Friday, October 09, 2015

परिवर्तन तो प्रकृति और समाज का नियम है। चीज़ें लगातार बदलती रहती हैं। बदलाव की क्रमि‍क प्रक्रिया लगातार जारी रहती है और बीच-बीच में क्रांतिकारी परिवर्तन की गुणात्‍मक छलांगें लगती रहती हैं। कुल मिलाकर बदलाव का रास्‍ता सर्पिल होता है,पर उसमें जगह-जगह तमाम चढ़ाव-उतार और मोड़-घुमाव होते हैं। कई-कई बार इतिहास का रथ किसी कठिन चढ़ाई से पीछे की ओर लुढ़क कर दलदली खाई में धँस जाता है। फिर जबतक वह फिर से आगे गतिमान नहीं होता, ऐसा लगता है मानों गति रुक गयी हो, मानो फिर से नयी ऊँचाइयाँ नापना असम्‍भव हो गया हो। ऐसे उलटाव और ठहराव के दि‍नों में लोग बदलाव के बारे में शंकालू हो जाते हैं और भरोसा खो देते हैं। फिर वे यथास्थिति के साथ समझौता करके जीने की कोशिशें करने लगते हैं। गति के नियमों से उनका भरोसा उठ जाता है। वे विज्ञान और तर्कणा की ओर पीठ करके खड़े हो जाते हैं। जैसे ही वे ऐसा करते हैं, उनका मुँह रू‍ढ़ि‍यों और अंधविश्‍वास की ओर हो जाता है। लोग जब भविष्‍य की ओर पीठ करके खड़े होते हैं तो उनका मुँह अतीत की ओर हो जाता है। जब क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर हावी होती है तो पूरे समाज में स्‍वाभाविक तौर पर अतीतोन्‍मुखता, अतीतजीविता, धार्मि‍क रूढ़ि‍यों और अंधविश्‍वासों का बोलबाला हो जाता है। ये स्थितियाँ शासक वर्गों के हित में होता है, इसलिए वे इन्‍हें खूब बढ़ावा देते हैं। इन हालात को बदलने के लिए, भगतसिंह के शब्‍दों में कहें तो, इंसानियत के रूह में हरक़त पैदा करने के लिए क्रांति की स्पिरिट को फिर से ताज़ा करने की ज़रूरत होती है।

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