आज मुद्दा यह नहीं है कि पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों ने इसे जोड़तोड और तीन-तिकड़म से हासिल किया था या नहीं। मुद्दा यह भी नहीं है कि अतीत में वे राग दरबारी गाने वाली जमातों में शामिल थे या नहीं। अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश का मार्क्सवाद-विरोध जगजाहिर और कुख्यात रहा है, लेकिन आज का मुख्य प्रश्न यह नहीं है। विचारधारात्मक स्तर पर इन लोगों के साथ संघर्ष जारी रहेगा, लेकिन उसका मंच अलग होगा। आज का केन्द्रीय प्रश्न यह है कि फासिस्ट हिन्दुत्ववादियों की कारगुजारियों का जिस किसी भी रूप में, जो भी कोई विरोध करता है, हमें उसका स्वागत करना चाहिए। यहाँ तक हम उनके साथ हैं। हमें इसके आगे की लड़ाई में भी उन्हें साथ लेने की अपनी ओर से कोशिश करनी चाहिए। जब जो पीछे हटे, तब उसकी आलोचना होनी चाहिए। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष सिर्फ मार्क्सवादी क्रांतिकारी ही नहीं करेंगे। अन्य जनवादी ताकतों को भी साथ लेना होगा, साथ ही उनके ढुलमुलपन और प्रतीकवादी प्रतिरोध की आलोचना भी करते रहना होगा। हम उम्मीद करते हैं कि साहित्य अकादमी और सत्ता के अन्य संस्कृति प्रतिष्ठानों से पुरस्कार और सम्मान पाये हुए लोग भी आगे आयेंगे और मोदी सरकार द्वारा शिक्षा-संस्कृति के भगवाकरण की नीतियों, मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी तक की घटनाओं तथा दाभोलकर-पानसारे-कुलबुर्गी की जघन्य हत्याओं के विरोध में अपने पुरस्कार व सम्मान वापस लौटा देंगे। इसमें आगे-पीछे की कोई बात नहीं है। इतना प्रतीकात्मक विरोध तो न्यूनतम है। लड़ाई लम्बी है। आगे देखना होगा कि कौन कहाँ तक डटा रहता है। लेकिन प्रतिरोध के छोटे से छोटे रूप की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। हिन्दुत्ववादी गोयबेल्सी प्रचार और उनकी लगातार जारी गुण्डागर्दी की हर घटना के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी और सड़कों पर उतरना होगा। काहिली और आरामतलबी के कारण घरों में बंद रहने वाले बुद्धिजीवियों को फासिस्ट कल बख़्शने वाले नहीं है। वही बचेंगे जो माफीनामा लिखेंगे और घुटनों के बल बैठने को कहने पर रेंगने लगेंगे। ''शान्तिप्रिय'' जनों को भी समझना होगा कि प्रतिरोध ही बचाव का एकमात्र रास्ता है उनके सामने। भाजपा सरकारों के सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होने वाले साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को क्या अभी भी यह समझ में नहीं आ रहा कि तुच्छ प्रलोभनों या हद दर्जे के अराजनीतिक अहमकपन में वे कितना बड़ा ऐतिहासिक अपराध कर बैठे? खै़र, जबसे होश आये तभी से सही! वरना यह भी तो कहा गया है: 'सबकुछ लुटा के होश में आये तो क्या हुआ!'
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