Saturday, June 20, 2015

साइनाथ का एन.जी.ओ. प्रायोजित रैडिकलिज़्म और 'परी' की पॉलिटिक्स





-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पी. साइनाथ एक रैडिकल छवि वाले पत्रकार हैं। ख़ुद को प्रगतिशील मानने वाले महानगरों के अंग्रेज़ीदाँ मध्‍यवर्गीय बौद्धिक जमातों में उन‍की काफी साख है। कर्ज़ के दबाव के कारण आत्‍महत्‍या करते किसानों, विस्‍थापन, खेती पर कारपोरेट दबाव जैसे विषयों पर उनकी रपटें काफी चर्चित रही हैं।
गत 20 दिसम्‍बर 2014 को उनकी वेबसाइट 'पीपॅल्‍स आर्काइव ऑफ रूरल इण्डिया' ('परी') का लोकार्पण हुआ और 5जनवरी को दिल्‍ली के भव्‍य अभिजात अपमार्केट आयोजन स्‍थल 'इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर' के खचाखच भरे सभागार में उन्‍होंने वेबसाइट के बारे में अपना परिचयात्‍मक वक्‍तव्‍य रखा।
पी.साइनाथ निर्बंध बाजारीकरण और विपणन की अवधारणा का विरोध करने वाली जनपरक ग्रामीण पत्रकारिता के एक ब्राण्‍ड के रूप में स्‍थापित हैं। पत्रकार समस्‍याओं की चाहे जितनी वस्‍तुपरक रिपोर्टिंग करे, तथ्‍यों की प्रस्‍तुति और विश्‍लेषण के पीछे एक सुनिश्चित राजनीतिक नज़रिया काम करती ही है। साइनाथ और 'परी' की राजनीति की पड़ताल करने से पहले एक तथ्‍य पर गौर करना ज़रूरी है।
आई.आई.सी. के जिस भव्‍य सभागार में साइनाथ अपनी प्रस्‍तुति दे रहे थे, वहाँ उनके पीछे बोर्ड पर 'इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर' के अतिरिक्‍त चार और नाम चमक रहे थे। ये नाम थे -- 'ऐक्‍शन एड', 'सेव दि चिल्‍ड्रेन','यूथ की आवाज़', 'बिजनेस एण्‍ड कम्‍युनिटी फाउण्‍डेशन'। ये एन.जी.ओ. हैं। जाहिर है कि मात्र उक्‍त कार्यक्रम के प्रायोजन के लिए तो इतनी संस्‍थाओं की ज़रूरत नहीं थी। निश्‍चय ही ये संस्‍थाएँ 'परी' की भावी परियोजनाओं के प्रायोजन के लिए और सहयोग के लिए वचनबद्ध हैं, तभी इनके नाम बोर्ड पर मौजूद थे। भूमण्‍डलीकरण की महाविनाशी पूँजी-परियोजना में राष्‍ट्रपारीय निगमों द्वारा गठित फण्डिंग एजेंसियों द्वारा वित्‍तपोषित एन.जी.ओ.'ज़ के पूरी दुनिया में फैले मकड़जाल की क्‍या भूमिका है, इसके बारे में जोन रोयलोव्‍स, जेम्‍स पेत्रासआदि राजनीति विज्ञानियों ने काफी कुछ लिखा है। जोन रोयलोव्‍स के ऐसे अधिकांश लेख उनके ब्‍लॉग'पॉलिटिक्‍स ऐण्‍ड आर्ट' (https://joanroelofs.wordpress.com) पर मौजूद हैं। जेम्‍स पेत्रास के ऐसे लेख भी नेट पर मौजूद हैं। हिन्‍दी में प्रकाशित दो पुस्‍तकों में भी एन.जी.ओ. की राजनीति पर काफी सामग्री मौजूद है ('एन.जी.ओ.: एक ख़तरनाक साम्राज्‍यवादी कुचक्र' और 'डब्‍ल्‍यू. एस.एफ.: साम्राज्‍यवाद का नया ट्रोजन हॉर्स', राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ)। साम्राज्‍यवादियों और देशी पूँजीपतियों द्वारा वित्‍तपोषित एन.जी.