Saturday, October 03, 2015

लालू यादव बिहार में ''मण्‍डल राज-दो'' लाने के दावे कर रहे हैं महागठबंधन की ओर से। भाजपा के शासनकाल में हिन्‍दुत्‍ववादी राजनीति की आक्रामक सरगर्मि‍यों के साथ 'मण्‍डल-कमण्‍डल' का दौर एक बार फिर वापस आ रहा है। गुजराज के पटेल और क्षत्रिय राजपूत, हरियाणा-राजस्‍थान के जाट, राजस्‍थान के गुज्‍जर -- ये सभी आरक्षण की माँग को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। सच्‍चाई यह है कि कमण्‍डल का जवाब मण्‍डल नहीं है, बल्कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों भारतीय बुर्जुआ राजनीतिक यथार्थ के ही द्वंद्व के दो पक्ष हैं। धर्म की राजनीति का वास्‍तविक जवाब जाति की राजनीति नहीं, बल्कि वर्ग की राजनीति है। धर्म की राजनीति और जाति की राजनीति -- दोनों ही वर्ग की राजनीति को नेपथ्‍य में धकेलने का काम करते हैं। धर्म और जाति की राजनीति भी वर्गीय राजनीति है जो शासक वर्गों के अन्‍दरूनी टकरावों की अभिव्‍यक्ति है और साथ ही, जो शोषक और शोषित के बीच, पूँजी और श्रम के बीच के वर्गीय ध्रुवीकरण के जनता की चेतना में वास्‍तविक परावर्तन को रोकती है और विरूपित परावर्तन द्वारा मिथ्‍या चेतना का निर्माण करती है जिसके चलते धार्म‍िक और जातिगत अस्मिता-बोध बुनियादी वर्गीय अस्मिता बोध को आच्‍छादित कर लेता है। अस्मिता राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स) की सैद्धान्तिकी भी इसी प्रक्रिया को सैद्धान्तिक आधार मुहैया कराती है। वैसे भी भारतीय समाज के ताने-बाने और ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया को देखें तो इसमें जाति और धर्म एक-दूसरे से गुँथे-बुने हैं। हिन्‍दू धर्म में जाति-व्‍यवस्‍था बुनियादी संघटक है और जातिगत पहचान को धर्म ही मिथ्‍या तर्कों का आधार प्रदान करता है। जाति की राजनीति बनाम धर्म की राजनीति एक मिथ्‍याभासी या छद्म द्वंद्व-युग्‍म है। वास्‍तविक द्वंद्व-युग्‍म है जाति-धर्म की बुर्जुआ राजनीति बनाम वर्ग-संघर्ष की सर्वहारा राजनीति।

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