पूरी ज़िन्दगी हम बहुतेरी लड़ाइयाँ लड़ते हैं, हारते हैं, जीतते हैं और तमाम जख़्म हासिल करते हैं। वक़्त के साथ वे सभी जख़्म भर जाते हैं और उनकी याद दिलाने वाले निशानात हमारे शरीर पर बचे रह जाते हैं, गुज़रे वक्त की गवाही देते रहने के लिए। लेकिन जिन लड़ाइयों से हम कतराकर बच निकलते हैं, उनके जख़्म हमारी आत्मा पर हमेशा मौजूद रहते हैं, नासूर की तरह रिसते रहते हैं। वे हमारे दिल में फैलते रहते हैं और उसमें ज़हर और मवाद भरते रहते हैं। हारी गयी लड़ाइयाँ नहीं, छोड़ी गयी लड़ाइयाँ मनुष्य के मानवीय सारतत्व को दीमक की तरह चाट जाती है।
Pages
- मुखपृष्ठ
- डायरी के नोट्स : जो सोचती हूं उनमें से कुछ ही कहने की हिम्मत है और क्षमता भी
- कला-दीर्घा
- कन्सर्ट
- मेरी कविताई: जीवन की धुनाई, विचारों की कताई, सपनों की बुनाई
- मेरे प्रिय उद्धरण और कृति-अंश : कुतुबनुमा से दिशा दिखाते, राह बताते शब्द
- मेरी प्रिय कविताएं: क्षितिज पर जलती मशालें दण्डद्वीप से दिखती हुई
- देश-काल-समाज: वाद-विवाद-संवाद
- विविधा: इधर-उधर से कुछ ज़़रूरी सामग्री
- जीवनदृष्टि-इतिहासबोध
Friday, October 09, 2015
पूरी ज़िन्दगी हम बहुतेरी लड़ाइयाँ लड़ते हैं, हारते हैं, जीतते हैं और तमाम जख़्म हासिल करते हैं। वक़्त के साथ वे सभी जख़्म भर जाते हैं और उनकी याद दिलाने वाले निशानात हमारे शरीर पर बचे रह जाते हैं, गुज़रे वक्त की गवाही देते रहने के लिए। लेकिन जिन लड़ाइयों से हम कतराकर बच निकलते हैं, उनके जख़्म हमारी आत्मा पर हमेशा मौजूद रहते हैं, नासूर की तरह रिसते रहते हैं। वे हमारे दिल में फैलते रहते हैं और उसमें ज़हर और मवाद भरते रहते हैं। हारी गयी लड़ाइयाँ नहीं, छोड़ी गयी लड़ाइयाँ मनुष्य के मानवीय सारतत्व को दीमक की तरह चाट जाती है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment