कविता और समाजवादी यथार्थवाद
बेशक सामान्य जन अपनी पीड़ा, तबाही और अहसासों को अपनी चेतना के स्तर पर ही व्यक्त करेंगे, लेकिन वह समाजवादी यथार्थवाद कत्तई नहीं होगा। समाजवादी यथार्थवाद महज जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति नहीं होता। सामाजिक यथार्थ की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि और पद्धति से की गयी पुनर्रचना ही समाजवादी यथार्थवादी कला हो सकती है। महज जीवनानुभवों से साहित्य में यथार्थ की रचना अनुभववाद है, यह प्रकृतवाद (नेचुरलिज़्म) है। यदि किसी कवि के पास आम जनता के जीवन का अनुभव हो, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि न हो तो वह प्रकृतवादी-अनुभववादी काव्य सृजन ही कर सकता है, समाजवादी यथार्थवादी नहीं। सामान्य जन के पास वैज्ञानिक दृष्टि नहीं होती, केवल जीवनानुभव होते हैं। राजनीति की तरह कला-साहित्य में भी हरावल की अपरिहार्य भूमिका होती है। इन दिनों क्रांतिकारी वाम धारा की राजनीति में भी यह प्रवृत्ति मौजूद है जो कहती है कि मज़दूर वर्ग स्वयं अपना रास्ता निकाल लेगा और संघर्ष के रूप स्वयं ईजाद कर लेगा। हरावल की भूमिका नकारने वाली यह प्रवृत्ति विशुद्ध स्वत:स्फूर्ततावाद और लोकवाद (पॉपुलिज़्म) है। साहित्य के क्षेत्र में भी, यह कहना कि सामान्य जन अपने जीवन को स्वयं समाजवादी यथार्थवादी कविता में ढाल लेंगे और आगे का रास्ता भी तलाश लेंगे -- यह विशुद्ध लोकवाद, अनुभववाद और प्रकृतवाद है जो वैज्ञानिक चेतना, विचारधारा और हरावल की भूमिका को सिरे से नकार देता है। मज़दूर आन्दोलन में विचारधारा बाहर से डाली जाती है -- लेनिन का यह विचार राजनीति के साथ कला-साहित्य के मोर्चे पर भी लागू होता है।
इस सन्दर्भ में लूकाच का विरोध करते हुए यथार्थवाद के बारे में ब्रेष्ट ने जो विचार रखे हैं, उन्हें पढ़ा जाना चाहिए। 'जनता का साहित्य किसे कहते हैं' -- मुक्तिबोध का यह लेख भी बहुत उपयोगी है। सामाजिक यथार्थ की आभासी सतह को भेदकर उसके सारभूत तत्व को वैज्ञानिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है। समाजवादी यथार्थवाद आभासी/अनुभूत यथार्थ की जगह सारभूत यथार्थ को व्यक्त करता है, वह यथार्थ का यथातथ्य चित्रण नहीं करता, बल्कि स्थितियों के विकास की दिशा, संभावनाओं और गतिकी को भी दिखलाता है। वह निष्क्रिय प्रेक्षक की जगह आलोचनात्मक विवेक से लैस सक्रिय अभिकर्ता तैयार करता है। इसीलिए समाजवादी यथार्थवाद जुझारू होता है, वह वर्ग संघर्ष में सक्रिय भूमिका के लिए जनमानस को ललकारता है (जाहिरा तौर पर वह ऐसा राजनीतिक नारे के तौर पर नहीं करता बल्कि कलात्मक मानदण्ड के सभी आग्रहों को पूरा करता हुआ सूक्ष्म और व्यापक स्तर पर, तथा परोक्ष रूप से करता है)। और इस रूप में, वह युद्ध का पैना हथियार होता है।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के इस कथन पर गौर कीजिए: '' सभी देशों की मेहनतकश जनता के हित में, लेखकों को एक लड़ाकू यथार्थवाद को अपनाने के लिए ललकारा जाना चाहिए। केवल एक समझौताहीन यथार्थवाद, जो सच्चाई पर, यानी शोषण-उत्पीड़न पर पर्दा डालने के सभी प्रयासों से जूझेगा, केवल वही शोषण और उत्पीड़न की कड़ी निन्दा कर उनकी कलई खोल सकता है।'' (थीसिस ऑन ऑर्गनाइजिंग द वाचवर्ड ''फाइटिंग रियलिज़्म'')
अन्यत्र ब्रेष्ट लिखते हैं: '' लेखन के ज़रिये लड़ो! दिखाओ कि तुम लड़ रहे हो! ऊर्जस्वी यथार्थवाद! यथार्थ तुम्हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ के पक्ष में खड़े हो! जीवन को बोलने दो! इसकी अवहेलना मत करो! यह जानो कि बुर्जुआ वर्ग इसे बोलने नहीं देता! लेकिन तुम्हे इजाज़त है। तुम्हे इसे बोलने देना चाहिये। चुनो उन जगहों को जहां यथार्थ को झूठ से, ताकत से,चमक-दमक से छुपाया जा रहा है। अन्तरविरोधों को उभारो!... अपने वर्ग के लक्ष्य को, जो सारी मानवता का लक्ष्य है, आगे बढ़ाने के लिये सबकुछ करो, लेकिन किसी भी चीज़ को सिर्फ इसलिये मत छोड़ दो, क्योंकि वह तुम्हारे निष्कर्षों, प्रस्तावों और आशाओं के साथ मेल नहीं खाती बल्कि ऐसे निष्कर्ष को ही छोड़ दो, बशर्ते सच्चाई आड़े न आये, लेकिन ऐसा करते हुए भी इस बात पर ज़ोर दो, कि उस भयंकर लग रही कठिनाई पर जीत हासिल कर ली गयी है। तुम अकेले नहीं लड़ रहे हो, तुम्हारा पाठक भी लड़ेगा, यदि तुम उसमें लड़ाई के लिए उत्साह भरोगे। तुम अकेले ही समाधान नहीं ढूँढ़ोगे, वह भी उसे ढूँढे़गा।'' (थीसिस फॉर प्रोलेतारियन लिटरेचर)
समाजवादी संक्रमण की लम्बी अवधि के बाद, (क) जब समाज में विचारधारा का प्रत्यक्ष प्राधिकार स्थापित हो जायेगा, (ख) जब मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्तर काफी हद तक मिट जायेगा, तथा, (ग) जब उजरती गुलामी से पूर्णत: मुक्त, सामूहिक उत्पादन करने वाले जन समुदाय के पास ज्ञान-विज्ञान-दर्शन-कला आदि की समझ हासिल करने के लिए खाली समय और बाधामुक्त सुविधा होगी, तभी जाकर सामान्य जन वैज्ञानिक दृष्टि और पद्धति से सामाजिक यथार्थ का कलात्मक पुनर्सृजन कर सकेंगे। साहित्य-सैद्धान्तिकी की मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझ हमें यही बताती है।
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