Thursday, May 18, 2017




चुनावी नतीज़े अप्रत्याशित नहीं हैं | यह भूलना नहीं चाहिए कि जनता जब पूंजीवादी संकट के दौर की तमाम विपत्तियों को झेलती रहती है , उससमय पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति के लिए उसे संगठित करने वाली क्रांतिकारी हरावल शक्ति यदि मौजूद न हो, तो फासिस्टों के लोकरंजकतावादी नारे,वायदे और जुमले उसे सबसे अधिक आकृष्ट करते हैं | हिटलर भी जनता के वोटों से सत्ता तक पहुंचा था | असाध्य ढांचागत संकट से गुजरती पूंजीवादी दुनिया में पश्चिम में भी बूर्जुया जनवाद छीज-सिकुड़ रहा है और फासिस्ट शक्तियाँ सिर उठा रही हैं |भारत जैसे देशों की स्थिति उनसे भी बदतर है | हिंदुत्ववादी फ़ासिज़्म व्यवस्था के संकट की उपज है और भारतीय पूंजीपति वर्ग की ज़रूरत है | हर फ़ासिज़्म की तरह यह भी निम्न-बूर्जुया वर्ग का एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन है ,जिसे एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन खड़ा करके ही पीछे धकेला जा सकता है | आज यदि क्रांतिकारी वाम की राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर कोई प्रभावी मौजूदगी होती, तो बेशक वह संसदीय चुनावों के मंच का भी इस्तेमाल करता, लेकिन उसका मुख्य काम होता एक जवाबी क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन खड़ा करना और फासिस्टों के विरुद्ध मजदूरों के जुझारू दस्ते संगठित करना | चुनावी हार से फासिस्ट लहर नहीं रुक सकती | हारकर भी फासिस्ट समाज में उत्पात और विनाश का अपना काम जारी रखेंगे | केवल क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन, मजदूरों के संगठित जुझारू दस्ते और रेडिकल प्रगतिशील युवाओं-बुद्धिजीवियों की सड़क पर उतरने वाली ताकत ही फासिस्ट लहर को रोक सकती है और केवल आगे बढ़ती क्रांतिकारी लहर ही इसे निर्णायक तौर पर पराजित कर सकती है |
जो चुनावी वामपंथी गैर भाजपा पार्टियों का गठजोड़ बनाकर मोदी लहर को पीछे धकेलने का मुगालता पाले रहते हैं वे जनता में एक खतरनाक विभ्रम पैदा करने का ऐतिहासिक अपराध करते रहे हैं |ये लोग 1920 और 1930 के दशक के सामाजिक जनवादियों से भी अधिक गंदा काम कर रहे हैं | कुर्सीतोड़ वाम बुद्धिजीवियों के तो कहने ही क्या ! चुनाव से पहले इनमे से कुछ राहुल-अखिलेश को तारक-उद्धारक मान बैठे थे तो कुछ एकदम बसपाई हो गए थे | अब ये सभी लोग स्यापा करने में लगे हैं | लखनऊ के एक चिंतक कहलाने वाले जनवादी आलोचक हैं वे तो सपा के रंग में इसकदर डूब गए थे कि मतवाले हो गए थे |वे अखिलेश और मायावती को यह राय दे रहे थे कि उन्हे लोहिया और कांशीराम की राजनीति को ज़िंदा करना चाहिए क्योंकि इसीसे हिन्दुत्व की राजनीति को पीछे धकेला जा सकता है ! ये मार्क्सवादी "चिंतक-आलोचक" महोदय मार्क्स-लेनिन का तो लगता है नाम ही भूल चुके हैं और फ़ासिज़्म की मार्क्सवादी विवेचना उन्होने या तो पढ़ी ही नहीं है या फिर उसे outdated मानते हैं | लोहिया और कांशीराम में प्रगतिशीलता का संधान करने वाले विद्वान आलोचक महोदय वैसे भी इधर अपनी आलोचना में Identity Politics और subaltern इतिहास-दृष्टि की खिचड़ी कुछ ज्यादा ही पकाने लगे थे | बहरहाल,अखिलेश की सरकार नहीं बनने से उक्त विद्वान-श्रेष्ठ का एक व्यक्तिगत नुकसान तो यह हुआ है कि 'यश भारती' पाने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है |
क्रांतिकारी वाम की शक्तियाँ चाहे जितनी कमज़ोर हों उन्हे मजदूर वर्ग को राजनीतिक संघर्षों में उतरते हुए फ़ासिज़्म के विरुद्ध सड़कों पर प्रतिरोध संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ना होगा |साथ ही उन्हे मेहनतकश जनसमुदाय और मध्य वर्ग के बीच एक शक्तिशाली प्रगतिशील सामाजिक आंदोलन खड़ा करने में खुद को झोंक देना होगा |फासिज़्म के विरुद्ध जनता को ही जनदुर्ग में तब्दील कर देने की अनवरत कोशिशों के साथ ही एक नए क्रांतिकारी अभ्युत्थान की दिशा में आगे बढ़ना संभव हो पाएगा |
 -- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

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