Saturday, May 14, 2016





''यह सच है कि निजी सम्‍पत्ति अपनी आर्थिक गति के दौरान अपने को स्‍वयं अपने विघटन की ओर बढ़ाती है, परन्‍तु ऐसा वह अपने विकास के ज़रिए करती है, जो उसपर निर्भर नहीं करता, जो अचेतन है तथा जो ठीक वस्‍तु के स्‍वरूप के कारण निजी सम्‍पत्ति की इच्‍छा के विरुद्ध जन्‍म लेता है, केवल इसलिए कि वह जन्‍म देती है, सर्वहारा को सर्वहारा के रूप में उस दरिद्र को, जो अपनी आत्मिक तथा शारीरिक दरिद्रता से अवगत होता है, उस विमानवीकृत वर्ग को, जो अपने विमानवीकरण से अवगत होता है और इसलिए जो आत्‍म-विघटनकारी है। निजी सम्‍पत्ति सर्वहारा को पैदा कर अपने को जो सजा सुनाती है, उसकी सर्वहारा ठीक उसी तरह तामील करता है, जिस तरह सर्वहारा उस सजा की तामील करता है, जो उजरती श्रम ने दूसरों के लिए दौलत और अपने लिए गरीबी पैदा कर अपने को दी थी। जब सर्वहारा विजयी हो जाता है, तो वह समाज का कदापि निरपेक्ष पहलू नहीं बनता, क्‍योंकि वह केवल अपना और अपने विरोधी का उन्‍मूलन करके ही विजयी होता है। तब सर्वहारा लुप्‍त हो जाता है और साथ ही उसके विरोधी का, निजी सम्‍पत्ति का भी, जो उसे जन्‍म देती है, लोप हो जाता है।''

--कार्ल मार्क्‍स ('पवित्र परिवार')

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