Wednesday, May 24, 2017



पुरानी पीढ़ी के एक कामरेड हमलोगों की हिन्दी को लेकर बहुत दुखी-चिंतित रहते हैं । हमलोगों की हिन्दी को 'नंगी-बुच्ची-कंगली' कहते हैं ।
उनके अनुसार ,सटीकता के साथ वैचारिक बात करने वाले ज़्यादातर साथी भी अनुवाद की भाषा में लिखते हैं, सूखी और बेजान ! अपनी भाषा को बचाने और विकसित करने का काम केवल मार्क्सवादी ही कर सकते हैं क्योंकि विचार और व्यवहार के साथ भाषा के रिश्ते को मार्क्सवाद ही सही तरीके से व्याख्यायित करता है । दुर्भाग्य से मानविकी और दर्शन के क्षेत्र में दखल रखने वाले मार्क्सवादी अंग्रेज़ियत के भाषाई कुलीनतावाद के शिकार हैं और साहित्य में सक्रिय लोगों का कोई भाषाई प्रशिक्षण है ही नहीं ।
उक्त कामरेड की सलाह है कि वैचारिक-साहित्यिक अध्ययन चाहे हम जिस भाषा में करें, सोचने और लिखने का काम सप्रयास अपनी भाषा में ही करना चाहिए । दूसरे , उनकी अक्सर राय होती है कि अपनी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए हमें पुरानी और नई पीढ़ी के लेखकों के अलग-अलग शैली के गद्य पढ़ना चाहिए । जैसे, संस्कृत-बांगला और तद्भव-देशज शब्दों की मिलावट से पैदा हुई रससिक्तता और लालित्य के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी का गद्य, सहज अभिव्यक्ति के प्रवाह के लिए महादेवी का गद्य, वर्णन के ग्राफिक विस्तार की क्षमता के लिए निर्मल वर्मा का गद्य वैचारिकता का बोझ उठाने में मुक्तिबोध का अभिव्यक्ति की तलाश करता गद्य, और समकालीनों में ज्ञानरंजन,उदय प्रकाश, नीलाभ और देवी प्रसाद मिश्र का गद्य।
घटिया अनुवादकों को और सस्ते में ऐसा अनुवाद कराकर छापनेवाले प्रकाशकों को यदि कोई आतंकवादी तरीके से धमकाकर उनका कुकर्म बंद करवा दे तो हिन्दी का अकल्पनीय भला होगा । हिंदीवालों को मार्क्सवाद से दूर करने में उन घटिया और गलत अनुवादों की बहुत बड़ी भूमिका थी जो संशोधनवाद के दौर में प्रगति प्रकाशन,मास्को से आते थे और भाड़े के अनुवादकों के थोक भाव से किए गए कुकर्म हुआ करते थे ।
अभी भाषा के संकट और दुर्भाग्य को गहरा बनाने में सोशल मीडिया भी अहम भूमिका निभा रहा है ।

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