Friday, February 05, 2016

(दो कविताएँ) नालन्दा के गिद्ध/ श्मशान में पिकनिक

नालन्दा के गिद्ध

गिद्धों ने
नालन्दा के परिसर में स्थायी बसेरा बना लिया है।
पुस्तकालय में गिद्ध,
अध्ययन कक्षों और सभागारों में गिद्ध,
छापाखानों में गिद्ध, सूचना केन्द्रों में गिद्ध,
नाट्यशालाओं और कला-वीथिकाओं में गिद्ध।
गिद्ध नालन्दा से उड़ते हैं
बस्तियों की ओर
वहाँ वे जीवित संवेदनाओं, विश्वासों और आशाओं
को लाशों की तरह चीथते हैं,
पराजित घायलों और मृत योद्धाओं पर टूट पड़ते हैं।
फिर गिद्ध मार्क्सवाद से लेकर गाँधीवाद तक की भाषा में
मानवीय सरोकारों के प्रति गहरी चिन्ता जाहिर करते हैं
और तमाम बस्तियों को
अफ़वाहों, शक़-सन्देहों और तोहमतों की
बीट से भरते हुए
नालन्दा की खोहों में वापस लौट जाते हैं।


*



श्मशान में पिकनिक

पूँजी और सत्ता की
हर हत्यारी मुहिम के खिलाफ़
हम फेंफड़ों की पूरी ताकत से चीखते हैं
और मुट्ठियाँ तानकर
सड़कों पर उतरते हैं
हार-जीत की परवाह किए बगैर
क्योंकि हम जीवित हैं।
हम जीवित हैं
इसलिए महज़ कविताएँ नहीं लिखते
सुकूनतलब शांत कमरे में बैठकर
इस मृत्यु-उपत्यका के सन्नाटे के खिलाफ़।
कवि जो हत्याओं के समय में भी करते हैं
कला-चिंतन, ठिठोली और उखाड़-पछाड़,
उनकी आत्माएँ गिरवी हैं
महाजनों के पास
या फिर मर चुकी हैं काफी पहले।
वे लिखते हैं मनुष्यता के पक्ष में सुगढ़-कलात्मक कविताएँ
जिनमें हत्यारी सत्ता की कोई चर्चा नहीं होती।
वे लिखते हैं विश्व-पाठकों के लिए विश्व-स्तरीय कविताएँ,
भागते हैं भव्य अकादमियों की ओर
काव्य-पाठ करने और सम्मानित-पुरस्कृत होने के लिए
और सत्ता की चौखट पर यूँ श्रद्धापूर्वक दीया जलाते हैं
मानो वह ख्वाज़ा सलीम चिश्ती की दरगाह हो।
मरी हुई आत्माओं वाले कवि
हत्यारों के खिलाफ़
कभी सीधी-सपाट भाषा में नहीं बोलते।
कल उनका नाम भी
बच्चों के हत्यारों की सूची में
दर्ज़ पाया जाएगा।

*

(फासिस्टों और उनके लग्गू-भग्गुओं के साथ किसी भी किस्म की लल्लो-चप्पो करने वाले और गुटर-गूं करने वाले छद्म-प्रगतिशील बुद्धिजीवी केंचुआ और पाखाना के कीड़े से भी गए-गुजरे लोग हैं ! जनद्रोही बेशर्मों ! यह सारा कुकर्म तुम ख्याति और सम्मान-पुरस्कार के लिए करते हो, या भय के मारे करते हो ? अरे सड़क पर उतरने की और खुले गले से बोलने की हिम्मत नहीं है तो न सही, यह सब कुकर्म और कमीनगी तो मत करो ! सटके रहो छछून्दरों की तरह बिलों में ! हत्यारों की महफिलें सजाते हो, उनके खून सने हाथ चूमकर इनाम-वजीफे लेते हो और अपने को जनता का आदमी कहते हो ? डरो बद्जातो ! इतिहास और जनता तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगी !)

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