तेज गति से विकास हुआ। इसमें 1919 में गठित ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल’ (कोमिण्टर्न) की विशेष भूमिका थी। यूरोपीय मजदूर आन्दोलन का एक बड़ा हिस्सा सुधारवादी और अंधराष्‍ट्रवादी दूसरे इण्टरनेशनल से टूट कर ‘कोमिण्टर्न’ से जुड़ी लेनिनवादी पार्टियों के नेतृत्व में काम करने लगा। पूर्वी यूरोप के अतिरिक्त मेक्सिको, भारत, चीन, इण्डोनेशिया और अरब क्षेत्र के कुछ देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन का तेजी से विकास हुआ। विदेशों में स्थित मानवेंद्र नाथ राय, भूपेन्द्र नाथ दत्त, अवनी मुखर्जी आदि और गदर पार्टी के कुछ क्रान्तिकारियों के साथ ही देश के भीतर सक्रिय ‘युगांतर’, ‘अनुशीलन’ और भगत सिंह के संगठन ‘एचएसआरए’ के अधिकांश क्रान्तिकारियों ने 1920 के दशक से ले कर 1930 के दशक तक मार्क्सवाद को स्वीकार कर लिया था। अक्टूबर क्रान्ति के इन विश्‍वव्यापी प्रभावों पर पुस्तकाकार चर्चा हो सकती है और इन पर विपुल संख्या में शोधग्रन्थ और इतिहास की पुस्तकें मौजूद हैं, लेकिन विश्‍व इतिहास के मात्र इसी उत्तरवर्ती घटना-प्रवाह से अक्टूबर क्रान्ति के युगांतरकारी महत्व का पता नहीं चलता। इस महत्व को और अधिक व्यापक विश्‍व-ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है।
फ्रेडरिक एंगेल्स ने यूरोपीय पुनर्जागरण को उस समय तक के इतिहास की महानतम क्रान्ति बताया था, जिसने मानव समाज के धर्मकेन्द्रित (थियोसेण्ट्रिक) ढाँचे को मानवकेन्द्रित (एन्थ्रोपोसेण्ट्रिक) ढाँचे में बदल डालने का महाअभियान छेड़ा था। उसके बाद की सर्वाधिक आमूलगामी और विश्‍व-ऐतिहासिक महत्व की घटना 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति थी, जिसके तूफानी अग्रदूत जैकोबैं नायकों ने प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के ‘स्वंतत्रता-समानता-भ्रातृत्व’ और ‘तर्कणा के राज्य’ के आदर्शों को साकार रूप देने की कोशिश की। हालाँकि यह आदर्श क्षणजीवी ही रहा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप जो पूँजीवादी जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आये, वे तमाम पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न के बावजूद सामन्ती स्वेच्‍छाचारिता के मध्ययुगीन अँधेरे की तुलना में इतिहास की महान क्रान्तिकारी प्रगति के सूचक मील के पत्थर थे। इसके बाद इतिहास की जो तीसरी सर्वाधिक आमूलगामी परिवर्तनकारी घटना थी, वह थी रूस की 1917 की अक्टूबर क्रान्ति। मानव इतिहास में निजी स्वामित्व और उस पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के पैदा होने का इतिहास तकरीबन चार-पाँच हजार वर्षों पुराना है। अब तक के सभी सामाजिक संघर्ष निजी स्वामित्व की व्यवस्था के अमानवीय और अन्यायपूर्ण परिणामों और अभिव्यक्तियों के विरुद्ध जन-विद्रोह होते थे, लेकिन किसी भी क्रान्ति ने बुनियाद को, यानी निजी स्वामित्व की व्यवस्था को सीधे निशाने पर नहीं लिया था। अक्टूबर क्रान्ति से पहले 1871 में पेरिस कम्यून के 72 दिनों के दौरान मजदूरों ने निजी स्वामित्व आधारित सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर सर्वहारा जनवाद की शासन-प्रणाली का एक मॉडल पेश किया था, पर उस क्रान्तिकारी घटना के पीछे वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न किसी पार्टी का नेतृत्व नहीं था, वह जाग्रत सर्वहारा के सामूहिक वर्गगत अनुभवजन्य ज्ञान की उपज था, इसलिए उसका अल्पजीवी होना स्वाभाविक था। रूस में लेनिन