Thursday, February 04, 2016

सलाम उनको जिनकी रीढ़ की हड्डी सलामत है!





उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल के बाद अब साहित्य अकादमी फेलोशिप से सम्मानित वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती ने भी देश में बढ़ रही साम्प्रदायिक घटनाओं के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा की है। दादरी की घटना पर भाजपा के मंत्रियों के बयानों पर चिन्ता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि देश अब इस प्रकार की घटनाओं का सहन नहीं कर सकता है। इसके पहले मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका सारा जोसेफ भी अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर चुकीं हैं तथा मलयालम के कवि-लेखक के सच्चिदानन्दन, लेखिका शशि देशपाण्डे, के एस रविकुमार और वरिष्ठ लेखक पी.के.परक्कादावू  भी कलबुर्गी की हत्या के अभियुक्तों के विरुद्ध कार्रवाई में देरी और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के विरोध में साहित्य अकादमी से इस्तीफा दे चुके हैं। कन्नड़ के छ: लेखक भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर चुके हैं। अंग्रेजी कवि केकी दारूवाला ने अकादमी अध्यक्ष को पत्र लिखकर कलबुर्गी की हत्या की घटना पर साहित्य अकादमी की चुप्पी की कठोर आलोचना की है। उर्दू लेखक रहमान अब्‍बास ने दादरी की घटना के विरोध में महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया है और हिन्दी लेखक राजकुमार राकेश ने हिमाचल प्रदेश सरकार से प्राप्त 'गुलेरी सम्मान' लौटा दिया है। कन्नड़ कवि प्रो. चन्द्रशेखर पाटिल ने भी कर्नाटक का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार 'पम्पा प्रशस्ति' लौटा दिया है। आठ अन्य कन्नड़ लेखकों ने कन्नड़ साहित्य परिषद द्वारा दिया जाने वाला पुरस्कार 'अरालु प्रशस्ति' वापस कर दिया है।
आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित दस तेलुगू लेखकों ने प्रेस कांफ्रेंस करके और संयुक्त वक्तव्य जारी करके कट्टरपंथियों द्वारा लेखकों की हत्या और दादरी की घटना पर सरकारी रवैये की कड़ी निन्दा की है और कहा है कि फासीवाद और धार्मिक आधार पर देश को बाँटने वाली असहिष्णु शक्तियों का विरोध करना हमारा दायित्व है। फिल्मकार गोविन्द निहलानी और कर्नाटक संगीत के विख्यात प्रयोगशील गायक टी.एम.कृष्णा ने भी धार्मि‍क कट्टरपंथ विरोधी इस मुहिम के साथ अपना समर्थन प्रकट किया है।
आने वाले दिनों में सम्मान/पुरस्कार वापस करने का यह सिलसिला जारी रहेगा। संस्कृतिकर्मि‍यों और लेखकों का यह प्रतिरोध धर्मिक कट्टरपंथियों और मोदी सरकार के मुँह पर एक करारा तमाचा है। हम मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्र पति, चन्द्रकान्‍त देवताले, केदारनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी आदि हिन्दी साहित्यकारों से भी यह पुरजोर अपील करते हैं कि उन्हें मुजफ्फरनगर-दादरी जैसी घटनाओं, दाभोलकर-पानसारे-कलबुर्गी की हत्याओं और शैक्षिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के भगवाकरण की मुहिम के खिलाफ अविलम्ब साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा देना चाहिए और उसका पूरी तरह से बहिष्कार करना चाहिए। हमारे ख़याल से ऐसा न करना एक ऐतिहासिक भूल होगी। भाजपा सरकार का एकजुट होकर सांस्कृतिक बहिष्कार किया जाना चाहिए।
उधर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष गोरखपुर के 'तिवारी बाबा' (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) ने काफी देर से चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि अकादमी एक स्वायत्त संस्था है, अत: सरकार का विरोध करने के लिए अकादमी का पुरस्कार लौटाना अकादमी पुरस्कारों का राजनीतिकरण है। उनका यह भी कहना है कि पुरस्कार से लेखकों को जो कीर्ति मिली और कई भाषाओं में उनके जो अनुवाद छपे, उनकी वापसी भला कैसे हो सकती है? तिवारी बाबा, अकादमी ही नहीं, एफ.टी.आई.आई., आई.सी.एच.आर. और विश्वविद्यालय भी ''स्वायत्त'' हैं और उन सबका भगवाकरण हो रहा है। इस ''स्वायत्तता'' के बारे में सभी जानते हैं। और यदि अकादमी इतनी ही स्वतंत्र है, तबतो आपको काफी पहले ही लेखकों की हत्या और शिक्षा-संस्कृति के प्रतिष्ठानों के भगवाकरण के खिलाफ आवाज़ उठा देनी चाहिए थी। लेखकों की हत्या एक विशेष राजनीतिक धारा द्वारा की जा रही है, तो उसके विरुद्ध बोलने का काम तो साहित्य अकादमी को करना ही चाहिए। यदि इस मामले में राजनीति से दूरी की बात की जाये तो इससे अधिक घृणित भला और कौन सी बात होगी!
तिवारी बाबा, लेखकों को यदि यश और कीर्ति लेखन से नहीं, अकादमी पुरस्कार से मिलती हो और उस कीर्ति के लिए यदि उन्हें फासिस्ट हत्यारों के तमाम कुकृत्यों की अनदेखी करनी पड़े, तो सभी जेनुइन और स्वाभिमानी लेखकों को ऐसे अकादमी पुरस्कारों पर थूक देना चाहिए।
गिरिराज किशोर जैसे गाँधीवादी, असगर वजाहत जैसे प्रगतिशील और ऐसे ही कई लेखक तरह-तरह के लचर और बोदे तर्कों के साथ पुरस्कार-वापसी का विरोध भी कर रहे हैं। कहा यह भी जा रहा है कि आपातकाल के विरोध में, 1984 के सिख दंगों के विरोध में, बाबरी मस्जिद गिराये जाने पर या गुजरात-2002 के समय लोगों ने पुरस्कार क्‍यों नहीं लौटाये? अजीब तर्क़ है! यदि उससमय नहीं लौटाये तो इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि इस समय भी लौटाना ठीक नहीं है! यह बेहूदा तर्क बताता है कि यदि पहले संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध यह फार्म नहीं अपनाया तो आगे भी न अपनायें। दूसरी और अहम बात यह है कि पहले की घटनाओं से आगे बढ़कर धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्ट आज व्यवस्थित ढंग से समाज के बुर्जुआ जनवादी स्पेस को खत्म कर रहे हैं। लेखकों की हत्याएँ, दंगे, ''लव जिहाद'' का हौव्वा ''गाय बचाओ'' मुहिम, शिक्षा-संस्कृति का भगवाकरण, आर्थिक नीतियाँ और काले कानून -- इन सभी को एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया के अंग के रूप में देखना होगा। अकादमी पुरस्कारों की वापसी और सत्ता प्रतिष्ठानों का बहिष्कार -- यह महत्वपूर्ण शुरुआत है, लेकिन इतना ही काफी नहीं है। अभी आगे काफी कुछ करना होगा। फासिस्टी ज्वार प्रतिरोध्य है, बशर्ते कि हम पहले से तैयार हों और जन समुदाय के बीच सक्रिय हों। 

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