Wednesday, May 24, 2017






संस्कृत काव्यशास्त्र में बहुत सारी उपयोगी और प्रासंगिक बातें कविता के बारे में कही गई हैं । प्राचीन आचार्यों का कहना था, कवि क्रांतदर्शी होता है -- कवयः क्रांतदर्शिनः । लेकिन इसके लिए ज़रूरी होता है कि वह जीवन-जगत की चीज़ों के बाह्य आवरण को हटाकर अंतस्तल तक पहुंचे , यानी प्रतीति को भेदकर सार तक पहुंचे । मार्क्स ने भी कहा था कि यदि वस्तुओं की प्रतीति ही सार हुआ करती तो विज्ञान की आवश्यकता ही नहीं होती । यानी वैज्ञानिक दृष्टि हमें प्रतीति को भेदकर सार तक पहुँचने में सक्षम बनाती है । कवि के पास जनजीवन और प्रकृति का व्यापक अनुभव ही नहीं , चीज़ों के मर्म तक पहुँचने की वैज्ञानिक दृष्टि भी होनी चाहिए । संस्कृत काव्यशास्त्र भी कहता है कि द्रष्टा होने पर भी कोई व्यक्ति तबतक कवि नहीं हो सकता जबतक दृश्यमान को वह अपने प्रातिभ चक्षु से अनुभूत दर्शन में रूपांतरित नहीं कर लेता और प्रभावी शब्दों के कलेवर में उसे प्रकट नहीं कर देता । जो कवि वस्तु की बाहरी सतह पर तैरता रहता है और भीतरी तह तक नहीं पहुँच पाता , वह कुकवि है , 'हठादाकृष्टानां कतिपयपदानां रचयिता' बनकर इधर-उधर से नोच-खसोटकर कविता की काया को बढ़ते रहने वाला तुक्कड़ है । संस्कृत आचार्यों का कहना था, कुकविता साक्षात मरण है ।

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