ओ. व्‍यापक जन-असंतोष  को सुधार की विविध कार्रवाइयों द्वारा, विस्‍फोटक होने से बचाने में सेफ्टी वॉल्‍व जैसी भूमिका निभाते हैं। तमाम जनान्‍दोलनों को सुधारवादी दिशा देकर या उनकी वर्गचेतना को कुन्‍द करके ये उनकी व्‍यवस्‍था-विरोधी धार को कुण्ठित करने और उन्‍हें विघटित करने का काम करते हैं। हाल के दिनों में भॉंति-भॉंति के उत्‍तर-आधुनिकतावादी और उत्‍तर-मार्क्‍सवादी चिन्‍तकों तथा 'आ‍इडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स' के पैरोकारों ने ''नये सामाजिक आन्‍दोलनों'' की एक भ्रामक सैद्धान्तिकी तैयार की है, जो पर्यावरण, विस्‍थापन, जल-जंगल-ज़मीन, स्‍त्री उत्‍पीड़न, दलित उत्‍पीड़न आदि प्रश्‍नों पर खण्‍ड-खण्‍ड विमर्श करती है और इन अलग-अलग आन्‍दोलनों को पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता के विरुद्ध केन्द्रित करने के बजाय राज्‍यसत्‍ता को, और सभी समस्‍याओं की जड़ -- पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को ही दृष्टिओझल कर देती है। ये सभी तथाकथित ''नये सामाजिक आन्‍दोलन'' वर्गीय अन्‍तरविरोधों की सच्‍चाई पर पर्दा डालते हैं, जनता की वर्गीय लामबन्‍दी को रोकते हैं और इस सच्‍चाई को दृष्टिओझल करते हैं कि पर्यावरण-विनाश, विस्‍थापन, किसानों की तबाही, स्‍त्री उत्‍पीड़न, जाति व्‍यवस्‍था आदि समस्‍याओं की जड़ पूँजीवादी व्‍यवस्‍था है अत: सभी संघर्षों का लक्ष्‍य अन्‍ततोगत्‍वा व्‍यवस्‍था-परिवर्तन ही होना चाहिए। इन आन्‍दोलनों की उत्‍तर-मार्क्‍सवादी सैद्धान्तिकी सर्वहारा क्रांतियों के ''महाख्‍यानों'' के विसर्जन का और उनका युग बीत जाने का दावा करती है। ऐसे जितने भी ''सामाजिक आन्‍दोलन'' आज पूरी दुनिया में चल रहे हैं, उनमें से कुछ अल्‍पजीवी स्‍वत:स्‍फूर्त आन्‍दोलनों को छोड़कर आधिकांश साम्राज्‍यवादी और देशी पूँजीपति घरानों द्वारा वित्‍तपोषित एन.जी.ओ. चलाते हैं। विभिन्‍न जन समस्‍याओं को लेकर स्‍वत:स्‍फूर्त ढंग से उठ खड़े होने वाले जनांदोलनों में घुसपैठ करने के लिए ये हमेशा कोशिश करते रहते हैं। 'वर्ल्‍ड सोशल फोरम' ऐसे ही ''सामाजिक आन्‍दोलनों'' और एन.जी.ओ. का एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय मंच था जिसका जलवा अब काफी फीका पड़ चुका है।
साइनाथ के भाषण के समय आई.आई.सी. के सभागार में साइनबोर्ड पर नामांकित एन.जी.ओ.'ज़ के बारे में कुछ ज्ञात तथ्‍यों पर भी ज़रा निगाह दौड़ा ली जाये। 'एक्‍शन एड' अमेरिका के कुख्‍यात फोर्ड फाउण्‍डेशन से अनुदान पाता है। यही वह संस्‍था है जिसने नियामगिरी में वेदांता का संयंत्र लगवाने के लिए कम्‍पनी के मालिक अनिलअग्रवाल और आदिवासियों के बीच मांडवली की थी और दलाली करते हुए आदिवासी नेताओं को वेदांता द्वारा खरीदने की कोशिश में मददगार बनी थी। आदिवासी नेताओं को 'ऐक्‍शन एड' बाक़ायदा लंदन ले गया, लेकिन वहाँ अचानक अनिल अग्रवाल को देखकर आदिवासी नेता बाहर निकल आये थे। इस गंदे कपट-प्रपंच का पर्दाफाश भारत लौटकर कालाहांडी के एक आदिवासी नेता कुमटी माँझी ने किया था।
'सेव दि चिल्‍ड्रेन' शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्‍था है। अभिषेक श्रीवास्‍तव ने वरिष्‍ठ पत्रकार उर्मिलेशसम्‍पादित एक पुस्‍तक में शामिल अपने आलेख में एक दिलचस्‍प आपबीती का बयान किया है। संस्‍था की पत्रिका के सम्‍पादक के आमंत्रण पर कुछ पत्रकारों के साथ जब वे राजस्‍थान की सप्‍ताह भर की यात्रा पर थे, तब डूंगरपुर के बाहर स्थित एक होटल में 'सेव दि चिल्‍ड्रेन' के कण्‍ट्री डायरेक्‍टर से मुलाकात हुई, जिसने नशे के सुरूर में यह रहस्‍योदघाटन किया कि चूँकि दक्षिणी राजस्‍थान एक बेहद वंचित और समस्‍याग्रस्‍त आदिवासी इलाका होने के कारण माओवाद के पनपने के लिए काफी उर्वर है, इसलिए 'सेव दि चिल्‍ड्रेन' का बुनियादी उद्देश्‍य आदिवासियों के असंतोष को दबाना है और उन्‍हें शिक्षा के आन्‍दोलन की ओर मोड़कर संसाधनों की लूट से उनका ध्‍यान हटाना है। 