निपट अँधेरा है
काला और घुप्प।
न कविजन निर्वाक्
न बौद्धिक हैं चुप।
व्याप रहा शोर दिग्-दिगंत,
लो, आखिर हो ही गया
इतिहास का अंत।
हुए विसर्जित सभी
क्रान्तियों के महाख्यान,
उत्तर-विचारधारा युग में
तना विमर्शों का वितान।
सभागारों में रचे और बाँचे जा रहे हैं
क्षुद्रताओं के विखण्डित आख्यान।
इस मृत्यु उपत्यका के उस पार जहाँ जीवन है
जारी है उन बीहड़ सर्पिल पथों पर
अविरत भविष्य-संधान।
--कविता कृष्णपल्लवी
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