एक बार जब प्रेम का आवेग खत्म हो गया तो वह दुबारा नहीं आ सकता। रिश्तों में पैबंदसाजी़ नहीं की जा सकती। पुरुष को तो घर संभालने वाली 'हाउसकीपर' की ज़रूरत होती है, लेकिन प्रेम की समाप्ित के बाद स्त्रियां क्यों दाम्पत्य को चलाते रहना चाहती हैं? - कभी बच्चों के लिए, कभी समाज क्या कहेगा, इस डर से।
इन्हीं अर्थों, में बुर्जुआ समाज में शादी एक संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ित होती है। बिना प्यार के शादी होती है जो दैहिक आकर्षण की समाप्ित के बाद बस कभी-कभार दैहिक क्षुधातृप्ित के काम आती है और आपसी सुविधा का गठजोड़ होती है। जो शादियां प्रेम और स्वतंत्र निर्णय आधारित होती हैं, बुर्जुआ समाज का अलगाव वहां भी जल्दी ही रिश्तों में ठण्डापन ला देता है और फिर आपसी सहूलियतों का एक गंठजोड़ मात्र बाक़ी बच जाता है।
एकनिष्ठ प्यार का पैमाना सिर्फ स्त्रियों पर लागू होता है, पुरुष सदा से इस बंधन से स्वतंत्र रहे हैं। अब स्त्रियां भी नकारात्मक निराशावादी विद्रोह करते हुए एकनिष्ठता के बंधन तोड़ रही हैं तो पुरुष इस पर चिल्लपों भी मचा रहे हैं और इस स्थिति का फायदा भी उठा रहे हैं।
बुर्जुआ समाज में प्रेम वही कर सकते हैं जो अपने व्यक्ितत्व को एलियनेशन से मुक्त कर सकते हों, जो अपने व्यक्तित्व और विचारों को निरंतर नया बनाते हुए अपने आपसी रिश्तों को और प्रेम को भी नया बनाते रह सकते हों। यह बेहद कठिन है। यह उतना ही कठिन है जितना क्रांति करने में आजीवन लगे रहना।
एक क्रांतिकारी कभी समझौता नहीं करता। प्रेम के मामले में भी कभी समझौता नहीं किया जा सकता।
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