'ऐक्‍शन एड' और 'सेव दि चिल्‍ड्रेन' -- न केवल दोनों ही देशी-विदेशी थैलीशाहों द्वारा वित्‍तपोषित है बल्कि दोनों के रिश्‍ते उपरोक्‍त घटनाओं में वेदांता कम्‍पनी से जुड़ते दीखते हैं। यहाँ यह बताते चले कि वेदांता द्वारा सरकारी उपक्रम खरीदने के बाद, इन दिनों उदयपुर को वेदांता सिटी भी कहा जाने लगा है। शहर में प्रवेश करते समय 'वेलकम टु वेदांता सिटी' का बोर्ड आपका स्‍वागत करता है।
'यूथ की आवाज़' एक ऑनलाइन मंच है,जिसका घोषित उद्देश्‍य युवाओं को मंच देना है, क्‍योंकि मीडिया में उनके लिए अब जगह नहीं बची है। कुछ दिनों पहले इस वेबसाइट पर अन्‍तरराष्‍ट्रीय फण्डिंग एजेंसी 'ऑक्‍सफेम' के एक प्रोजेक्‍ट के तहत महिलाओं पर श्रृंखला चलाई जा रही थी। जानकार लोग जानते हैं कि 'ऑक्‍सफेम' को भी पैसा मुख्‍यत: फोर्ड फाउण्‍डेशन ही देता है। वैसे 'यूथ की आवाज़' डंके की चोट पर मानता है कि उसे किसी भी संस्‍था से कोई परहेज़ नहीं है।
'बिजनेस ऐण्‍ड कम्‍युनिटी फाउण्‍डेशन' एक नयी संस्‍था है। यूँ तो इसके बारे में ज्‍यादा जानकारी उपलब्‍ध नहीं है, लेकिन इसकी वेबसाइट स्‍वयं काफी कुछ बता देती है। इसके निदेशक बोर्ड में शामिल हैं ग्‍लैक्‍सो स्मिथक्‍लाइन कं. के पूर्व प्रबंध निदेशक एस.जे.स्‍कार्फकैडबरी कं. के एक पूर्व उच्‍चाधिकारी एन.एस. कटोच, देश के एक शीर्ष पूँजीपति राहुल बजाजफोर्ब्‍स मार्शल कं. की रति फोर्ब्‍स, कंफेडरेशन ऑफ ब्रिटिश इण्‍डस्‍ट्रीज़ के भारत स्थित सलाहकार एम.रुनेकर्स, केन्‍द्रीय प्रत्‍यक्ष कर बोर्ड के पूर्व अध्‍यक्ष सुधीर चंद्र और ऐसे ही कुछ और लोग। यह संस्‍था भारत सरकार के कारपोरेट कार्य मंत्रालय के साथ मिलकर 'कारपोरेट सोशल रिस्‍पांसिबिलिटी' के क्षेत्र में काम करती है तथा दूसरे एन.जी.ओ.'ज़ को परामर्श और प्रशिक्षण की सुविधाएँ भी उपलब्‍ध कराती है। इसी संस्‍था ने जुलाई 2010 में आइ.आइ.सी. में 'कृषि संकट और किसानों की आत्‍महत्‍या' विषय पर साइनाथ  का व्‍याख्‍यान आयोजित करवाया था।
ऐसा कोई निहायत भोला व्‍यक्ति ही सोच सकता है कि साइनाथ इन संस्‍थाओं के संदिग्‍ध चरित्र से परिचित न हों। दरअसल साइनाथ जैसों की कथित प्रगतिशीलता  पूँजी-प्रतिष्‍ठानों द्वारा वित्‍तपोषित प्रगतिशीलता है, जो अलग-अलग कारणों से सी.पी.एम. ब्राण्‍ड संशोधनवादियों और भॉंति-भॉंति के नववामपंथियों और ''सामाजिक आन्‍दोलनों'' के छद्म  रैडिकल बुद्धिजीवियों तक को खूब भाती है। साथ ही, समस्‍याओं की सतही, लोकरंजक, अनुभववादी समझ रखने वाले विभ्रमग्रस्‍त जागरूक नागरिकों को भी साइनाथ वैकल्कि रैडिकल पत्रकारिता के स्‍टार जान पड़ते हैं।
