Wednesday, May 24, 2017

एक शाम : एक दृश्यचित्र


एक शाम : एक दृश्यचित्र
(मुक्तिबोध और शमशेर को एकसाथ समर्पित)

ढल चुकी है शाम
अँधेरे में गर्क हो चुकी है पश्चिमी क्षितिज पर लालिमा । 
ज़िंदगी पर झुका हुआ है
गहराता हुआ फासिस्ट अँधेरा
जिससे बेफ़िक्र बच्चे अभी भी खेल रहे हैं
इस विशाल पार्क के खुलेपन में ।
काले जल के किनारे
झुरमुटों में कुछ जोड़े
आलिंगनबद्ध-निश्शब्द ।
बत्तखें बैठी हैं आपस में सटकर-दुबककर , ऊँघती हुई ,
न छेड़े जाने की याचना के साथ ।
चाँदनी विक्षिप्त , नीरस और उदास ।
बुद्धिजीवी जा रहे हैं अपने अध्ययन-कक्षों में
और उनकी पत्नियाँ किचन में ।
कुछ और बस्तियों को ज़मींदोज़ करने की
तैयारी हो रही है नगर निगम के कार्यालय में ,
हज़ारों कारपोरेट बोर्ड रूमों में नई छंटनियों की
रणनीतियाँ बन रही है ,
दुनिया के कई हिस्सों में फिर से बमबारी हो रही है ,
कुछ मंत्रणागृहों में पूँजी निवेश के
नए क़रारों पर दस्तख़त हो रहे हैं
और कुछ में हत्यारे और बलात्कारी अपनी अगली कार्रवाइयों के बारे में
गुफ़्तगू कर रहे हैं ।
यहीं बैठे हैं हम कुछ लोग यह सोचते हुए
कि 'आलोचना के शस्त्र' को इतिहास कैसे बदलेगा फिर से
'शस्त्र द्वारा आलोचना' के रूप में ।
बेशक तबतक रोज़मर्रे की लड़ाइयों में शिरकत और दूरवर्ती लक्ष्य की
याददिहानी के साथ हम अमल करेंगे
पाब्लो नेरूदा की नसीहत पर ,
प्रतीक्षारत कोरे कागज़ को
अपने रक्त और अंधकार से भरेंगे
ज़िंदगी जैसी विह्वल और मलिन कवितायें लिखकर ,
हारी हुई लड़ाइयों की याद में ,
जीतने के लिए लड़ने की तैयारियों में मशगूल ।
'जो चीज़ों के "बुरे स्वाद" से दूर रहेंगे
वे एकदिन बर्फ पर औंधे मुँह गिर जाएंगे'
-- कहा था यह भी नेरूदा ने ही कभी ।

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