के नेतृत्व में बोल्‍शेविक पार्टी ने मार्क्सवाद की सम्पूर्ण सैद्धान्तिकी के साथ ही पेरिस कम्यून के अनुभवों का भी गहन अध्‍ययन-समाहार किया और युद्ध की परिस्थितियों और सरकार की अस्थिरता जैसी परिस्थितियों का सटीक ढंग से लाभ उठाते हुए बूर्जुआ राज्यसत्ता का बलात ध्‍वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की, या सर्वहारा के वर्गीय अधिनायकत्व की स्थापना की, जिसके अन्तर्गत पेरिस कम्यून के विकसित रूप में सोवियत की नये किस्म की जनवादी व्यवस्था कायम की गयी। अब तक की सभी राज्यसत्ताएँ शोषित बहुमत पर शोषक अल्पमत का अधिनायकत्व हुआ करती थी, सोवियत सत्ता पहली ऐसी राज्यसत्ता थी जो शोषक अल्पमत पर शोषित बहुमत का अधिनायकत्व थी। यह पहली ऐसी राज्यसत्ता थी, जिसे वर्गों, निजी स्वामित्व आधारित असमानता एवं विशेषाधिकारों और वर्ग संघर्षों के क्रमश: विलोपन के साथ ही विलोपित होते जाना था, हालाँकि कम्युनिज्म़ की मंजि़ल तक जाने वाली समाजवादी संक्रमण की इस यात्रा में शताब्दियाँ लगनी थीं और इस दौरान कई हार-जीत और चढ़ाव-उतार का पूर्वानुमान लेनिन ने ही लगाया था। अक्टूबर क्रान्ति का नेतृत्व चूँकि सर्वहारा वर्ग की पार्टी कर रही थी और सर्वहारा वर्ग इतिहास का पहला ऐसा वर्ग था जिसके पास उत्पादन के साधनों का कोई भी स्वामित्व नहीं था, इसलिए उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त करना केवल इसी वर्ग का ऐतिहासिक मिशन हो सकता था और इसीलिए, अक्टूबर क्रान्ति के बाद खेती, उद्योग, व्यापार - इन सभी क्षेत्रों में उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त कर पाना संभव हो सका।
लेकिन समाजवादी निर्माण के कामों को अंजाम देने के लिए सोवियत क्रान्ति को असामान्य बीहड़ रास्ते और चुनौतियों से गुजरना पड़ा। क्रान्ति के तुरत बाद सभी औद्योगिक-व्यापारिक प्रतिष्‍ठानों और समूची जमीन को राष्‍ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। समूची काम करने योग्य आबादी को रोजगार देना और सभी अनाथों और वृद्धों की देखभाल सरकारी जि़म्मेदारी घोषित कर दी गयी। हजा़रों की तादाद में सामूहिक भोजनालय खोले गये। शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क और सरकार की जिम्मेदारी बना दी गयी। लेकिन इन समाजवादी कदमों को आगे बढ़ाने में गंभीर बाधा यह थी कि पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान पहले से ही तबाह देश की पूँजीवादी दुनिया ने न सिर्फ नाकेबन्दी कर दी थी, बल्कि 14 साम्राज्यवादी देशों ने मिल कर नवजात समाजवादी देश पर धावा बोल दिया था। देश के भीतर देनिकिन, कोल्चाक, व्रांगेल आदि की प्रतिक्रियावादी सेनाओं ने गृहयुद्ध छेड़ रखा था। आम मेहनतकश जनता ने एकजुट होकर प्रतिक्रिया की शक्तियों के सभी षड्यंत्रों और हमलों को नाकाम तो कर दिया, लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था तबाह थी और देश भुखमरी की चपेट में था। शहरी आबादी को भुखमरी से बचाने के लिए और सामुदायिक भोजनालयों तथा नि:शुल्क भोजन कार्यक्रम को चलाने के लिए किसानों से जो जबरिया अनाज-वसूली की गयी थी, उससे छोट-मँझोले किसान भी नाखुश थे। ऐसी स्थिति में लेनिन ने 1921 में ‘नयी आर्थिक नीति’ (‘नेप’) का प्रस्ताव रखा। यह समाजवाद के दूरगामी हितों को देखते हुए, कुछ समय के लिए पीछे हटने की नीति थी, जिसके अन्तर्गत योजनाबद्ध ढंग से, सीमित पैमाने पर उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व, श्रमशक्ति की खरीद-फरोख्त और किसानों को अपने उत्पाद खुले बाजार में बेचने की सीमित-आंशिक छूट दी गयी। इन कदमों से समाज में नये पूँजीवादी तत्व तो पैदा हुए, लेकिन छह-सात वर्षों में अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गयी।