सवाल पूछा जा सकता है कि साइनाथ गाँवों से विस्‍थापन, किसानों की आत्‍महत्‍याओं, खेती के वाणिज्‍यीकरण के दुष्‍परिणामों आदि-आदि की जो रपटें देते हैं, उससे पूँजीपतियों को क्‍या लाभ होता है? पहले इस बात को समझ लेने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता कुछ पूँजीपतियों के या पूरे पूँजीपति वर्ग के मात्र तात्‍कालिक हितसाधन के किए काम नहीं करती (इस या उस सरकार का अधिक झुकाव इस या उस पूँजीपति धड़े की ओर हो सकता है, लेकिन सरकार भी समग्रता में समूचे पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती है), वह मुख्‍यत: उसके दूरगामी वर्गीय हितों की सुरक्षा के लिए, पूरी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था की हिफाजत के लिए काम करती है। राज्‍यसत्‍ता के सलाहकार के रूप में ऐसे थिंक टैंक होते हैं जो तरह-तरह से सामाजिक अन्‍तरविरोधों की जाँच-पड़ताल करते हैं, व्‍यवस्‍था को संकटों से आगाह करते हैं, आर्थिक संकटों और राजनीतिक विस्‍फोटों से निपटने की राह बताते हैं और नीतियाँ सुझाते हैं। ऐसे ही बुद्धिजी‍वियों के कुछ दस्‍ते सामाजिक-आर्थिक समस्‍याओं की जाँच-पड़ताल करते हैं, कुछ भाँति-भाँति के सामाजिक आन्‍दोलनों में जनता की ऊर्जा लगाकर समस्‍या के क्रांतिकारी निदान की जनता की समझदारी बनने की प्रक्रिया बाधित करते हैं। ऐसे अकादमीशियनों, शोधकर्ताओं, मीडियाकर्मियों, संस्‍कृतिकर्मियों आदि-आदि के बल पर ही शासक वर्ग अपना वर्चस्‍व (हेजेमनी) स्‍थापित करता है, यानी अपने शासन के लिए 'सहमति का निर्माण' करता है। और केवल 'सहमति का निर्माण' ही नहीं करता, बल्कि 'सेफ्टी वॉल्‍व' और 'शॉक एब्‍जॉर्वर' के तौर पर, व्‍यवस्‍था के दायरे के भीतर 'असहमति का निर्माण' या छद्म विरोध का भी निर्माण करता है। व्‍यवस्‍था के ऐसे थिंक टैक्‍स, बौद्धिक एजेण्‍ट और जनमत-निर्माता बुर्जुआ समाज के उस खुशहाल, मुखर संस्‍तर में अवस्थित होते हैं जिसे 'सिविल सोसाइटी' कहा जाता है। यह सिविल सोसाइटी वस्‍तुत: बुर्जुआ सोसाइटी का वह मुख्‍य दायरा है, जिससे बहुसंख्‍यक मेहनतक़श आबादी बहिष्‍कृत है। दूसरे शब्‍दों में ऐसे बुद्धिजीवी व्‍यवस्‍था की ही एक सुरक्षापंक्ति हैं, एक 'प्रोटेक्टिव लेयर' (सुरक्षात्‍मक परत) हैं।
गत शताब्‍दी के पचास के दशक में भारत के कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का अच्‍छा वस्‍तुपरक अध्‍ययन प्रस्‍तुत करने वाले ओवरस्‍ट्रीट और विंडमिलर नामक अमेरिकी विद्वान वस्‍तुत: सी.आई. ए. के 'इण्‍टेलेक्‍चुअल स्‍पाई' थे। उनके अध्‍ययन का उद्देश्‍य दरअसल अमेरिका को यह आकलन करने में मदद पहुँचाना था कि चीनी क्रांति के बाद भारत में कम्‍युनिस्‍ट क्रांति का खतरा उससमय किस हद तक मौजूद था। साठ के दशक में अमेरिकी व ब्रिटिश शोधवृत्तियों और अनुदानों से भारत की ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था, जाति व्‍यवस्‍था, धार्मिक अधिरचना आदि पर ढेरों शोध हुए। इनसे भारत में ''हरित क्रांति’’ की नीतियाँ बनाने में तथा नक्‍सलबाड़ी उभार की चुनौतियों से निपटने की नीतियाँ बनाने में देशी पूँजीपति वर्ग और साम्राज्‍यवादियों को मदद मिली। इन्‍हीं अध्‍ययनों के आधार पर वर्ग की राजनीति को पीछे धकेलने के लिए सत्‍तर के दशक में अचानक कुकुरमुत्‍ते की तरह नये-नये धार्मिक पंथ पैदा किये गये, जातिगत अन्‍तरविरोधों को हवा देकर गाँवों में वर्गीय ध्रुवीकरण को बाधित किया गया और विनोबा और जे.पी. के भूदान और सर्वोदय की नीतियाँ बनायी गयीं। रजनी कोठारी द्वारा दिल्‍ली में स्‍थापित 'सी.एस.डी.