Wednesday, May 24, 2017




मार्क्स की जिस 'प्रोमेथियन स्पिरिट' की बात अक्सर की जाती है वह तो छात्र-जीवन में ही उनमें घर कर चुकी थी । "सच तो यह है कि मैं देव-मंडली से घृणा करता हूँ"-- प्रोमेथियस की इस साहसी गर्वोक्ति के अनुरूप मार्क्स न केवल सभी "सांसारिक देवताओं" से युवावस्था में ही घृणा करने लगे थे, बल्कि निरंकुश सत्ताधारियों के नीच चाकरों को "डरपोंक खरगोश" कहकर उन्हें चुनौती भी देने लगे थे । सरकारी नौकरी के प्रस्ताव को उन्होने प्रोमेथियस के ही अंदाज़ में गर्वीले ढंग से ठुकरा दिया ;
"दुर्भाग्य के बदले में कर लूँ मैं चाकरी
जान लो अच्छीतरह, यह हो नहीं सकता ।
पिता जीयस का बन जाऊँ खिदमतगुज़ार?
बेहतर है इससे, चट्टान से बंधा रहूँ । "
(मार्क्स : 'प्रकृति के डेमोक्रिटियन और एपीक्यूरियन दर्शन
के बीच अंतर')
मार्क्स के अत्यधिक साहसी सत्ता-विरोधी और "वामपंथी" होते जा रहे रुख से उनके ब्रूनो बावेर जैसे वे तरुण हेगेलपंथी दोस्त भी घबराने लगे थे जो सिद्धान्त के क्षेत्र में साहस की डींगें मारा करते थे । ब्रूनो बावेर ने मार्क्स से यह अनुरोध किया था कि वे अपने शोध-प्रबंध की चुनौती भरी प्रस्तावना का स्वर नरम कर दें और प्रतिक्रियावादी मंत्री एइखहोर्न से माफी मांग लें । उन्होने मार्क्स को दार्शनिक संघर्षों में सतर्क रहने और सरकार की आलोचना से बाज आने की सलाह दी जिसे मार्क्स ने कंधे उचकाकर हवा में उड़ा दिया ।
युवा एंगेल्स तब मार्क्स के संपर्क में आ चुके थे और दुनिया की महानतम मैत्रियों में से एक की शुरुआत हो चुकी थी । एंगेल्स ने भी मार्क्स की तरह युवावस्था में काव्य-प्रयोगों में कुछ हाथ आजमाये थे । 1841 में उन्होने 'विश्वास की विजय' नामसे एक कविता लिखी थी जिसकी शुरू की चार पंक्तियों में ब्रूनो बावेर का एक व्यंग्यचित्र है और फिर कविता में मार्क्स का प्रवेश होता है एक दुर्द्धर्ष योद्धा के रूप में :
"बक रहा है तैश में वह मरियल शैतान-सा सब्ज़पोश,
कुटिल चेहरे पर है उसके क्रोध, अशांति और जोश ।
बाइबिल पर एतराज़ों का है एक सैलेरवां
हाथ में परचम लिए करता है सैरे-आसमां ।
और फिर तूफान की मानिंद ये कौन आ गया ?
त्रियेर का बाशिंदा, काले बाल, गुस्से से भरा
 उसकी आमद जैसे एक पर्वत-सा हो आ फटा ,
जिसकी आँखों से टपकता है उन्मत्त हौसला ।
हाथ बेबाकी से हैं कुछ इसतरह आगे बढ़े ,
फेंक देगा आसमानों की तनाबें नोचके । "
इस अंधेरे समय में हमारे देश के प्रबुद्ध युवाओं को भी सोचना ही होगा कि उन्हें माँद में रहने वाले 'डरपोंक खरगोश' जैसे सुरक्षावादी बुद्धिजीवियों का जीवन चुनना है या प्रोमेथियन स्पिरिट में एक तूफानी जीवन जीना है, हरजगह अन्याय के खिलाफ मोर्चा लेते हुए और मुक्ति-मार्ग का संधान करते हुए ।

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