पिछले दिनों दाना माँझीको अपनी पत्नी का शव लेकर दस किलोमीटर चलते हम सबने टी वी पर देखा। उसीसमय कहीं पढ़ी हुई कोई कविता ज़ेहन में कौंधी पर याद नहीं आयी। अब जाकर मिली। वह नेरूदा की कविता की ये पंक्तियाँ थीं जहाँ एक ग़रीब मृत आदमी का वज़न सारी दुनिया का वज़न लगता है :
अब हमें मालूम होता है कि हम ले रहे हैं
वह सब जो हमने उसे कभी नहीं दिया था और अब बहुत देर हो चुकी है
वह हम पर भारी पड़ रहा है, और हम उसका भार ले नहीं सकते ।
उसका वज़न उतना ही जितना इस दुनिया का वज़न है, और हम चलते हैं
अपने कन्धों पर इस मरे हुए को लिए हुए। यह साफ़ है
कि स्वर्ग में रोटी पकाने की बहुतायत होना चाहिए।
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