एस.' ऐसे राजनीतिक-सामाजिक अध्‍येताओं का एक केन्‍द्र रहा है, जो नीति निर्माण में भारतीय राज्‍यसत्‍ता और साम्राज्‍यवादियों की एक थिंक टैंक के रूप में मदद करता रहा है। नब्‍बे के दशक के पूर्वार्द्ध में 'आक्‍सफेम' ने दलित प्रश्‍न पर एक विस्‍तृत रपट तैयार की थी जिसमें 'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स' की सैद्धान्तिकी के आधार पर मार्क्‍सवाद की वर्गीय राजनीति के बरक्‍स दलित आन्‍दोलन की एक रणनीति प्रस्‍तुत की गयी थी। गौरतलब है कि उसी के बाद से भारत के तमाम एन.जी.ओ. और ''सामाजिक आन्‍दोलन'' कमोबेश इसी लाइन पर धमाचौकड़ी मचाये हुए हैं और बहुतेरे कूपमण्‍डूक मार्क्‍सवादी नौबढ़ बुद्धिजीवी तथा कुछ कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी  ग्रुप भी आज उसी धुन पर नाच रहे हैं। इतने तथ्‍यों की चर्चा इसलिए की गयी है कि ताकि साइनाथ जैसों के रैडिकलिज्‍म को अच्‍छी तरह समझा जा सके और यह पहेली बूझी जा सके कि देशी-विदेशी शीर्ष पूँजीपतियों और उनके प्रबंधकों-एजेंटों से बने निदेशक मण्‍डल वाला एन.जी.ओ. 'बिजनेस ऐण्‍ड कम्‍युनिटी फाउण्‍डेशन' साइनाथ की 'परी' पर क्‍यों फिदा हो जाता है और कृषि के संकट और किसानों की आत्‍महत्‍या पर साइनाथ का व्‍याख्‍यान क्‍यों रखवाता है! इतने तथ्‍यों के बाद यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि अपने तमाम रैडिकल तेवर के बावजूद साइनाथ भी वस्‍तुत: सी.एस.डी.एस. मार्का या एन.जी.ओ. -- वामपंथी ब्राण्‍ड के बुद्धिजीवियों की ही तरह पूँजीवाद व्‍यवस्‍था के नीति-निर्माता तंत्र के ही एक अंग हैं, एक बुर्जुआ थिंक टैंक हैं। 'व्हिसल ब्‍लोअर' शब्‍द बिल्‍कुल ठीक ही प्रतीत होता है। ये 'व्हिसल ब्‍लोअर' सीटी बजाकर शासक वर्ग को सचेत करते रहते हैं -- 'सावधान, आगे गहरी खाई है' या , 'अंधा मोड़ है।'
साइनाथ ने अपने व्‍याख्‍यान में कहा कि ग्रामीण पत्रकारिता के इच्‍छुक तमाम उत्‍साही, सरोकारी युवा वित्‍तीय संसाधनों का इन्‍तज़ाम स्‍वयं करके 'परी' के लिए काम करें। जाहिर है, ये वित्‍तीय संसाधन एन.जी.ओ. और देशी-विदेशी फण्डिंग एजेंसियों से ही अनुदान और शोधवृत्ति के रूप में मिलेंगे। भविष्‍य में उन्‍होंने 'परी' की ओर से पचास शोधवृत्तियाँ देने की भी बात की है। जाहिर है, इनका प्रायोजन या वित्‍तपोषण भी एन.जी.ओ. ही करेंगे। अभी साइनाथ कुछ दिनों के लिए प्रिंसटन युनिवर्सिटी पढ़ाने चले गये हैं। आश्‍चर्य नहीं कि लौटते वक्‍त विदेशी वित्‍तपोषण के भी कई क़रारनामे उनकी जेब में हों।
अब अंत में साइनाथ की ग्रामीण पत्रकारिता की अंतर्वस्‍तु पर भी लगे हाथों कुछ बातें कर ली जायें। साइनाथ प्राय: अपनी रपटों में ''विक्षुब्‍ध वस्‍तुपरक'' मुद्रा में विस्‍थापन, कृषि ऋण, किसानों की आत्‍महत्‍या और खेती की तबाही आदि मुद्दों को उठाते रहे हैं, पर आर्थिक विश्‍लेषण की दृष्टि से उनके आख्‍यान नितान्‍त सतही होते हैं, उनका नज़रिया वर्ग विश्‍लेषण से रिक्‍त होता है और गाँवों को वे आंतरिक वर्ग अन्‍तरविरोधों से मुक्‍त जैविक इकाई के रूप में देखते हैं।
