एक दर्शनवेत्ता और विचारक हुए बिना कोई सच्चे अर्थों में आलोचक हो ही नहीं सकता। किसी साहित्यिक रचना या कलाकृति में जीवन का कलात्मक पुनर्सृजन होता है, जीवन का जटिल परावर्तन होता है। आलोचना कृति की प्रतीति को भेदकर सार तक पहुँचने की प्रक्रिया होती है। इसे वही कर सकता है, जिसके पास एक सुनिश्चित विश्वदृष्टिकोण हो, एक सुनिश्चित पद्धतिशास्त्र हो और जो इनके आधार पर कला के सौन्दर्यात्मक विधानों की स्पष्ट समझदारी हासिल कर चुका हो।
कोई भौतिकवादी विश्वदृष्टिकोण और द्वंद्वात्मक पद्धति के गहन अध्ययन के बिना एक मार्क्सवादी आलोचक होने का दावा भला कैसे कर सकता है? केवल कुछ मार्क्सवादी आलोचकों की आलोचनाएँ और आलोचना सिद्धान्त की कुछ पुस्तकें पढ़कर कोई आलोचक कैसे बन सकता है? हिन्दी के आज के ज्यादातर स्वनामधन्य मार्क्सवादी आलोचक मार्क्सवादी दर्शन के अध्ययन के मामले में लगभग अनपढ़ है। मार्क्सवादी आलोचना सैद्धान्तिकी भी वे कम ही पढ़ते हैं और यदि पढ़ते भी हैं तो मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, प्लेखानोव, मेहरिंग, लुनाचार्स्की, वोरोव्स्की, वोरोन्स्की, लुकाच, ब्रेष्ट, लिफिशत्ज़ आदि के कला-साहित्य विषयक विचारों और क्लासिकी कृतियों के बजाय यूरोपीय अकादमिक वाम, फ्रैंकफर्ट स्कूल और भाँति-भाँति के नववामपंथी स्कूलों के विचारों को अधिक पढ़ते हैं। किसी स्पष्ट वैचारिक अवस्थिति के अभाव में वे अमेरिकी समाजशास्त्रीय साहित्यलोचना, उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर मार्क्सवाद,'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स', उत्तर उपनिवेशवाद आदि नवप्रत्ययवादी और नवअधिभूतवादी धाराओं से भी कुछ चीज़ें उधार लेकर उन्हें मार्क्सवाद के साथ फेंटते-फाटते रहते हैं और कुछ नये फैशनेबुल जुमले गढ़ते रहते हैं।
ज्यादातर तो यह भी नहीं करते। वे आलोचना के नाम पर पुस्तक-समीक्षा मार्का लेख लिखते रहते हैं और फिर उन्हें इकट्ठा करके आलोचना की किताब छपा देते हैं। यह पहले से तय होता है कि किसे उठाना है और किसे गिराना है। ऐसी आलोचनात्मक कृतियाँ सुन्दर लच्छेदार भाषा-शैली में कूपमण्डूकतापूर्ण और सतही बातों की पोटली मात्र होती हैं। सबकुछ हदबंदी-चकबंदी-गुटबंदी का मामला होता है। कवि-लेखक बनना हो तो पैसे देकर किसी स्थापित प्रकाशक से किताब छपवाइये और फिर उसे सूची बनाकर सम्मानार्थ/समीक्षार्थ पत्रिकाओं में थोकभाव से लिखते रहने वाले कथित आलोचकों और साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालने वाले स्थापनापिपासु सम्पादकों को भिजवाइये। अपने नगर में गोष्ठी कराकर ऐसे आलोचकों को मुख्य अतिथि वक्ता बनाकर सम्मानित कीजिए, रसरंजन कराइये। माता की कृपा बरसेगी और जल्दी ही आप स्थापित हो जायेंगे। यदि आप अफसर, प्रोफेसर या पत्रकार हुए तो कृपा सुनामी की तरह आयेगी।
जब आप थोड़ा चमक जायेंगे तो आलोचक तो आपके लिए उन किन्नरों के समान होंगे, जो किसी के घर बच्चा होने पर पैसे लेकर आते हैं और बधावा बजाते हैं, नाचते-गाते हैं। बच्चा बस उसी दिन 'स्टार' होता है, फिर माँ-बाप को चाहे जितना प्यारा हो, टोले-मुहल्ले के लिए वह तमाम बच्चों में एक बच्चा होता है, पहचानविहीन!
साहित्यलोचना एक बेहद जिम्मेदार सामाजिक कर्म होता है, लेकिन आज यह जिम्मेदारी ढेर सारे कूपमण्डूक बौनों ने अपने कंधों पर उठा रखी है। स्वनामधन्य मार्क्सवादी आलोचकों ने मार्क्सवाद की ऐसी-तैसी करते हुए प्रगति और प्रतिक्रिया के बीच की सारी विभाजक रेखाएँ अपने लेखन में भी उसीप्रकार मिटा दी हैं, जैसे जीवन में मिटा दी हैं। यह हिन्दी वामपंथी आलोचना का विदूषक युग है, या फिर अंधकार युग।
हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना शैशव और कैशार्य को पार कर मुक्तिबोध के साहित्य-चिन्तन में वैचारिक परिपक्वता हासिल कर रही थी। वहाँ से आगे, विकास के नाम पर ज्यादातर, भाँति-भाँति की अँधेरी, सीलनभरी गलियों में विपथगमन ही हुआ है, या फिर पिष्टपेषण और मुदर्रिसी खाताबही जैसा काम हुआ है। वास्तव में नया, वास्तव में मौलिक, कुछ भी नहीं हुआ है। नयी-नयी, एक से एक मौलिक मूर्खताएँ और अहम्मन्य आत्ममुग्ध कूपमण्डूकताएँ ज़रूर सामने आयी हैं।
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