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1926-27 तक अर्थतंत्र के तबाही से उबरने के साथ ही ‘नयी आर्थिक नीति’ को समाप्त करक समाजवादी निर्माण के काम को फिर तूफानी गति से आगे बढ़ाया गया। तेज गति से समाजवादी औद्योगीकरण किया गया, एक दशक के भीतर ही औद्योगिक उत्पादन दूने से भी अधिक हो गया और सोवियत संघ ने ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति के दौरान हुए विकास की रफ्तार को भी काफी पीछे छोड़ दिया। कृषि उत्पादन में भी ऐसी ही तेज वृद्धि हुई, सामूहिक खेती का तेज गति से मशीनीकरण हुआ और ग्राम सोवियतों की व्यवस्था पूरे देश में फैल गयी। शिक्षा, विज्ञान और तक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी द्वितीय विश्‍व युद्ध के पहले तक सोवियत संघ पश्चिम के विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी पर आ खड़ा हुआ था। 1930 के दशक के मध्य तक पूरे देश में न कोई बेघर था, न बेरोजगार। वेश्‍यावृत्ति और यौन रोगों का समूल नाश हो गया था। देशभर में शिशुशालाओं, बाल विहारों और सामूहिक भोजनालयों की व्यवस्था के चलते स्त्रियाँ चूल्हे-चौकठ की गुलामी से आजाद हो गयी थीं। 1929 में कुल कामगारों में 29 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं जो 1941 में बढ़कर 45 प्रतिशत हो गयी थी। सेक्टरों में बाँट कर देखें तो इस अवधि में स्त्रियों की भागीदारी बड़े उद्योगों में 30 प्रतिशत से बढ़ कर 45 प्रतिशत, परिवहन में 10 प्रतिशत से बढ़ कर करीब 38 प्रतिशत, शिक्षा में 55 प्रतिशत से बढ़ कर 72 प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में 65 प्रतिशत से बढ़ कर करीब 78 प्रतिशत हो गयी।
पितृसत्तात्मक परिवार संस्था का जन्म निजी सम्पत्ति के जन्म के साथ हुआ था। निजी स्वामित्व की व्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए समाजवाद ने परिवार और पुरुष सत्ता की जड़ों पर भी मारक चोट की। अक्टूबर 1918 के ‘विवाह परिवार और बच्चों के अभिभावकत्व सम्बन्धी कोड’ ने जेण्डर-समानता और व्यक्तिगत अधिकारों के मामले में स्त्रियों को पहली बार वे अधिकार दिये, जो दुनिया का कोई उन्नततम जनवादी देश भी आज तक नहीं दे पाया है। विवाह, सहजीवन और तलाक सहित यौन सम्बन्धों के हर मामले में राज्य, समाज और धर्म के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया गया। समलैंगिकता और आपसी सहमति से किये जाने वाले अन्य यौन क्रियाकलापों के विरुद्ध जो भी कानून थे, उन्हें समाप्त कर दिया गया, क्योंकि बोल्‍शेविकों का मानना था कि सभी विचलनशील यौन व्यवहार वर्ग समाज के विकृतिकारी परिवेश की उपज होते हैं और उन्हें कानून या किसी बाहरी दबाब से नहीं, बल्कि नये सामाजिक परिवेश के निर्माण द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। इसी तरह वेश्‍यावृत्ति को अपराध मानने वाले कानूनों को भी समाप्त कर दिया गया, क्योंकि बोल्‍शेविकों का मानना था कि शरीर की खरीद-फरोख्त की प्राचीनतम बुराई को दण्ड-विधानों के द्वारा नहीं, बल्कि स्त्रियों को स्वतंत्र सामाजिक-आर्थिक हैसियत और समान नागरिक अधिकार दे कर ही समाप्त किया जा सकता है। समय ने इस धारणा को सही साबित किया और 1930 के उत्तरार्द्ध तक सोवियत समाज से वेश्‍यावृत्ति, यौन अपराधों और यौन रोगों का लगभग पूरी तरह से खात्मा हो गया।