मिसाल के तौर पर कर्ज की समस्‍या लें। इसके दो रूप हैं। एक ओर वे धनी किसान हैं जो अपने मुनाफे की दर बढ़ाने के लिए उन्‍नत कृषि उपकरणों आदि पर निवेश करते हैं। पूँजीवादी बाजार का संकट जब गहराता है तो विनियोजित अधिशेष के छोटे भागीदारों के रूप में छोटे पूँजीपतियों और ग्रामीण पूँजीपतियों (यानी धनी किसानों, फार्मरों) को उसकी मार ज्‍यादा सहनी पड़ती है। इस प्रक्रिया में कई धनी और खुशहाल मध्‍यम किसान भी कर्ज के मकड़जाल में फँसकर अपनी खेती गिरवी रखने या बेचने को मजबुर हो जाते हैं। ऐसे लोगों का संकट छोटे शोषकों का संकट होता है। इनसे सर्वथा अलग उन छोटे किसानों का संकट होता है, जो मुख्‍यत: अपनी श्रमशक्ति लगाकर खेती करते हैं और बाजार की मार से उजड़ने के लिए अभिशप्‍त होते हैं। इन दोनों श्रेणियों से अलग वे खेत मज़दूर और ग़रीब किसान हैं जिनकी श्रमशक्ति निचोड़कर गाँवों के बड़े किसान अधिशेष बटोरते हैं। गाँव का यह सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा वर्ग छोटे और निचले मँझोले मालिक किसानों की तरह धनी और खुशहाल बन पाने की मृगमरीचिका का शिकार नहीं होता। इसे अपनी तमाम प‍रेशानियों के बावजूद प्राय: आत्‍महत्‍या का रास्‍ता नहीं चुनना पड़ता, क्‍योंकि खुशहाल ज़मीन मालिक बनने के भ्रम से मुक्ति उसे भारी कर्ज के मकड़जाल में नहीं फँसने देती। इसे कृषि उत्‍पाद नहीं, बल्कि अपनी श्रमशक्ति बेचकर जीना होता है और यदि गाँव में उसे इसके अवसर नहीं मिलते तो वह शहर आ जाता है। ज़मीन से उसका दिलोदिमाग़ मालिक किसान की तरह बँधा नहीं होता। रोजी-रोटी के लिए वह आसानी से गाँव छोड़ सकता है। यह मानसिकता उसे कूपमण्‍डूकता से मुक्‍त करती है। विस्‍थापन की विवशता उसकी दृष्टि को व्‍यापक बनाती है। जो छोटे और निम्‍न मध्‍यम मालिक किसान हैं, वे सदियों से ज़मीन के निजी मालिकाने की भूख से चिपके रहने से पैदा हुई कूपमण्‍डूकता के कारण अनुभवसंगत ढंग से भी पूँजी की गति को नहीं समझ पाते और अपनी छोटी किसानी को बचाकर खुशहाल होने का दिवास्‍वप्‍न पाले रहते हैं। यही विभ्रम इनमें से कुछ को आत्‍महत्‍या के मुकाम तक पहुँचा देता है। गाँवों में पूँजी का पाटा चलने और खेती के पूँजीवादी रूपान्‍तरण की अनिवार्य परिणति के तौर पर छोटे मालिकाने को उजड़ना ही है। यह पूँजीवाद की सार्वकालिक और सार्वभौमिक परिघटना है, विभिन्‍न कारणों से कहीं इसकी गति मंद और कहीं तीव्र हो सकती है। पूँजीवादी बाजार में वही मालिक किसान टिकेगा जो भारी पूँजी निवेश वाली खेती कर सकता है। शेष छोटी किसानी को उजड़ना ही है। इन्‍हीं उजड़े किसानों से शहरों और गाँवों के उजरती मज़दूरों की संख्‍या में भारी बढ़ोत्‍तरी होती है।
जहाँ तक धनी और खुशहाल मध्‍यम किसानों का प्रश्‍न है, मन्‍दी की मार और खेती के पूँजीवादी संकट की लहर उन्‍हें भी प्रभावित करती है (अन्‍य छोटे पूँजीपतियों की ही तरह)। लेकिन यह संकट ज्‍यादातर मामलों में उन्‍हें कंगाली और आत्‍महत्‍या तक नहीं ले जाता। कर्ज का दबाव उन्‍हें एकदम दिवालिया नहीं बना देता। पूँजी की ताकत उन्‍हें इन्‍तजार करने और उबरने का मौका देती है। बाजार की माँग के हिसाब से खेती का ढंग बदलकर, विकल्‍पों का विस्‍तार करके और श्रमशक्ति को और अधिक निचोड़ने के तरीके निकालकर वे मैदान में टिके रहते हैं। उनका संकट छोटे शोषक पर पूँजीवादी प्रतिस्‍पर्द्धा की मार से पैदा हुआ संकट होता है। हो सकता है, उनमें से भी दिवालिया होने पर कुछ एक आत्‍महत्‍या कर लेते हों। ऐसा तो कभी-कभी कुछ उद्योगपतियों के साथ भी हो सकता है। लेकिन ऐसे उजड़े