बेशक़ कला के बिना कविता नहीं हो सकती। लेकिन कविता का बुनियादी तत्व सच्चाई है। वस्तुगत सामाजिक यथार्थ और उसके मनोगत प्रभावों का निरूपण कविता की बुनियादी ज़िम्मेदारी है, बेशक़ कविता होने की शर्त्तों पर। लेकिन जैसा कि रघुवीर सहाय ने भी कहीं कहा था, जहाँ बहुत अधिक कला होगी, वहाँ कविता नहीं होगी, वहाँ जीवन नहीं होगा, वहाँ सच उभरकर नहीं आयेगा। ''बहुत अधिक कला'' ज़िन्दगी की बेरहम सच्चाइयों को चकाचौंध पैदा करने वाले आभूषणों और चौंक-चमत्कार पैदा करने वाले झालरों-फुँदनों से ढँक देती है। बारीक़ रेशमी बुनावट से बनावट आ जाती है। आडंबरी सायासता नैसर्गिक काव्यात्मक अनायासता को ढँक लेती है। तब सच एक ठण्डे, नाटकीय या आलंकारिक बयान के रूप में आता है और आत्मा को गहराई तक झकझोरने वाली शक्ति को खो देता है। सच्ची कविता का काम सहजता के सौन्दर्य का संधान करना है। बुर्जुआ समाज में श्रम-विभाजन से पैदा हुआ अलगाव और विघटित चेतना हमारी सहजता छीन लेती है। जीवन में सहजता से वंचित, अलगावग्रस्त, आत्म-निर्वासित मानस सहजता के सौन्दर्य के आकर्षण का आस्वाद नहीं ले पाता। जनपक्ष की कविता का काम ऐसे मानस को तुष्ट करना नहीं, बल्कि उसे नये सौन्दर्य शास्त्र की शिक्षा देना है, उसे उसकी विघटित चेतना का अहसास कराना है, उसे काव्यात्मक ''माल'' का निष्क्रिय उपभोक्ता बनाने के बजाय आलोचनात्मक विवेक से लैस करना है, उसे कृत्रिमताओं में जीने की आदत से, मिथ्याभासों से छुटकारा दिलाना है। यह काम कृत्रिमता का निषेध करके सहजता का सौन्दर्यशास्त्र गढ़ने वाली कविता ही कर सकती है। एक बेहद बर्बर समय में एक सच्चा कवि, अपने लोगों के लिए चिन्ताग्रस्त और परेशान कवि, सम्मोहनकारी कलात्मक प्रभाव वाली कविता नहीं लिख सकता। जब लोगों को झकझोरना हो या तर्कणा के लिए प्रेरित करना हो, उससमय उन्हें सम्मोहन की नींद सुलाने का काम कोई निहायत ''अराजनीतिक'' व्यक्ति ही कर सकता है या शिष्टता-शालीनता के आवरण में लिपटा कोई शातिर बदमाश।
फासिस्ट जब विचार और कला पर हमला बोलते हैं, बुर्जुआ समाज के कलात्मक-साहित्यिक जगत के जनवादी स्पेस पर हमला बोलते हैं, तो उनका विरोध कला के ''अतिशय आग्रही'' अभिजन भी करते हैं। फासिस्टों की असभ्य बर्बरता उन्हें भी चिन्तातुर बना देती है। लेकिन वे विनम्र भिनभिन-भुनभुन करने और शिक़ायतनामा लिखने से अधिक कुछ भी नहीं कर पाते। उनकी चिन्ता जनता पर फासिस्ट संस्कृति की चोट को लेकर नहीं, बल्कि अपनी निजी ''कलात्मक स्वतंत्रता'' को लेकर होती है जिसे वे सामाजिक स्वतंत्रता के मूल प्रश्न से विच्छिन्न मानते हैं। ऐसे लोग निर्णायक समय में न जनता के साथ खड़े होते हैं, न ही जनता उनके साथ खड़ी होती है। फिर फासिस्टों के एक-दो डण्डे या महज घुड़की से ही वे या तो दुबक जाते हैं या साष्टांग दण्डवत हो जाते हैं। ऐसे लोग फासिस्ट घटाटोप के समय भले ही चिन्तित हों, लेकिन अपनी ''अराजनीतिक कला'' के द्वारा, बुर्जुआ व्यक्तिवाद के महिमामण्डन के द्वारा, या बुर्जुआ जनवाद की यूटोपियाई छवि गढ़कर उसके आदर्शीकरण द्वारा, बुर्जुआ समाज की पतनशीलता और उसकी परिणतियों को दृष्टिओझल करके फासिज़्म को सांस्कृतिक-वैचारिक स्तर पर अपना आधार मज़बूत करते जाने में वस्तुगत तौर पर उन लोगों ने जो भूमिका निभाई होती है,उसका ऐतिहासिक दण्ड तो इन्हें भुगतना ही होता है।
''अराजनीतिक'' कला पूँजीवादी समाज के संकटों के राजनीतिक-सामाजिक विस्फोटों और फासिस्ट उभारों के दौर में फासिज्म के आगे असहाय साबित होने, घुटने टेक देने या उसके पक्ष में जा खड़ी होने के लिए अभिशप्त होती है। वामपंथी दायरे में भी ''अतिशय कला'' का आग्रह एक कलावादी आग्रह है। ऐसा आग्रह करने वाले और ऐसे आग्रह के दबाव के आगे झुकने वाले कवि-लेखक-कलाकार फासिज़्म का विरोधी होते हुए भी उसके विरुद्ध साहसपूर्वक, मुखर होकर खड़े नहीं हो सकते। वैचारिक अन्तर्वस्तु की दृष्टि से वे सामाजिक जनवादी होते हैं, यानी छद्म-वामपंथी होते हैं और इसलिए बेहद बुज़दिल और कायर होते हैं।
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