क्रान्ति के तत्काल बाद, स्त्री मजदूरों के लिए सोवियत सत्ता ने सामाजिक-सांस्कृतिक सुविधाओं, सामुदायिक सेवाओं तथा प्रशिक्षण एवं शिक्षा के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी। 1918 के ‘लेबर कोड’ के अंतर्गत स्त्री मजदूरों, विशेषकर गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्चों की माँओं के लिए कई विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया गया। स्त्रियों को न केवल प्रसव के दौरान, बल्कि हर माह रजोनिवृत्ति के दिनों में भी सवैतनिक अवकाश दिया जाने लगा। 1920 में एक आज्ञप्ति जारी करके गर्भपात के लिए आपराधिक दण्ड के कानूनी प्रावधान को समाप्त कर दिया गया। 1926 में एक नया ‘फैमिली कोड’ लागू हुआ जो 1918 के कोड से काफी आगे का कदम था। इस नये कोड के तहत, विवाह पंजीकरण को स्वैच्छिक बना दिया गया और सहजीवन (‘लिव इन रिलेशनशिप’) को ‘डिफैक्टो मैरिज’ के रूप में मान्यता दे दी गयी। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए बोल्‍शेविकों ने क्रान्ति के पहले ‘राबोत्नित्सा’ नामक संस्था का गठन किया था। क्रान्ति के बाद ‘झेनोत्देल’ नामक संस्था ने इसे और बड़े पैमाने पर अंजाम दिया। बोल्‍शेविक पार्टी और सोवियत सत्ता के शीर्ष नेतृत्व में क्रुप्सकाया, अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई, अनेसाँ आरमा, समाइलोव्‍ना, लीदिया फोतियेवा आदि पचास से अधिक स्त्रियाँ तो थी हीं, नीचे कारखानों और गाँवों की सोवियतों तक में लाखों स्त्रियाँ नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही थीं।
द्वितीय विश्‍वयुद्ध में सोवियत संघ की विजय और दुर्दान्त फासिस्टों के विनाश के पीछे मुख्य कारण यह था कि समूची जनता बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे कर भी समाजवाद को बचाना चाहती थी। समूची जनता की इस जुझारू एकजुटता के पीछे स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति की अहम भूमिका थी। युद्ध के वर्षों में पूरी सामूहिक खेती स्त्रियों ने सम्हाल रखी थी। इस दौरान स्त्री हार्वेस्टर चालकों और ट्रैक्टर चालकों की संख्या में क्रमश: सात गुने और ग्यारह गुने की तथा मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों पर काम करने वाली स्त्रियों की संख्या में दस गुने की बढ़ोत्तरी हो गयी। युद्ध के वर्षों में उद्योगों में 53 प्रतिशत, चिकित्सा सेवा में 83 प्रतिशत और शिक्षा में 58 प्रतिशत काम स्त्रियाँ सम्‍हाल रही थी। यही नहीं, उत्पादन को सम्हालने के साथ ही देश के भीतर घुस आये हिटलर की सेना के विरुद्ध छापामार संघर्ष चलाने वाले दस्तों में भी स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर शामिल थीं। समूची मेहनतकश जनता के फौलादी संकल्पों और मुक्त स्त्रियों की असीम शक्ति का ही यह नतीजा था कि जो देश विजय के बाद अपनी 2 करोड़ 70 लाख आबादी को खो कर तबाही के उस मुकाम पर खड़ा था, जहाँ 70 प्रतिशत शहर और कारखाने ध्वस्त पड़े थे और खेती तबाह हो चुकी थी, वही तीन-चार वर्षों के भीतर, तूफानी गति से पुनर्निर्माण करके उठ खड़ा हुआ और 1950 का दशक शुरू होते-होते, न केवल उद्योग, खेती और सामाजिक प्रगति, बल्कि विज्ञान और तकनोलॉजी के क्षेत्र में भी दुनिया के सर्वाधिक विकसित पूँजीवादी देशों की टक्कर में खड़ा हो गया।
