Saturday, October 03, 2015

सिद्धान्‍त ऐसे बादल के समान नहीं होते जो समाज के ऊपर तैरते रहते हों और विचारों एवं सूत्रों की बारिश करते रहते हों। सिद्धान्‍त वर्ग समाज की निर्म‍िति होते हैं। सामाजिक यथार्थ अलग-अलग वर्गीय चेतनाओं में परावर्तित होता है और अलग-अलग वर्गीय अवस्थितियों  वाले सिद्धान्‍तों को जन्‍म देता है। अत: किसी भी सिद्धान्‍त को तभी समझा और विश्‍लेषित किया जा सकता है, जब हम अपने समय और समाज की ठोस वस्‍तुगत परिस्थितियों की ठोस वस्‍तुगत समझ रखते हों। पूँजीवादी समाज में पूँजी की संरचना और गतिकी, वर्गों के वास्‍तविक व्‍यवहार और वर्ग संघर्ष के ठोस रूपों को जाने-समझे बिना किसी भी सिद्धान्‍त को न तो जाना-समझा जा सकता है, न ही उसका विश्‍लेषण और समालोचना ही की जा सकती है। यह बात समाज विज्ञान से लेकर कला-साहित्‍य-संस्‍कृति तक -- सभी क्षेत्रों में लागू होती है।



वस्‍तुपरकता वर्गेतर तटस्‍थता नहीं होती। वर्गोपरि या वर्गेतर तटस्‍थता या तो एक भ्रम है या एक छल । हर चेतना वर्गीय चेतना होती है और हर समालोचना की एक सुनिश्चित वर्गीय अवस्थिति होती है। आर्थिक संकट, स्‍त्री प्रश्‍न, जाति प्रश्‍न, पर्यावरणीय संकट या सौन्‍दर्यशास्‍त्रीय प्रश्‍न -- इन सभी पर प्रस्‍तुत विवेचनाओं के पीछे एक वर्गीय दृष्टि होती है -- चाहे वह सचेतन तौर पर हो या अचेतन तौर पर।



हम जब समाज में वर्गों के टकराव और वर्गीय शोषण की सच्‍चाई को उजागर करते हैं, वर्गीय सामंजस्‍य का रामनामी ओढ़े, शिकारी और शिकार के बीच प्रेम भाव का पाठ पढ़ाने वाले संत-महात्‍मा-उपदेशक-विचारक लोग हमें नफरत का प्रचारक घोषित कर देते हैं। सच्‍चाई की आवाज़ उन्‍हें नफरत की आवाज़ लगती है, जो सच्‍चाई से नफरत करते हैं।



बहुसंख्‍यक आबादी की ज़ि‍न्‍दगी, जद्दोज़हद और सपनों से मुँह मोड़कर जो अपनी ज़ि‍न्‍दगी सँवारने की जद्दोज़हद करते हैं और जिनके सपने सिर्फ़ अपने के लिए होते हैं, वे जालिम हुकूमतों के मददगार होते हैं, जाने-अनजाने और चाहे-अनचाहे।



सारा मामला तथ्‍यों के चुनाव का है। पूँजी और सत्‍ता का मीडिया हमें वह दिखाता है, जो शासक वर्ग हमें दिखाना चाहता है। सत्‍ता पक्ष के बुद्धिजीवी यह दावा करते हैं कि मनोरंजन तंत्र जनता को वही दिखाता है जो -- देखने की वह कामना करती है। यह सच नहीं है। सच यह है कि मनोरंजन उद्योग  हमें ''कामना करना'' सिखाता है, हमें वह अपनी मनचाही सांस्‍कृतिक खुराक़ का आदी बनाता है। सूचना तंत्र हमें सहमत होने के लिए क़ायल करता है, साथ ही वही हमें असहमति के मुद्दे, तौर-तरीक़े और दायरा भी बताता है। वह सहमति के साथ ही ''असहमति'' का भी निर्माण करता है और एक मिथ्‍याभासी चेतना देता है ताकि सहमति-असहमति का, समर्थन-विरोध का सारा खेल इसी व्‍यवस्‍था की चौहद्दी के भीतर ही चलता  रहे, इसका अतिक्रमण कत्‍तई न करे।


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी





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