पिछले कुछ दिनों के दौरान सोशल मीडिया पर रवीश कुमार के साथ दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा की जा रही ऑनलाइन गुण्डागर्दी का मामला छाया रहा। बड़े पैमाने पर लोगों ने इसके विरोध में एकजुटता का इजहार किया। लेकिन साथ ही कुछ लोगों ने यह भी सवाल उठाया कि स्वयं रवीश कुमार बुर्जुआ मीडिया के एक ऐसे चेहरे हैं, जो उदारवाद-सुधारवाद की चौहद्दी से बँधे हैं, जो खुद एक ब्राण्ड और सेलिब्रिटी हैं, इसी व्यवस्था के चाकर हैं, खुद को 'विक्टिम' के रूप में पेश करके अपनी अच्छी मार्केटिंग कर रहे हैं, ... वगैरह-वगैरह। कुछ लोग उनके द्वारा महीने में उठाई जाने वाली लाखों की पगार, आलीशान अपार्टमेण्ट में लगे तीन ए.सी., उनकी जाति, उनके बाप और उनके उन बड़े भाई की चर्चा तक जा पहुँचे, जो फिलहाल जद(ए.) के टिकटार्थी हैं शायद। कुछ लोग यह भी बताने लगे कि राहुल गाँधी से रवीश की पुरानी निकटता रही है। इस चर्चा में कुछ चौबीस कैरेट के ''शुद्ध-बुद्ध'' क्रान्तिकारियों से लेकर कुछ यूँ ही गलचौर करने वाले और हर बात में फच्चर फँसाने वाले लोग शामिल हैं।
यहाँ सवाल यह है ही नहीं कि रवीश कुमार की राजनीति क्या है, उनकी पगार कितनी है और वे कितने अवसरवादी और जुगाड़ू हैं या नहीं हैं। मुद्दा यह भी नहीं है कि उनका तथाकथित रैडिकल तेवर नकली है, व्यवस्था के दायरे और सुधारों की चौहद्दी में कैद है। मूल मुद्दा धार्मिक कट्टरपंथी गुण्डों और भक्तजनों की फासिस्ट गुण्डागर्दी का है, कदम-कदम पर जनवादी अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का है। एम.एफ.हुसैन, अनंतमूर्ति, दाभोलकर, पानसारे, कालबुर्गी आदि पर हिन्दुत्ववादी फासिस्टों ने हमले किये। उससमय यदि हम हुसैन के विचारधारात्मक अन्तरविरोधों-सीमाओं को, अनंतमूर्ति की बुर्जुआ विचारधारा को या पानसारे की भाकपा सदस्यता को मुद्दा बनाते तो यह अतिवामपंथ का बचकाना मर्ज़ ही होता। अब निखिल वागले के अगला निशाना होने की बात आ रही है। तो वागले पर हमले के खिलाफ मुखर होकर बोलने के बजाय क्या हम उनकी कथित रैडिकल पत्रकारिता के पीछे की राजनीति की विवेचना करने बैठ जायेंगे?
हर बात की एक जगह होती है और एक समय होता है। हर विमर्श का एक सन्दर्भ-चौखटा होता है। विचारधारात्मक और राजनीतिक मुद्दों पर मतभेद को लेकर बहस का मंच और फ्रेमवर्क अलग है। जनवादी अधिकारों पर हमलों और फासिस्ट कारगुजारियों के विरुद्ध एकजुटता का मसला अलग है। हँसिये के ब्याह में खुरपे का गीत नहीं गाया जाता। बेमौसम का राग, अपने पिछवाड़े आग। यह ''अतिशुद्ध'' दीखने वाला वामपंथ अधकचरा वामपंथ है। मार्क्सवाद हमें बताता है कि नतीजे निकालने और कार्यभार का निर्धारण करने के लिए हमें हर समय तमाम अंतरविरोधों में से बुनियादी अन्तरविरोध और बुनियादी अन्तरविरोधों में से प्रधान अन्तरविरोध छाँटना होता है। रणनीतिक मोर्चे के अतिरिक्त रणकौशलगत मोर्चे भी होते हैं। निठल्ला वामपंथ मौक़े की नज़ाकत और वक्त की ज़रूरत समझे बिना हरदम कुछ बहसबाजी, चिकोटी काटने ओर मीन मेख निकालने में लगा होता है। समय कठिन है। फासिस्ट चुनौती सामने है। वस्तुत: हम रवीश कुमार या निखिल वागले के पक्ष में या उनके वर्गीय स्टैण्ड या राजनीति के पक्ष में कत्तई नहीं खड़े हैं, हम तो जनवादी अधिकारों पर हमले के खिलाफ़ खड़े हैं, फासिस्ट गुण्डागर्दी के खिलाफ़ खड़े हैं।