भौतिक प्रगति के अतिरिक्त कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में सोवियत समाज ने जो नये मील के पत्थर गाड़े, उन्हें आज के पढ़े-लिखे लोगों की नयी पीढ़ी नहीं जानती है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर युग में नये संचार माध्यम समाजवाद-विरोधी कुत्सा-प्रचार शीतयुद्ध के दौर से भी कई गुना अधिक प्रभावी ढंग से कर रहे हैं। अध्‍ययन करने के बाद ही कोई जान सकता है कि गोर्की, मयाकोव्स्की, येस्येनिन, ब्लोक, फेदिन, फदेयेव, शोलोखोव आदि के बिना बीसवीं सदी के साहित्य की, लुनाचार्स्की, मिखाइल लिफ्शित्ज, वोरोव्स्की, वोरोन्स्की आदि के बिना साहित्य-सैद्धान्तिकी की, स्तानिस्लाव्स्की, मेयेरहोल्ड और वाख्तांगोव के बिना थियेटर की , आइजेंस्ताइन, पुदोवकिन, दोवझेंकों और वेर्तोव आदि के बिना सिनेमा की तथा शास्ताकोविच, प्रोकोफियेव, खाचातुरिन आदि के बिना संगीत की चर्चा कर पाना असम्भव है। यही नहीं, बीसवीं शताब्दी के दुनिया भर के महानतम चिन्तकों, साहित्यकारों और कलाकारों के एक बड़े हिस्से के चिन्तन और सृजन पर अक्टूबर क्रान्ति और सोवियत समाजवाद का गहरा प्रभाव पड़ा।
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तब फिर सहज ही, यही प्रश्‍न यक्षप्रश्‍न बन कर सामने आता है कि गृहयुद्ध, आर्थिक नाकाबन्दी और साम्राज्यवादी देशों के हमले को भी झेल कर जिस समाजवाद ने भौतिक और आत्मिक प्रगति के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किये और लगभग अकेले दम पर फासिस्टों को नेस्तनाबूद कर पूरी दुनिया की हिफाजत की, वह बिना किसी बाहरी हमले के अपने अन्दरूनी अन्तरविरोधों से ही तबाह कैसे हो गया? सवाल वाजिब है और पूर्वाग्रहमुक्त हो कर इसका जवाब जानने के लिए समाजवादी संक्रमणकालिक समाज की प्रकृति के बारे में एक अतिसंक्षिप्त चर्चा तो करनी ही पड़ेगी।
लेनिन और उनके बाद माओ ने कई जगह कई बार इस बाबत लिखा था कि समाजवादी समाज पूँजीवाद और वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमणकाल होता है, जिस दौरान वर्ग संघर्ष जारी रहता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का खतरा लम्बे समय तक बना है। पहले तो उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व भी पूरी तरह समाप्त होने में समय लगता है, बड़े पूँजीपतियों और भूस्वामियों के स्वामित्वहरण के बाद भी गाँवों-शहरों में छोटे निजी उत्पादक बचे रहते हैं, क्योंकि उन्हें बल-प्रयोग की जगह नजीरों के जरिये कायल करके ही समाजवाद के पक्ष में लाना होता है। जब तक यह छोटे पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन जारी रहता है, तब तक ‘प्रतिदिन, प्रतिघण्टा’ नये बूर्जुआ तत्व पैदा होते रहते हैं।
इसके बाद उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण की समस्या को भी समझ लें। उत्पादन सम्बन्धों के तीन पहलू होते है : (i) स्वामित्व का स्वरूप , (ii) उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध, और (iii) उत्पादों के वितरण का स्वरूप। यह बात समझनी होगी कि निजी मालिकाना समाप्त होने मात्र से समाज समतामूलक नहीं हो जाता। उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की समाप्ति के बाद भी समाजवादी समाज में लम्बे समय तक ‘क्षमता मुताबिक काम करने और आवश्‍यकता मुताबिक पाने’ की जगह श्रमशक्ति के मूल्य के भुगतान की प्रणाली तथा नैतिक प्रोत्साहन की जगह भौतिक प्रोत्साहन (यथा, बोनस, ओवरटाइम आदि) की व्यवस्था जारी रहती है और चूँकि लोगों की श्रम करने की क्षमता प्राकृतिक रूप से कम-ज्यादा होती है, इसलिए समाज में लगातार असमानता पैदा होती