हिन्दुत्ववादी फासिस्टों ने एक शब्द ईजाद किया है -- छद्म-धर्मनिरपेक्ष। ये लेबल वे हर उस व्यक्ति पर चस्पां कर देते हैं जो उनकी असलियत उजागर करता है और उनका विरोध करता है। सच्चाई यह है कि भारत का पूँजीवादी जनवादी राजनीतिक ढाँचा और संविधान ही छद्म-धर्मनिरपेक्ष हैं, जो धर्मनिरपेक्षता की डुगडुगी बजाते हुए सामाजिक-राजनीतिक जीवन में धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों को अपना बर्बर-वीभत्स और शातिराना खेल खुलकर खेलने का अवसर देते हैं। धर्मनिरपेक्षता का मान्य ऐतिहासिक अर्थ यह है कि सामाजिक-राजनीतिक जीवन और शिक्षा-संस्कृति के सार्वजनिक स्पेस में धर्म की कोई दख़लंदाज़ी न हो और नागरिकों को अपनी निजी धार्मिक विश्वासों के निजी जीवन में अनुपालन की आज़ादी हो। लेकिन भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्मसमभाव के रूप में परिभाषित करता है। इसके चलते, धार्मिक आधार पर संगठन बनाने की, धर्म संगठनों द्वारा शिक्षा संस्थान चलाने की, स्कूलों में प्रार्थना व धार्मिक अनुष्ठानों की, सरकारी प्रतिष्ठानों और आयोजनों में भी धार्मिक कर्मकाण्ड करने की, धार्मिक संस्थाओं को सरकारी सहायता पाने की तथा मठों-मन्दिरों द्वारा करमुक्त अकूत सम्पदा संचित कर लेने की आज़ादी प्राप्त हो जाती है। तथाकथित सर्वधर्मसमभाव जब भी अमल में आयेगा तो बहुमत का धर्म विभिन्न अल्पमतों के धर्मों पर हावी होगा ही। ऐसे समाजों में बहुसंख्यावादी धार्मिक कट्टरपंथ की एक अनुकूल ज़मीन हमेशा मौजूद रहेगी। दरअसल सर्वधर्मसमभाव के रूप में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के गर्भ से पैदा हुए रुग्ण, विकलांग भारतीय पूँजीवाद की इस विशिष्टता को दर्शाती है कि इसके पास पुनर्जागरण-प्रसूत मानववाद और प्रबोधनकालीन तर्कणा, धर्मनिरपेक्षता (इहलोकवाद या सेक्युलरिज़्म) और जनवादी आदर्शों की ऐतिहासिक विरासत कभी रही ही नहीं। मध्ययुगीन, धार्मिक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध कोई जुझारू मुहिम चलाने की जगह भारतीय पूँजीवाद हमेशा ही इनके साथ समझौते करता रहा। यही कारण है कि पूँजीवादी आर्थिक विकास के बावजूद भारतीय समाज के ताने-बाने मे धार्मिक रूढ़ियों-अंधविश्वासों का बोलबाला बना रहा और फलत: राजनीति में भी धर्म का इस्तेमाल होता रहा। इसी वस्तुगत स्थिति को भारतीय संविधान का ''सर्वधर्मसमभाव'' संहिताबद्ध करके प्रस्तुत करता है। ऐसे समाज में लाजिमी तौर पर, पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट जब भी गहरायेगा और नतीज़तन सामाजिक-राजनीतिक दायरे में जनवादी स्पेस जब भी संकुचित होगा तो पूरा समाज धार्मिक कट्टरपंथ की उपजाऊ नर्सरी बन जायेगा और राजनीतिक पटल पर धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्ट ताकतें इसका जमकर लाभ उठायेंगी। इसका सबसे अधिक लाभ जाहिरा तौर पर बहुसंख्यावादी धार्मिक कट्टरपंथी ही उठायेंगे। धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच भी कट्टरपंथी ताकतें लाज़िमी तौर पर सक्रिय होंगी, लेकिन इसका फायदा भी बहुसंख्यावादी धार्मिक कट्टरपंथी जमात को ही मिलेगा जो धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी के बीच के कट्टरपंथियों के बहाने उस पूरी आबादी के ऊपर ही कट्टरपंथी होने का लेबल चस्पां कर देंगे। भारत में आज यही हो रहा है। ओवेसी बंधुओं और डा. ज़ाकिर नायक जैसे मुस्लिम कट्टरपंथियों की विचारधारा प्रकारान्तर से संघ परिवार और शिवसेना जैसों के ही हाथ मज़बूत कर रही है। मुलायम सिंह यादव और भूतपूर्व जनता परिवार से छिटके छोट-छोटे बुर्जुआ राजनीतिक दल भी भाजपा-विरोध और सेक्युलरिज़्म के नाम पर वास्तव में मुस्लिम वोटों पर कब्ज़े की तिकड़मी राजनीति करते हैं और अपनी चुनावी गोट लाल करते हैं। ''साम्प्रदायिकता-विरोध'' की अपनी राजनीति के ज़रिए वास्तव में वे भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को ही बढ़ावा देते हैं।
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Saturday, October 03, 2015
छद्म-धर्मनिरपेक्ष...
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