प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्तेयर ने कहा था, '' जो तुम कह रहे हो, उससे मैं सहमत नहीं, लेकिन तुम्हारे कहने के अधिकार की हिफाजत में मैं अपनी जान दे दूँगा।'' हम भी जब अभिव्यक्ति की आजादी का मसला उठाते हैं तो हमारा स्टैण्ड यही होना चाहिए। किसी नागरिक या बुद्धिजीवी से हमारी घोर असहमति हो सकती है, लेकिन उसकी ज़ुबान पर ताला लगाने की सत्ताधारियों की कोशिशों, उसपर फासिस्ट गुण्डों के हमलों-धमकियों और ऑनलाइन गुण्डागर्दी का तो हम बिला शर्त पुरजोर विरोध करेंगे ही।
यहाँ सवाल यह है ही नहीं कि रवीश कुमार की राजनीति क्या है, उनकी पगार कितनी है और वे कितने अवसरवादी और जुगाड़ू हैं या नहीं हैं। मुद्दा यह भी नहीं है कि उनका तथाकथित रैडिकल तेवर नकली है, व्यवस्था के दायरे और सुधारों की चौहद्दी में कैद है। मूल मुद्दा धार्मिक कट्टरपंथी गुण्डों और भक्तजनों की फासिस्ट गुण्डागर्दी का है, कदम-कदम पर जनवादी अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का है। एम.एफ.हुसैन, अनंतमूर्ति, दाभोलकर, पानसारे, कालबुर्गी आदि पर हिन्दुत्ववादी फासिस्टों ने हमले किये। उससमय यदि हम हुसैन के विचारधारात्मक अन्तरविरोधों-सीमाओं को, अनंतमूर्ति की बुर्जुआ विचारधारा को या पानसारे की भाकपा सदस्यता को मुद्दा बनाते तो यह अतिवामपंथ का बचकाना मर्ज़ ही होता। अब निखिल वागले के अगला निशाना होने की बात आ रही है। तो वागले पर हमले के खिलाफ मुखर होकर बोलने के बजाय क्या हम उनकी कथित रैडिकल पत्रकारिता के पीछे की राजनीति की विवेचना करने बैठ जायेंगे?
हर बात की एक जगह होती है और एक समय होता है। हर विमर्श का एक सन्दर्भ-चौखटा होता है। विचारधारात्मक और राजनीतिक मुद्दों पर मतभेद को लेकर बहस का मंच और फ्रेमवर्क अलग है। जनवादी अधिकारों पर हमलों और फासिस्ट कारगुजारियों के विरुद्ध एकजुटता का मसला अलग है। हँसिये के ब्याह में खुरपे का गीत नहीं गाया जाता। बेमौसम का राग, अपने पिछवाड़े आग। यह ''अतिशुद्ध'' दीखने वाला वामपंथ अधकचरा वामपंथ है। मार्क्सवाद हमें बताता है कि नतीजे निकालने और कार्यभार का निर्धारण करने के लिए हमें हर समय तमाम अंतरविरोधों में से बुनियादी अन्तरविरोध और बुनियादी अन्तरविरोधों में से प्रधान अन्तरविरोध छाँटना होता है। रणनीतिक मोर्चे के अतिरिक्त रणकौशलगत मोर्चे भी होते हैं। निठल्ला वामपंथ मौक़े की नज़ाकत और वक्त की ज़रूरत समझे बिना हरदम कुछ बहसबाजी, चिकोटी काटने ओर मीन मेख निकालने में लगा होता है। समय कठिन है। फासिस्ट चुनौती सामने है। वस्तुत: हम रवीश कुमार या निखिल वागले के पक्ष में या उनके वर्गीय स्टैण्ड या राजनीति के पक्ष में कत्तई नहीं खड़े हैं, हम तो जनवादी अधिकारों पर हमले के खिलाफ़ खड़े हैं, फासिस्ट गुण्डागर्दी के खिलाफ़ खड़े हैं।
प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्तेयर ने कहा था, '' जो तुम कह रहे हो, उससे मैं सहमत नहीं, लेकिन तुम्हारे कहने के अधिकार की हिफाजत में मैं अपनी जान दे दूँगा।'' हम भी जब अभिव्यक्ति की आजादी का मसला उठाते हैं तो हमारा स्टैण्ड यही होना चाहिए। किसी नागरिक या बुद्धिजीवी से हमारी घोर असहमति हो सकती है, लेकिन उसकी ज़ुबान पर ताला लगाने की सत्ताधारियों की कोशिशों, उसपर फासिस्ट गुण्डों के हमलों-धमकियों और ऑनलाइन गुण्डागर्दी का तो हम बिला शर्त पुरजोर विरोध करेंगे ही।
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