रहती है। तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताएँ (गाँव और शहर के बीच, कृषि और उद्योग के बीच तथा शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच अन्तर) भी लम्बे समय तक बनी रहती है और इनके आधार पर स्थापित सामाजिक असमानता और बूर्जुआ अधिकार भी मौजूद रहते हैं। वेतनों की असमानता भी समाप्त होने में समय लगता है। यह तो हुई आर्थिक मूलाधार यानी उत्पादन सम्बन्धों की बात, अब यदि सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना की बात करें; तो समाजवादी समाज में बूर्जुआ मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएँ-आदतें और संस्कार लम्बे समय तक मौजूद रहते हैं जो उत्पादन सम्बन्ध और पूरे समाज के समाजवादी रूपांतरण की राह में रोड़े अँटकाते रहते हैं। इन सभी उपादानों के योगात्मक प्रभाव से राजनीतिक अधिरचना यानी पार्टी और राज्य की मशीनरी के भीतर नौकरशाही के मजबूत होने की जमीन तैयार होती है और एक नया बूर्जुआ वर्ग पैदा होता रहता है। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का खात्मा समाजवाद की बुनियाद है, जो जबर्दस्त आर्थिक-सामाजिक प्रगति के द्वार खोल देती है, पर इतने से ही समाजवाद अपने आप आगे नहीं जा सकता। इसके लिए उत्पादन सम्बन्धों के उपर्युक्त शेष दो पहलुओं पर भी ध्यान देना होता है, उनका सतत क्रान्तिकारी रूपान्तरण करना होता है, बूर्जुआ अधिकारों को क्रमश: समाप्त करना होता है और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक ऊपरी ढाँचे के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति चलानी होती है। स्तालिन काल की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के उन्मूलन मात्र को समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना का कार्यभार पूरा होना मान लिया गया। यह मान लिया गया कि बस, अब उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित करते जाना होगा और ऐसा होते जाने के साथ ही वर्गों का अपने आप विलोपन होता चला जायेगा। इस सैद्धान्तिक गलती के कारण, पार्टी और राज्य के तंत्र के भीतर नये बूर्जुआ वर्ग के फलने-फूलने की प्रक्रिया जारी रही और उसका सामाजिक आधार मजबूत होता रहा। स्तालिन ने अनुभवसंगत ढंग से तो समाजवाद के इन अन्दरूनी शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष चलाया, लेकिन इनके पैदा होने की प्रक्रिया को सैद्धान्तिक तौर पर नहीं समझ सके। अनुभवसंगत ढंग से संघर्ष चलाने के कारण ही 1930 के दशक में समाजवाद के शत्रुओं के दमन का दायरा विस्तारित हो गया और कई बेगुनाह और विभ्रमित लोग भी उसकी चपेट में आ गये। इसी को नमक-मिर्च लगा कर पूरी दुनिया का बूर्जुआ प्रचार तंत्र स्तालिन को भी हिटलर जैसा सनकी तानाशाह बताने का काम शीतयुद्ध के जमाने से करता आ रहा है। हाल के दशकों के दौरान, रूसी अभिलेखागार खुलने के बाद ग्रोवर फर, मारियो सूसा आदि दर्जनों शोधकर्ताओं ने दस्तावेजों के आधार पर इस झूठ को तार-तार कर दिया है, लेकिन दुनिया के ज्यादा लोग तो अभी भी स्तालिन को उसी चश्‍मे से देखते हैं जो बूर्जुआ विद्वानों और मीडिया ने उन्हें पहनाया है।