शोषकों के शव पर शोषित जन क्‍यों विलाप कर रहे हैं? हाँ छोटे किसानों की तबाही और आत्‍महत्‍याएँ त्रासद हैं और उनके साथ पूरी हमदर्दी रखने वाला क्रांतिकारी दृष्टिकोण यही बताता है कि अपने विभ्रमों से मुक्‍त होकर मज़दूर वर्ग के संघर्षों में भागीदारी और पूँजीवादी निजी भूस्‍वामित्‍व की जगह सामूहिक भूस्‍वामित्‍व वाली समाजवादी व्‍यवस्‍था के लिए संघर्ष में भागीदारी ही छोटे किसानों के सामने एकमात्र रास्‍ता है, यही एक मुक्‍ति‍दायी विकल्‍प है।
कृषि के संकट पर गैरवर्गीय ढंग से सोचने वाले लोग प्राय: इस तथ्‍य को इंगित नहीं करते कि गाँवों में पूँजी संचय में जो भारी वृद्धि हुई है, यह किनके पास है? वे इसपर भी गौर नहीं करते कि खेती के तमाम संकटों के बावजूद पंजाब के (और महाराष्‍ट्र के भी) गाँवों में कुलकों के पास आज भारी तादाद में ऑडी, मर्सिडीज़, बी.एम.डब्‍ल्‍यू. जैसी गाड़ि‍याँ हैं। पूरे देश में गाँव के धनी तबके के उपभोग का स्‍तर लगातार काफी ऊपर आया है।
इस तथ्‍य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि जितने किसानों की मौतें पिछले दिनों आत्‍महत्‍या के चलते हुई, उससे कई गुना मौतें शहरों और गाँवों के मज़दूरों की और उनके बच्‍चों की, इसी कालावधि में भूख, कुपोषण और इलाज के अभाव के चलते हुई हैं। ये मौतें साइनाथ ब्राण्‍ड बुद्धिजीवियों के लिए स्‍वाभाविक मौतें होती हैं, इसलिए ये जाँच-पड़ताल और रपट का विषय नहीं बनतीं। वैसे पूँजीवादी समाज में मँहगाई, अभाव, बेरोजगारी, अवसाद और कर्ज की चपेट में आने वाले शहरी निम्‍न वर्ग में भी आत्‍महत्‍या की दर पिछले दो दशकों के दौरान लगातार बढ़ी है और उनकी संख्‍या किसानों की आत्‍महत्‍याओं से शायद ही कम हो।
विस्‍थापन और गाँवों से पलायन पर भी महज आँकड़ेबाजी करने वाले और शोरगुल मचाने वाले पत्रकार यह नहीं समझ पाते कि गाँवों से श्रमशक्ति का शहरों की ओर पलायन पूँजीवाद की एक अनिवार्य परिणति है। केवल बड़ी औद्योगिक परियोजनाएँ, इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर का निर्माण और शहरों का विस्‍तार ही इसके कारण नहीं हैं। यदि ये उपादान न हों, तो भी पूँजी की स्‍वतंत्र गति से गाँवों में उत्‍पादन के प्रमुखतम साधन के रूप में ज़मीन लगातार ज्‍यादा पूँजी वाले हाथों में संकेन्द्रित होती चली जायेगी, और छोटे मालिक किसानों का सर्वहाराकरण जारी रहेगा। कृषि इस भारी अतिरिक्‍त श्रमशक्ति को सोख पाने में अक्षम होती है। आप खेती के क्षेत्रफल को खींचकर नहीं बढ़ा सकते। चाहे तकनोलॉजी जितनी उन्‍नत हो, खेती में  श्रम‍शक्ति खपने की, उत्‍पादन बढ़ाने की और मुनाफा निचोड़ने की एक सापेक्षिक सीमा होगी और उद्योग से वह पीछे ही रहेगा, क्‍योंकि पूँजी और उन्‍नत तकनोलॉजी के सहारे औद्योगिक उत्‍पादन को और मुनाफे को निस्‍सीम रूप से बढ़ाया जा सकता है। क्षेत्रफल और जैविक उत्‍पादन की समयावधि की समस्‍याएँ वहाँ नहीं होतीं। इन्‍हीं कारणों के चलते हर पूँजीवादी समाज में पूँजी के निरंतर विस्‍तार का अनिवार्य दबाव औद्योगिक उत्‍पादन, वित्‍त और सेवाओं के केन्‍द्र के रूप में शहरों के विस्‍तार को लगातार गति देता जाता है। कृषि और उद्योग का अन्‍तर, गाँव और शहर का अंतर -- पूँजीवादी समाज में ये दो ऐसी अन्‍तरवैयक्तिक