तुम पूछोगे, क्यों मेरी कविता बताती है
पत्तियों और हरी नदियों के बारे में
और सुबह की इस बारिश में
पीछे लौटती लहरों पर फिरकी मारते
और गोते लगाते और धारा के साथ बहते
बत्तखों के उस कुनबे के बारे में।
कहाँ हैं बेरोज़गार लोग? -- तुम पूछते हो,
कहाँ हैं तमाम कूड़ा-कचरा, टूटी हुई खिड़कियाँ,
शौचालयों में उकेरे गये अश्लील चित्र,
शाप के शब्द और आरोप,
एक भटकी हुई पीढ़ी और क्रांति की उम्मीद?
तुम पूछोगे कि मेरी कविता इतनी सुन्दर क्यों है,
ये तमाम वनस्थलियाँ और शरद के ये आकाश,
जबकि नौकरियाँ दुर्लभ हैं और कला का गला घोंट दिया गया है
और आज़ादी तेल के बदले ख़रीदी और बेंची जाती है।
उन खेतों में नहीं हैं अब टिटिहरियाँ,
नहीं हैं ख़रगोश, बस पसरा हुआ है
शराब बनाने के बाद बची हुई अंगूर की पीली लुगदी का भभका,
और गेहूँ के बाद जौ के बाद गेहूँ।
बारिश में शांत पड़ चुके हैं चातक के गीत
और चाँद चढ़ता है हरेपन की अनुपस्थिति पर।
नरकुल के इन झुरमुटों में कभी हुआ करते थे बिटर्न पक्षी,
सालमन, किंगफिशर और कलगीदार बत्तख,
गाँव के स्कूल में बच्चे -- सभी जा चुके हैं।
इनके खात्में के अपराध को धोते हैं हम अपने हाथों से
ओह, देखो हमारे हाथों पर इनके खात्में का खून।
-- एलिज़ाबेथ रिम्मर
(आयरिश मूल की कवयित्री, इंगलैण्ड में जन्म, स्कॉटलैण्ड में निवास, रैडिकल फेमिनिस्ट, पर्यावरणवादी)
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