Wednesday, February 03, 2016

हमला हो चुका है!



बर्बर हमलावरों ने हमला बोल दिया है।
आगे बढ़ रहे हैं वे लगातार
सृजन, विचारों, कल्‍पनाओं और स्वप्नों को रौंदते हुए
तर्क की मृत्यु की घोषणा करते हुए
धर्मध्वजा लहराते हुए
शिक्षा, कला, संस्कृति और जन संचार के
सभी प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाते हुए
उन्हें जेलों में बदलते हुए
मिथकों को इतिहास बनाते हुए
ज़ुबानों पर ताले लगाते हुए
विवेक की गुप्तचरी करते हुए
विवेक के पक्ष में मुख़र आवाज़ों की गुप्त हत्याएँ करते हुए, 
वास्तविक दुनिया में वास्तविक और आभासी दुनिया में शाब्दिक हिंसा के
नये-नये तरीके ईजाद करते हुए।
मध्ययुगीन अंधकार में लिपटे हुए
वित्तीय पूँजी के प्यादे
हर तरह की उर्वरता, हरेपन, और सपनों को
जलाकर राख़ कर देने का मंसूबा लिए
हर बस्ती के आसपास
बारूदी सुरंगे बिछा रहे हैं।
याचनाओं, अनुरोधों से उन्‍हें रोका नहीं जा सकता।
चुप्पियों से बचाव नामुमकिन है।
दो ही रास्‍ते हैं --
या तो हमें घुटनों के बल बैठकर
उनके सफेद दस्‍ताने चढ़े खूनी हाथों को चूम लेना होगा
फिर पुरस्कृत होकर उस जुलूस में शामिल हो जाना होगा
जो पहले रात में निकलता था
और अ‍ब दिन के उजाले में निकलता है,
जिसमें हत्यारों के साथ चलते हैं
विचारक और सुधी कलावंत गण,
या फिर हमें पकड़े हुए एक-दूसरे के हाथ
तमाम आत्मिक और भौतिक सम्पदाओं के निर्माताओं के साथ
खड़ा होना होगा तनकर, उनके ऐन सामने
उनकी राह रोककर।
बेशक़, मुमकिन है कि हम मारे जायें
इस कोशिश में
लेकिन हमारी वह मौत भी एक चोट होगी
बर्बरों पर मारक,
हमारी हार भी यदि हो तो
आने वाले जीत के दिनों की भविष्यवाणी
दर्ज़ करेगी वक्त की छाती पर।
दुबककर, चुप रहकर, माफी माँगकर या
अराजनीतिक कला का पैरोकार बनकर जीना
यानी अपनी आने वाली पीढ़ि‍यों की नज़रों में
बन जाना हरामी, कायर और कमीना।
जीवन की भविष्योन्मुख यात्रा के पक्ष में
लड़ते हुए मरना
यानी ज़‍ि‍न्दगी की खूबसूरती को तृप्त होकर जीना
और आने वाली पीढ़ि‍यों में जीत का विश्वास भरना। 
विकल्प अधिक नहीं हैं
चुनना होगा इन्हीं दोनों में से किसी एक को हमें।

-- कविता कृष्णपल्लवी

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