असमानताएँ हैं जो समाजवादी संक्रमण के दौरान भी एक लम्‍बी अवधि के बाद ही दूर हो सकेंगी और उत्‍पादन के साधनों के पूर्णरूपेण सामूहिक स्‍वामित्‍व तथा उत्‍पादक शक्तियों के विकास के अत्‍यधिक उन्‍नत स्‍तर के बिना यह कत्‍तई सम्‍भव नहीं हो सकेगा। राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की बुनियादी समझदारी के बिना केवल आँकड़ों एवं गणनाओं और किसानों की तबाही के भावुक मर्मस्‍पर्शी विवरणों से गाँवों की तबाही, किसानों की ऋणग्रस्‍तता और विस्‍थापन के बुनियादी कारणों को नहीं समझा जा सकता और उनके यथार्थवादी समाधान की समझ नहीं हासिल की जा सकती।
कृषि लागत के लगातार बढ़ते जाने और कृषि उत्‍पादों का लाभकारी मूल्‍य न मिलने पर साइनाथ जैसे लोग काफी चिन्‍ता प्रकट करते हैं। लेकिन खेती के लागत मूल्‍य और लाभकारी मूल्‍य की खूब बातें करने वाले ये लोग श्रमशक्ति के मूल्‍य का सवाल कभी नहीं उठाते। पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में, बाजार में यदि कृषि उत्‍पादों का मूल्‍य बढ़ता है तो उसका बोझ  उपभोक्‍ता के रूप में खरीदकर खाने वाले बहुसंख्‍यक मेहनतक़श समुदाय के लोग ही चुकाते हैं। और इससे मालिक किसानों को जो लाभ मिलता है, उससे वे अपने खेतों में काम करने वाले मज़दूरों की मज़दूरी तो कत्‍तई नहीं बढ़ाते। यानी लाभकारी मूल्‍य का मतलब है बाजार के लिए पैदा करने वाले किसानों को अधिक अधिशेष रीयलाइज़ करने का अवसर देना। अब लागत मूल्‍य के सवाल को लें। खेती के लिए ज़रूरी चीजों(उर्वरक, कीटनाशक, बीज, बिजली आदि) के मूल्‍य तभी कम किये जा सकते हैं जब इनमें लगने वाली श्रमशक्ति का मूल्‍य कम कर दिया जाये यानी इनका उत्‍पादन करने वाले मज़दूरों की वास्‍तविक मज़दूरी घटा दी जाये, क्‍योंकि इनके उत्‍पादन में लगने वाले कच्‍चे माल का मूल्‍य तो सीधे उत्‍पाद के मूल्‍य में संक्रमित हो जाता है। यानी खेती की लागत केवल मज़दूरों की कीमत पर ही कम की जा सकती है। अत: यह समझना कठिन नहीं है कि जो लोग केवल खेती के लागत मूल्‍य और लाभकारी मूल्‍य की बात करते हैं और श्रमशक्ति के मूल्‍य के सवाल पर चुप रहते हैं, उनकी वर्ग-अवस्थिति क्‍या है!
थोड़ी देर के लिए साइनाथ के एन.जी.ओ. रैडिकलिज्‍़म को छोड़ दें और उनकी पत्रकारिता में निहित दृष्टिकोण को भी यदि राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के नजरिए से देखें तो उनकी बुर्जुआ अवस्थिति एकदम स्‍पष्‍ट हो जाती है। बुनियादी तौर पर, किसानों और किसानी को लेकर साइनाथ की चिन्‍ताएँ उनकी सिसमोंदी और नरोदवादियों जैसी निम्‍न बुर्जुआ यूटोपिया से पैदा होती हैं। आश्‍चर्य नहीं कि यह यूटोपिया माकपा के संशोधनवादियों, ''नये सामाजिक आन्‍दोलनों'' के पुरोधा एन.जी.ओ. पंथियों और नववामपंथी ''मुक्‍त चिन्‍तकों'' को भी खूब भाता है। यही नहीं जो कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी आज भी नवजनवादी क्रांति के फ्रेमवर्क में भूमि क्रांति की बातें करते हैं, वे भी खेती के संकट के पूँजीवादी चरित्र को नहीं समझ पाने के कारण इसी नरोदवादी यूटोपिया को गले लगा लेते हैं और न चाहते हुए भी ''मार्क्‍सवादी नरोदवादी'' संज्ञा के हक़दार बन जाते हैं।    

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