स्तालिन काल के दौरान, कम्युनिस्ट वेशधारी जो नया बूर्जुआ वर्ग फला-फूला था, उसी ने स्तालिन की मृत्यु के बाद, संशोधनवाद का परचम लहराते हुए ख्रुश्‍चोव की अगुवाई में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के काम को अंजाम दिया। इस ऐतिहासिक पराजय के बाद, सोवियत समाज में भ्रष्‍टाचार, सत्ता की निरंकुशता, बूर्जुआ विशेषाधिकार, असमानता आदि तेजी से बढ़े, लेकिन दूसरी ओर, समाज में तृणमूल स्तर पर समाजवादी संस्थाएँ, मूल्य और स्पिरिट भी लम्बे समय तक मौजूद बने रहे और दुनिया में बहुतेरे लोगों में यह भ्रम बना रहा कि कतिपय बुराइयों के बावजूद समाजवाद सोवियत संघ में अभी भी कायम है। 1980 का दशक आते आते समाजवाद नामधारी सोवियत राजकीय पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक आन्तरिक गति से जड़ता और संकटों के भँवर में फँस कर चरमराने लगा था, जिसकी परिणति 1990 में सोवियत संघ के विघटन तथा रूस और सभी पूर्व सोवियत गणराज्यों में पश्चिमी ढंग की खुली बाजार अर्थव्यवस्था और निजी एकाधिकारी पूँजीवाद के रूप में सामने आयी। नियोजित अर्थतंत्र, सोवियतों का ढाँचा और तृणमूल स्तर पर बची-खुची समाजवादी संस्थाएँ एक झटके से टूट कर बिखर गयीं।
सोवियत संघ में स्तालिन काल के समाजवादी प्रयोगों और उनकी पराजय के कारणों के लम्बे गहन अध्ययन के बाद माओ त्से-तुङ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने यह निष्‍कर्ष निकाला कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को तभी रोका जा सकता है और समाजवादी रूपांतरण को तभी आगे बढ़ाया जा सकता है जब उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के समाप्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों के सभी पहलुओं के उच्चतर धरातल के समाजवादी रूपांतरण का काम लगातार जारी रखा जाये, सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति जारी रखी जाये तथा चौतरफा सर्वहारा अधिनायकत्व को कायम रखने के लिए पार्टी और राज्य के ढाँचे के भीतर से पैदा होने वाले बूर्जुआ तत्वों के विरुद्ध लगातार वर्ग संघर्ष चलाया जाये। चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-76) इसी सोच का अमली रूप थी, लेकिन तब तक चीन में भी देर हो चुकी थी और नये बूर्जुआ तत्वों ने अपना सामाजिक आधार इतना मजबूत बना लिया था कि 1976 में माओ की मृत्यु के बाद वहाँ भी ‘बाजार समाजवाद’ के नाम पर पूँजीवाद फिर से बहाल हो गया।
लेकिन जो लोग यह समझते हैं कि अक्टूबर क्रान्ति द्वारा प्रज्वलित मशाल हमेशा के लिए बुझ चुकी है और मार्क्सवाद की विचारधारा अब गलत एवं अव्यावहारिक सिद्ध हो चुकी है, वे बूर्जुआ सिद्धान्तकारों और प्रचार तंत्र द्वारा निर्मित ‘मिथ्या चेतना’ के शिकार हैं। आज दुनिया के परिवर्तनकामी मेहनतकशों के पास कोई बड़ी पार्टी या समाजवादी राज्य भले न हो, लेकिन वह सैद्धान्तिक समझ इतिहास की स्लेट से मिटायी नहीं जा सकती, जो बताती है कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को कैसे रोका जा सकता है और समाजवाद के अग्रवर्ती विकास का रास्ता क्या होगा। आज जरूर क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है, लेकिन प्रतिक्रिया की यह विजय अन्तिम नहीं है। पूँजीवाद जैसी अनाचारी, मानवद्रोही व्यवस्था मानव इतिहास की अन्तिम मंजिल हो ही नहीं सकती। आज का पूँजीवाद असाध्य ढाँचागत संकट और अन्तकारी (टर्मिनल) व्याधियों से ग्रस्त है। सीमित लोक कल्याणकारी स्वरूप अपनाने की क्षमता भी यह खो चुका है। दुनिया में बूर्जुआ जनवाद सर्वत्र छीज रहा है और सभी जगह फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार हो रहा है। लोभ-लाभ की अंधी हवस विनाशकारी युद्धों के अतिरिक्त ऐसी पर्यावरणीय तबाही को जन्म दे रही है कि पृथ्वी पर मानव सभ्यता का वजूद ही खतरे में पड़ता जा रहा है। ऐसे में समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है और देर-सबेर मनुष्‍यता इसी दिशा में आगे कदम बढ़ायेगी।
