Saturday, October 03, 2015

धर्म के प्रश्‍न पर मार्क्‍सवादी अवस्थिति (एक)

मनुष्‍य ने स्‍वर्ग की अतिकाल्‍पनिक (fantastic) वास्‍तविकता में किसी अतिमानवी सत्‍ता की तलाश की, लेकिन स्‍वयं अपनी परावर्तित छवि के अतिरिक्‍त उसे वहाँ कुछ नहीं मिला। इसके बाद जहाँ भी अपनी सच्‍ची वास्‍तविकता की वह तलाश करता है और करेगा वहाँ उसे सिवाय अपने खुद के प्रतिरूप के, सिवाय एक अमानवी सत्‍व के, और कुछ नहीं मिलेगा।
अधार्मिक आलोचना का आधार यह है: मनुष्‍य धर्म का निर्माण करता है, धर्म मनुष्‍य का निर्माण नहीं करता। धर्म उस मनुष्‍य की आत्‍मचेतना और आत्‍ममान्‍यता है जिसने या तो स्‍वयं को अभी पाया नहीं है या फिर जो पहले ही स्‍वयं को फिर से खो चुका है। लेकिन मनुष्‍य  कोई अमूर्त सत्‍ता नहीं है जो दुनिया के बाहर कहीं अड्डा जमाये बैठा हो। मनुष्‍य मनुष्‍य की दुनिया है, राज्‍य है, समाज है। यह राज्‍य, यह समाज धर्म को, एक औंधी विश्‍व-चेतना  को  पैदा करता है, क्‍योंकि वे स्‍वयं एक औंधा विश्‍व है। धर्म उसी दुनिया का आम सिद्धान्‍त है, उसका विश्‍वकोशीय सार-संग्रह है, एक लोकप्रिय रूप में उसका तर्क है, उसके आध्‍यात्‍मवादिक सम्‍मान का गौरव है, उसका उत्‍साह है, उसकी नैतिक स्‍वीकृति है, उसका पवित्र सम्‍पूरक है, सांत्‍वना और औचित्‍य-प्रतिपादन का उसका सार्वभौमिक स्रोत है। यह मानवीय सारतत्‍व का अतिकाल्‍पनिक वास्‍तवीकरण है, क्‍योंकि मानवीय सारतत्‍व की कोई सच्‍ची वास्‍तविकता नहीं है। इसलिए, धर्म के विरुद्ध संघर्ष परोक्ष रूप से  उस दुनि‍या के विरुद्ध युद्ध है, धर्म जिसका आध्‍यात्मिक सौरभ है।
धार्मिक व्‍यथा वास्‍तविक व्‍यथा की अभिव्‍यक्ति है और इसके साथ ही साथ, वास्‍तविक व्‍यथा का प्रतिवाद भी है। धर्म उत्‍पीड़ि‍त प्राणी की आह है, एक हृदयहीन विश्‍व  का हृदय है, ठीक उसीतरह, जिसतरह कि यह आत्‍माविहीन स्थितियों की आत्‍मा है। यह जनता की अफ़ीम है।
जनता के आभासी (या भ्रामक -अनु.) सुख के रूप में धर्म के उन्‍मूलन का मतलब है उसके वास्‍तविक सुख की माँग करना। मौजूद जीवन-स्थिति के बारे में विभ्रमों को तिलांजलि देने की माँग करने का मतलब है उस जीवन-स्थिति को तिलांजलि देने की माँग करना जिसे विभ्रमों की आवश्‍यकता होती है। इसलिए धर्म की आलोचना भ्रूण रूप में आँसुओं की घाटी की आलोचना है, धर्म जिसका प्रभामण्‍डल है।
आलोचना ने बे‍ड़ि‍यों से काल्‍पनिक‍ फूलों को इसलिए नहीं तोड़कर अलग किया है कि मनुष्‍य नंगी, रूखी बे‍ड़ि‍यों को पहने, बल्कि इसलिए तोड़कर अलग किया है कि वह उन बे‍ड़ि‍यों को उतार फेंके और सच्‍चे जीवित फूल तोड़ सके। धर्म की आलोचना मनुष्‍य को विभ्रममुक्‍त इसलिए करती है कि वह एक ऐसे आदमी के रूप में सोच सके, व्‍यवहार कर सके और अपनी वास्‍तविकता का निर्माण कर सके जो विभ्रममुक्‍त हो चुका है और तर्कणा-सम्‍पन्‍न हो चुका  है, ताकि वह स्‍वयं अपनी, और इसलिए अपने सच्‍चे सूर्य की परिक्रमा कर सके। धर्म एक आभासी सूर्य है जो तबतक मनुष्‍य के चतुर्दिक परिक्रमा करता रहता है जबतक कि वह स्‍वयं अपने चतुर्दिक परिक्रमा नहीं करने लगता।
इसलिए, एक बार जब वह विश्‍व विलुप्‍त हो जाये जो सत्‍य से परे है, तो इतिहास का कार्यभार होता है इस विश्‍व के सत्‍य की स्‍थापना करना। एक बार जब मानवीय आत्‍म-परकीयकरण का पवित्र रूप अनावृत हो जाता है तो दर्शन का, जो इतिहास की सेवा में सन्‍नद्ध रहता है, आसन्‍न कार्यभार आत्‍म-परकीयकरण के अपवित्र रूपों को अनावृत करना हो जाता है। इसतरह स्‍वर्ग की आलोचना धरती की आलोचना में बदल जाती है, धर्म की आलोचना कानून की आलोचना में और धर्मशास्‍त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना में बदल जाती है।''
-- कार्ल मार्क्‍स
(हेगेल के विधि के दर्शन की आलोचना में योगदान)

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