यदि विश्‍व-ऐतिहसिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। इतिहास में सामाजिक क्रान्तियों के शुरुआती संस्करण प्रायः पराजित होते रहे हैं। अपनी निर्णायक जीत के पहले उदीयमान वर्ग ह्रासमान वर्ग से और उदीयमान व्यवस्था ह्रासमान व्‍यवस्‍था से एकाधिक बार पराजित होती रही है। पूँजीवाद ने भी सामंतवाद पर कई पराजयों और पुनर्स्थापनाओं के बाद फैसलाकुन जीत हासिल की थी और इसमें लगभग तीन शताब्दियों का समय लग गया था। अक्टूबर क्रान्ति को तो अभी महज सौ साल ही बीते हैं। यह भी ध्यान में रखना होगा कि सर्वहारा क्रान्तियों का रास्ता पूर्ववर्ती क्रान्तियों से अधिक कठिन, जटिल और लम्बा होगा, क्योंकि ये क्रान्तियाँ केवल पूँजीवाद के खिलाफ ही नहीं हैं, बल्कि चार-पाँच हजार वर्षों लम्बी उम्र वाले समूचे वर्ग समाज के विरुद्ध है और इनका लक्ष्य संक्रमण की एक लम्बी अवधि से गुजर कर वर्गविहीन समाज की स्थापना करना है।
अक्टूबर क्रान्ति से लेकर समाजवाद की पराजय तक का दौर पूँजी और श्रम के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र था। इतिहास अब इसके नये चक्र की शुरुआत की दहलीज की ओर आगे बढ़ रहा है। यह दौर नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का दौर है जब अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों के निर्माण की पूर्वपीठिका तैयार हो रही है। रोशनी फूटने के पहले, बेशक अँधेरा बहुत अधिक गहरा हो गया है।
यह बात विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि अक्टूबर क्रान्ति और उसकी उत्तरवर्ती क्रान्तियों से भावी क्रान्तियों की वाहक शक्तियों को बहुत कुछ सीखना होगा, लेकिन उन क्रान्तियों का अंधानुकरण कतई नहीं किया जा सकता। इतिहास कभी भी अपने को हूबहू नहीं दुहराता। आज के पूँजीवादी अर्थतन्त्र और राज्यतंत्र में काफी बदलाव आ चुके हैं, उन्हें अच्छी तरह जान-समझ कर ही नयी सर्वहारा क्रान्तियाँ अपनी राह और रणनीति का निर्धारण कर सकती हैं। कठमुल्लावादी नजरिया पुरानी क्रान्तियों को हूबहू दुहराने की कोशिश करता है, और इस तरह नयी क्रान्तियों की राह में रोड़े अँटकाता है। दूसरी ओर जो संसदमार्गी सुधारवादी कम्युनिस्ट (जैसे भारत की संसदीय वाम पार्टियाँ) अक्टूबर क्रान्ति की बुनियादी विचारधारा को ही छोड़ चुकी हैं, वे मार्क्सवाद को कलंकित और लांछित करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर रही हैं। इनके दूसरे छोर पर वे अतिवामपंथी दुस्साहसवादी खड़े हैं जो व्यापक मेहनतकश आबादी को जाग्रत और संगठित किये बिना देश के कुछ सुदूरवर्ती दुर्गम अंचलों में हथियारबन्द छापामार संघर्ष छेड़ कर इस राज्यसत्ता को ध्वस्त कर देने का दिवास्वप्न पाले हुए हैं। यह क्रान्तिकारी जनदिशा नहीं बल्कि आतंकवाद का रास्ता है जो अक्टूबर क्रान्ति की बुनयादी शिक्षा का निषेध करता है।
निस्सन्देह अक्टूबर क्रान्ति की मशाल बुझी नहीं है, लेकिन उसे जंगल की आग में तबदील कर देने के लिए क्रान्तिकारियों को इतिहास के साथ ही अपने-अपने देशों की सामाजिक-आर्थिक संरचना को भी समझना होगा, सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की गहरी समझ बनानी होगी और एक सही कार्यदिशा पर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी और आम मध्य वर्ग के लोगों को संगठित करना होगा।
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